गुरुवार, 31 अक्तूबर 2024

पनघट पर नयनों की गागर

व्यथा किसी से कुछ भी अपनी कब कह पाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
 
देख तुम्हारी छवि को ही ये सूरज आँखें खोले
सोच तुम्हें बेसुध हो जाती जब कोयलिया बोले
पनघट पर नयनों की गागर मैं छलकाती रे
आती है जब 
याद तुम्हारी बेहद आती रे।

आ जाओ हरजाई वरना तुमको दूँगी गाली
बिना तुम्हारे जग लगता है बिलकुल ख़ाली-ख़ाली
और मस्त पुरवाई दिल में आग लगाती रे
आती है जब 
याद तुम्हारी बेहद आती रे।

मैं हूँ प्रियतम प्रेम दीवानी जब से सबने जाना
बुलबुल, मोर, पपीहा निशदिन कसते मुझ पर ताना
मुई चाँदनी देख मुझे बस मुँह बिचकाती रे
आती है जब 
याद तुम्हारी बेहद आती रे।
 
मुझे गुलाबी भी दिखता है तुम बिन बिल्कुल काला
तुम दीपक हो इस जीवन के आकर करो उजाला
तुम बिन साजन जली जा रही जैसे बाती रे
आती है जब 
याद तुम्हारी बेहद आती रे।

चन्द्रगत भारती
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

कविता लिखने से पहले ही

कविता लिखने से पहले ही,
कवि का दर्जा पाने वाला, शायद पहला हूँ मैं।

मैंने जब प्रेम किया, तो लोगों ने कहा
इतनी शिद्दत से प्यार सिर्फ़, एक कवि ही कर सकता है

सीटियाँ बजाते हुए जब मैं बारिश में उड़ेल देता अपनी देह को,
कोने में खड़े जेंटलमैन फुसफुसाते कि
इसकी आवारा सीटी में है कविता का संगीत।

हर वक़्त स्वप्न देखना मेरी कला बन गई
उनको क़रीने से सजाता तो लोग कहते कि
अपनी कविताओं की प्रूफ़रीडिंग कर रहा है।

जब मैं बोलता तो लगता कि श्रवण कुमार भर रहा है घड़े में पानी,
कई दशरथों के निशाने होते मुझ पर,
छाती पर बाणों को मुस्कुराकर सहता
तो लोग कहते ऐसा साहस एक कवि में ही हो सकता है।

असल में मैं कवि नहीं हूँ,
मैं तो बस लोगों को सच करने में लगा हूँ।

- कपिल भारद्वाज
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

बूढ़ा पेड़

पेड़ बूढ़ा हो चुका था
पहले फलों
फिर पशु-पक्षियों
और आख़िर में कुछ बचे
सूखे पत्तों ने भी छुड़ा लिया था
उसके हाथों से
अपनी उँगलियों को
 
उस बूढ़े पेड़ से तोड़कर
अक्सर लाया करती थी माँ
उसकी बची-खुची सूखी लकड़ियाँ
जिससे पकाया जाता था
हम भाई-बहनों के लिए भोजन
 
माँ उस बूढ़े पेड़ की लकड़ियों
को तोड़ने से पूर्व
उसे सहलाना और गले लगाना नहीं भूलती
 
और अक्सर हमसे कहा करती
 
तुम्हें याद रखना है, मेरे बच्चो
कि कैसे एक बूढ़े पेड़ ने
अपने बुढ़ापे से
तुम्हें जवान किया है!

गुँजन श्रीवास्तव
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 28 अक्तूबर 2024

सुना है कभी तुमने रंगों को

कभी-कभी
उजाले का आभास
अँधेरे के इतने क़रीब होता है
कि दोनों को अलग-अलग
पहचान पाना मुश्किल हो जाता है।

धीरे-धीरे
जब उजाला
खेलने-खिलने लगता है
और अँधेरा उसकी जुंबिश से
परदे की तरह हिलने लगता है
तो दोनों की
बदलती हुई गति ही
उनकी सही पहचान बन जाती है।

