सोमवार, 28 अक्तूबर 2024

सुना है कभी तुमने रंगों को

कभी-कभी
उजाले का आभास
अँधेरे के इतने क़रीब होता है
कि दोनों को अलग-अलग
पहचान पाना मुश्किल हो जाता है।

धीरे-धीरे
जब उजाला
खेलने-खिलने लगता है
और अँधेरा उसकी जुंबिश से
परदे की तरह हिलने लगता है
तो दोनों की
बदलती हुई गति ही
उनकी सही पहचान बन जाती है।

रौशन अँधेरे के साथ
लाली की नामालूम-सी झलक
एक ऐसा रंग रच देती है
जो चितेरे की आँख से ही
देखा जा सकता है।
क्योंकि उसका कोई नाम नहीं होता।
फिर रंगों के नाम
हमें ले ही कितनी दूर जाते हैं?
कोश में हम उनके हर साये के लिए
सही शब्द कहाँ पाते हैं?
रंगों की मिलावट से उपजा
हर अंतर, हर अंतराल 
एक नए रंग की संभावना बन जाता है
और अपना नाम स्वयं ही
अस्फुट स्वर में गाता है

कभी सुना है तुमने
प्रत्यक्ष रंगों को गाते हुए?
एक साथ स्वर-बद्ध होकर
सामने आते हुए?

- जगदीश गुप्त
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

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