सोमवार, 7 अक्तूबर 2024

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 
बह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

तुम विमुख हो, किंतु मैंने कब कहा उन्मुख रहो तुम? 
साधना है सहसनयना—बस, कहीं सम्मुख रहो तुम! 
विमुख-उन्मुख से परे भी तत्त्व की तल्लीनता है
लीन हूँ मैं, तत्त्वमय हूँ अचिर चिर-निर्वाण में हूँ! 
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

क्यों डरूँ मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी? 
क्यों डरूँ मैं क्षीण-पुण्या अवनि के संताप से भी? 
व्यर्थ जिसको मापने में हैं विधाता की भुजाएँ
वह पुरुष मैं, मर्त्य हूँ पर अमरता के मान में हूँ! 
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

रात आती है मुझे क्या? मैं नयन मूँदे हुए हूँ, 
आज अपने हृदय में मैं अंशुमाली को लिए हूँ! 
दर के उस शून्य नभ में सजल तारे छलछलाए
वज्र हूँ मैं, ज्वलित हूँ, बेरोक हूँ, प्रस्थान में हूँ! 
में तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

मूक संसृति आज है, पर गूँजते हैं कान मेरे, 
बुझ गया आलोक जग में, धधकते हैं प्राण मेरे। 
मौन या एकांत या विच्छेद क्यों मुझको सताए? 
विश्व झंकृत हो उठे, मैं प्यार के उस गान में हूँ! 
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

जगत है सापेक्ष, या है कलुष तो सौंदर्य भी है, 
हैं जटिलताएँ अनेक, अंत में सौकर्य भी है। 
किंतु क्यों विचलित करे मुझको निरंतर की कमी यह
एक है अद्वैत जिस स्थल मैं उस स्थान में हूँ! 
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

वेदना अस्तित्व की, अवसान की दुर्भावनाएँ
भव-मरण, उत्थान-अवनति, दुख-सुख की प्रक्रियाएँ 
आज सब संघर्ष मेरे पा गए सहसा समन्वय
आज अनिमिष देख तुमको लीन मैं चिर-ध्यान में हूँ! 
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

बह गया जग मुग्ध-सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 
प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

- अज्ञेय
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

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