लोग कि अपने सिमटेपन में बिखरे-बिखरे हैं,
राजमार्ग भी, पगडंडी से ज्यादा सँकरे हैं।
राजमार्ग भी, पगडंडी से ज्यादा सँकरे हैं।
हर उपसर्ग हाथ मलता है, प्रत्यय झूठे हैं
पता नहीं है औषधियों को, दर्द अनूठे हैं
आँखें मलते हुए सबेरे केवल अखरे हैं।
पेड़ धुएँ का लहराता है अँधियारों जैसा,
है भविष्य भी बीते दिन के गलियारों जैसा
आँखों निचुड़ रहे से उजियारों के कतरे हैं।
उन्हें उठाते जो जग से उठ जाया करते हैं,
देख मज़ारों को हम शीश झुकाया करते हैं,
सही बात कहने के सुख के अपने ख़तरे हैं।
- यश मालवीय
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संपादकीय चयन
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