अब मैं तुम्हें मिल नहीं पाऊँगी
अब मैं लौट गई हूँ
उन्हीं पत्तों में
जिनकी मैं हरियाली थी
मैं लौट गई चिरपरिचित उसी अरण्य में
जहाँ मैं सुनती रही थी अब तक
दूसरे जीवों के जीवन-राग
विशद आलाप
देखती रही हूँ उनके जन्म
उनके अवसान
अब मैं तुम्हें नहीं मिल सकूँगी
बन गई हूँ दोबारा वह कोयल
रोके रखती है जो अपनी आवाज़
ग्रीष्म तक
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- सविता सिंह
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अनूप भार्गव के सौजन्य से
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