रौशन अँधेरे के साथ
लाली की नामालूम-सी झलक
एक ऐसा रंग रच देती है
जो चितेरे की आँख से ही
देखा जा सकता है।
क्योंकि उसका कोई नाम नहीं होता।
फिर रंगों के नाम
हमें ले ही कितनी दूर जाते हैं?
कोश में हम उनके हर साये के लिए
सही शब्द कहाँ पाते हैं?
रंगों की मिलावट से उपजा
हर अंतर, हर अंतराल 
एक नए रंग की संभावना बन जाता है
और अपना नाम स्वयं ही
अस्फुट स्वर में गाता है

कभी सुना है तुमने
प्रत्यक्ष रंगों को गाते हुए?
एक साथ स्वर-बद्ध होकर
सामने आते हुए?

- जगदीश गुप्त
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 27 अक्तूबर 2024

शहीदों की चिताओं पर

उरूजे कामयाबी पर कभी हिंदोस्ताँ होगा
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा

चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को
बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा

ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल
पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा

जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा

वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा

शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा

कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा

- जगदंबा प्रसाद मिश्र 'हितैषी'
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हरप्रीत  सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 26 अक्तूबर 2024

बहते जल के साथ न बह

बहते जल के साथ न बह
कोशिश करके मन की कह।
 
मौसम ने तेवर बदले
कुछ तो होगी ख़ास वजह।
 
कुछ तो ख़तरे होंगे ही
चाहे जहाँ कहीं भी रह।
 
लोग तूझे कायर समझें
इतने अत्याचार न सह।
 
झूठ कपट मक्कारी का
चारण बनकर ग़ज़ल  कह।

जगदीश व्योम
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024

चायवाला

रोज़ सुबह
बिना नागा
वह पहुँच जाता है
नुक्कड़ वाले चौराहे पर बेचने चाय।
दो रूपए वाली उसकी चाय,
भगा देती है,
रात की बची नींद,
नींद का बचा असर
लोगों को तैयार करती है
नए दिन के लिए।

मिटाती है हुड़क,
हुड़क,
जिसकी गिरफ़्त में कई लोग हैं,
उसके सिर्फ़ एक कप के लिए।
बहुतेरों ने अपने रास्ते बदल लिए हैं
वे अब
नुक्कड़ वाले उस चौराहे से
उसकी दुकान से गुज़रते हैं।

बस एक मुट्ठी चेतना के लिए
ज़रा-सी मूर्छा भगाने
घोलने थोड़ी-सी मिठास
भगाने जरा-सी थकान
सोचने नए सिरे से
बैठने साथ-साथ
करने उत्तेजक वार्तालाप 
चलाने फिर से तेज़ कलम
तेज़ी से निबटाने अधूरा काम
सोच की भाल तेज करने
भगाने उबासी, मनहूसियत
हटाने अनचाही धुंध,
  
उसकी दो रूपए की चाय,
बड़े दफ्तर, कचहरी, रेस्ट हाउस 
और भी जाने कहाँ-कहाँ जाती है।
पर उसके पास हिसाब नहीं है
कि
उसने क्या-क्या किया।

वह बस बेचता है,
और शाम को हिसाब कर लेता है
मुट्ठी भर सिक्कों का।

- तरुण भटनागर
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2024

बराबर उसके क़द के यों मेरा क़द हो नहीं सकता

 

बराबर उसके क़द के यों मेरा क़द हो नहीं सकता

वो तुलसी हो नहीं सकता मैं बरगद हो नहीं सकता

 

मिटा दे लाँघ जाए या कि उसका अतिक्रमण कर ले

मैं ऐसी कोई भी कमज़ोर सरहद हो नहीं सकता

 

जमा कर ख़ुद के पाँवों को चुनौती देनी पड़ती है

कोई बैसाखियों के दम पे अंगद हो नहीं सकता

 

लिए हो फूल हाथों में बग़ल में हो छुरी लेकिन

महज़ सम्मान करना उसका मक़सद हो नहीं सकता

 

उफनकर वो भले ही तोड़ दे अपने किनारों को

रहे नाला सदा नाला कभी नद हो नहीं सकता

 

ख़ुशी का अर्थ क्या जाने वो मन कि शांति क्या समझे

बिहँसता देख बच्चों को जो गदगद हो नहीं सकता

 

