शनिवार, 22 मार्च 2025

ऊँचाई है कि

 मैं वह ऊँचा नहीं जो मात्र ऊँचाई पर होता है

कवि हूँ और पतन के अंतिम बिंदु तक पीछा करता हूँ

हर ऊँचाई पर दबी दिखती है मुझे ऊँचाई की पूँछ

लगता है थोड़ी सी ऊँचाई और होनी चाहिए थी


पृथ्वी की मोटाई समुद्रतल की ऊँचाई है

लेकिन समुद्रतल से हर कोई ऊँचा होना चाहता है

पानी भी, उसकी लहर भी

यहाँ तक कि घास भी और किनारे पर पड़ी रेत भी

कोई जल से कोई थल से कोई निश्छल से भी ऊँचा उठना चाहता है छल से

जल बादलों तक

थल शिखरों तक

शिखर भी और ऊँचा होने के लिए

पेड़ों की ऊँचाई को अपने में शामिल कर लेता है

और बर्फ़ की ऊँचाई भी

और जहाँ दोनों नहीं, वहाँ वह घास की ऊँचाई भी

अपनी बताता है


ऊँचा तो ऊँचा सुनेगा, ऊँचा समझेगा

आँख उठाकर देखेगा भी तो सवाए या दूने को

लेकिन चौगुने सौ गुने ऊँचा हो जाने के बाद भी

ऊँचाई है कि हर बार बची रह जाती है

छूने को ।


- लीलाधर जगूड़ी

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


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