बुधवार, 5 मार्च 2025

अक्सर तुम शाम को

अक्सर तुम शाम को घर आकर पूछते
आज क्या-क्या किया?
मैं अचकचा जाती
सोचने पर भी जवाब न खोज पाती
कि मैंने दिन भर क्या किया
आखिर वक्त ख़्वाब की तरह कहाँ बीत गया
और हारकर कहती 'कुछ नहीं'
तुम रहस्यमयी ढंग से मुस्कुरा देते!

उस दिन मेरा मुरझाया 'कुछ नहीं' सुनकर
तुमने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा
सुनो ये 'कुछ नहीं' करना भी हर किसी के बस का नहीं है
सूर्य की पहली किरण संग उठना
मेरी चाय में ताज़गी
और बच्चों के दूध में तंदुरुस्ती मिलाना
टिफिन में खुशियाँ भरना
उन्हें स्कूल रवाना करना
फिर मेरा नाश्ता
मुझे दफ़्तर विदा करना
काम वाली बाई से लेकर
बच्चों के आने के वक्त तक
खाना कपड़े सफाई
पढ़ाई
फिर साँझ के आग्रह
रात के मसौदे
और इत्ते सबके बीच से भी थोड़ा वक्त
बाहर के काम के लिए भी चुरा लेना
कहो तो इतना 'कुछ नहीं' कैसे कर लेती हो

मैं मुग्ध सुन रही थी
तुम कहते जा रहे थे

तुम्हारा 'कुछ नहीं' ही इस घर के प्राण हैं
ऋणी हैं हम तुम्हारे इस 'कुछ नहीं' के
तुम 'कुछ नहीं' करती हो तभी हम 'बहुत कुछ' कर पाते हैं
तुम्हारा 'कुछ नहीं'
हमारी निश्चिंतता है
हमारा आश्रय है
हमारी महत्वाकांक्षा है
तुम्हारे 'कुछ नहीं' से ही ये मकां घर बनता है
तुम्हारे 'कुछ नहीं' से ही इस घर के सारे सुख हैं
वैभव है

मैं चकित सुनती रही
तुम्हारा एक-एक अक्षर स्पृहणीय था
तुमने मेरे समर्पण को मान दिया
मेरे 'कुछ नहीं' को सम्मान दिया

अब 'कुछ नहीं' करने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं
बस तुम प्रीत से मेरा मोल लगाते रहना
मान से मेरा शृंगार किया करना

- निधि सक्सेना
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संपादकीय चयन 

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