है 'भारद्वाज' गहरा फ़र्क दोनों के मिज़ाजों में

मैं रूमानी ग़ज़ल वो भक्ति का पद हो नहीं सकता


-  चंद्रभानु भारद्वाज

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

श्रद्धा

प्राकृतिक है,
कृत्रिम नहीं,
पनपती है ज़मीन से
गमले में नहीं,
फूटता है अंकुर उसका
हृदयतल से,
हल्की-सी चोट से
टूटता है पल में,
बेशक, 
गमला कीमती होता है
बिकाऊ भी।

श्रद्धा अमूल्य है,
वह बिकती नहीं,
और इसी से वह
गमले में पनपती नहीं।

- उर्मिला शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 23 अक्तूबर 2024

ऊँचे क़द वाले लोगों के लिए

ऊँचे क़द वाले लोगों के लिए उसके बाहर एक सूचना है- 

यहाँ केवल मिट्टी ही आती है
सब अपने जूते बाहर ही उतार दो
अंदर लेकर आना मना है।

- अमृता भारती 
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2024

अश्वमेधी घोड़ा

तुम्हें पेड़ से हवा नहीं
लकड़ी चाहिए
नदी से पानी नहीं
रेत चाहिए
धरती से अन्न नहीं
महँगा पत्थर चाहिए
पक्षी, मछली और साँप को भूनकर
घोंसले, सीपी और बांबी पर
तुम अत्याधुनिक घर बना रहे हो
पेड़, नदी और पत्थर से
तुमने युद्ध छेड़ दिया है
पाताल, धरती और अंबर से 
तुम्हारा यह अश्वमेधी घोड़ा पानी कहाँ पिएगा?

- कमलजीत चौधरी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 21 अक्तूबर 2024

मुक्ति का उल्लास ही

मुक्ति का उल्लास ही
हर ओर छाया
प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

रूप, रस और गंध की
सरिता मचलती
सुधि नहीं रहती यहाँ
पल को भी पल की
विश्व व्यंजित नेह कण-कण में समाया
प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

आचरण को व्याकरण
भाता नहीं है
शब्द का संदर्भ से
नाता नहीं है
मुक्ति के विश्वास की उन्मुक्त काया
प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

मौसमों ने त्यागकर
ऋतुओं के डेरे
कर लिए इस लोक में
आकर बसेरे
हार में भी जीत का आनंद आया
प्यार के इस लोक को किसने बनाया?

- अश्वघोष
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 20 अक्तूबर 2024

सवेरा

सवेरा
सूर्य की विजय नहीं होता।
अधिकार की लड़ाई में
तारों की पराजय या
चँद्रमा का दमन भी नहीं।

सवेरा
एक यात्रा है
अँधेरे में नहाकर
लौट जाना
रोज़ की तरह
निर्धारित सफ़र के लिए।

सवेरा
किसी मानी का मद नहीं होता
अहम के रंग में रंगी
सोने की
सुर्ख़ तलवार भी नहीं।

सवेरा
कलाकार का चित्र है
नीले आधार पे उभरता
लाल रंग
और सोने की
छोटी-छोटी पंक्तियाँ।

सवेरा
काजल की कोठरी में
सयाने का जाना है
और बिना कालिख़ लगे
सुरक्षित साफ़-साफ़
वापिस लौट आना।

सवेरा
अंतहीन उजाला नहीं होता।
निराशा की गर्त में
किसी अँधेरे की
गंभीर प्रतीक्षा भी नहीं।

सवेरा
एक सच है
रात के सपनों को
साकार करने का
सुनहरा मौक़ा, और
नए सपने की
ज़मीनी हक़ीक़त देखने का भी।

- उमेश पंत
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 19 अक्तूबर 2024

जिसने बंदूक बनाई

जिसने ताला बनाया
उसने चाबी भी बनाई
जिसने दीवार बनाई
उसने खिड़की भी बनाई
जिसने धुरी बनाई
उसने यात्रा भी बनाई
जिसने हवा और पृथ्वी बनाई
उसने धूप भरे जल में स्नान करके उड़ती
चिड़िया भी बनाई
जिसने बंदूक बनाई
उसने और क्या बनाया?

