व्यथा
किसी से कुछ भी अपनी कब कह पाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
देख
तुम्हारी छवि को ही ये सूरज आँखें खोले
सोच तुम्हें बेसुध हो जाती जब कोयलिया बोले
पनघट पर नयनों की गागर मैं छलकाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
सोच तुम्हें बेसुध हो जाती जब कोयलिया बोले
पनघट पर नयनों की गागर मैं छलकाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
आ
जाओ हरजाई वरना तुमको दूँगी गाली
बिना तुम्हारे जग लगता है बिलकुल ख़ाली-ख़ाली
और मस्त पुरवाई दिल में आग लगाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
बिना तुम्हारे जग लगता है बिलकुल ख़ाली-ख़ाली
और मस्त पुरवाई दिल में आग लगाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
मैं हूँ प्रियतम प्रेम दीवानी जब से सबने जाना
बुलबुल, मोर, पपीहा निशदिन कसते मुझ पर ताना
मुई चाँदनी देख मुझे बस मुँह बिचकाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
तुम दीपक हो इस जीवन के आकर करो उजाला
तुम बिन साजन जली जा रही जैसे बाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
- चन्द्रगत भारती
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
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