रविवार, 2 मार्च 2025

आकांक्षा

कोई अनचीन्ही आकांक्षा हो तुम
जैसे मन का कोई अनसुना कोलाहल

कई बार मन की मुंडेरों से बाहर झाँका
परंतु वहाँ मुझे मिलीं मेरी ही सलज्ज आँखे
टकटकी बांधे कुछ अनकहा खोजती

पता है तुम्हें
रोज़ कान्हा को नैवेद्य रखती हूँ
फिर उसे माथे से लगाकर बाँट देती हूँ
वंचित रखती हूँ स्वयं को इस तृप्ति से
ये अतृप्ति आसक्ति का कोई रूप है
या मेरी हठ है
ज्ञात नहीं 
परंतु अतृप्त होना आहूत करता है मुझे
मन जैसे केसरिया चूनर ओढ़ लेता हो

आकांक्षाएँ पूर्ण हो जाए
तो नश्वर हो जाती हैं
और तुम तो अनिवार्यता हो
पृथ्वी जल वायु अग्नि और नेहमयी नभ की तरह

तुम यूँ ही रहो अप्राप्य
कागज़ में फिरती स्मृति की तरह
मन में बिखरती उदासी की तरह
आँखों से झरती कनक ओस की तरह

मैं खोजती रहूँगी पूर्णता
मन में स्वरित सन्नाटों में
बुझते दीये की महक में
सपनों में उभरते बिंबों में

कि कुछ आकाक्षाएँ कभी पूरी न हो
मन के स्फुरण के लिए आवश्यक है ये

- निधि सक्सेना
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संपादकीय चयन 

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