शुक्रवार, 7 मार्च 2025

ग्रीष्म तक

अब मैं तुम्हें मिल नहीं पाऊँगी 

अब मैं लौट गई हूँ 

उन्हीं पत्तों में 

जिनकी मैं हरियाली थी


मैं लौट गई चिरपरिचित उसी अरण्य में 

जहाँ मैं सुनती रही थी अब तक 

दूसरे जीवों के जीवन-राग 

विशद आलाप 

देखती रही हूँ उनके जन्म 

उनके अवसान


अब मैं तुम्हें नहीं मिल सकूँगी 

बन गई हूँ दोबारा वह कोयल 

रोके रखती है जो अपनी आवाज़ 

ग्रीष्म तक

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- सविता सिंह

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अनूप भार्गव के सौजन्य से 


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