- कमलजीत चौधरी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024

लड़कियाँ

कहाँ चली जाती हैं
हँसती खिलखिलाती
चहकती महकती
कभी चंचल नदियाँ
तो कभी ठहरे तालाब-सी लड़कियाँ

क्यों चुप हो जाती हैं
ग़ज़ल-सी कहती
नग़मों में बहती
सीधे दिल में उतरती
आदाब-सी लड़कियाँ

क्यों उदास हो जाती हैं
सपनों को बुनती
खुशियों को चुनती
आज में अपने कल को ढूँढती
बेताब-सी लड़कियाँ

कल दिखी थी, आज नहीं दिखती
पंख तो खोले थे, परवाज़ नहीं दिखती
कहाँ भेज दी जाती हैं
उड़ने को आतुर
सुरख़ाब-सी लड़कियाँ

 - सुदर्शन शर्मा
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नीरू भट्ट की पसंद 

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024

युद्ध

उसकी चीखें लगातार मेरे कानों में गूँज रही थी
वह चौराहे पर छाती पीटती हुई
गोल-गोल घूम रही थी
उसके कपड़े का एक छोर पकड़ 
एक थकी बच्ची रोती-बिलखती
उसके आगे-पीछे 
‘बस माँ, रुक जाओ..’
‘मेरे बच्चे मेरी गोदी में थे
जब मारे गए 
सुन रहे हो
वो भूखे मर गए
सुन रहे हो
उन्होंने खाना नहीं खाया था…’
इतनी मोहलत होती
कि मरने के पहले
पेट भर खा लेते बच्चे

- बेजी जैसन
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अनूप भार्गव की पसंद 

बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

सितारे

अँधेरी रातों में
दिशा ज्ञान के लिए
सितारों का मोहताज होना
अब ज़रूरी नहीं
चमकते सितारे
रौशनी का भ्रम लिए
सत्ता के आलोक में टिमटिमाते
एक-दूसरे का सहारा लेकर
अपने-अपने स्थान पर
संतुलन बनाने के फेर में हैं
हर सितारा
अपने ही प्रकाश से
आलोकित होने का दंभ लिए
उनकी मुठ्ठी में बंद 
सूरज की उपस्थिति से बेख़बर है।

 - शरद कोकास
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संपादकीय चयन 
 

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

उजियारे के कतरे

लोग कि अपने सिमटेपन में बिखरे-बिखरे हैं,
राजमार्ग भी, पगडंडी से ज्यादा सँकरे हैं।

हर उपसर्ग हाथ मलता है, प्रत्यय झूठे हैं
पता नहीं है औषधियों को, दर्द अनूठे हैं
आँखें मलते हुए सबेरे केवल अखरे हैं।

पेड़ धुएँ का लहराता है अँधियारों जैसा,
है भविष्य भी बीते दिन के गलियारों जैसा
आँखों निचुड़ रहे से उजियारों के कतरे हैं।

उन्हें उठाते जो जग से उठ जाया करते हैं,
देख मज़ारों को हम शीश झुकाया करते हैं,
सही बात कहने के सुख के अपने ख़तरे हैं।

 - यश मालवीय
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

वर्जनाओं के विरुद्ध

तुम्हारी वर्जनाओं के
विरुद्ध
तनी हुई मुट्ठियों में
अभी भी इतनी सामर्थ्य
बची है
कि भर सके
तुम्हारे विरुद्ध
हुंकार
और दर्ज करा सके
अपना प्रतिरोध
यद्यपि तुम्हारी अकड़न को
यह स्वीकार नहीं
बावजूद इसके
भिंची  हुई चबुरियाँ और
तनी हुई मुट्ठियाँ
कर देगी तुम्हारे विरुद्ध
इकबाल बुलंदी का
जयघोष
तुम्हारी क्रूरताएँ भी
रोक नहीं सकती
हक के लिए बढ़ते हुए कदम
अब फैसला तुम्हारे
हाथ में है
कि बचे हुए समय में
जमींदोज़ होती
आस्मिताएँ बचाने का
प्रयत्न करते हो
या फिर घुटकर
दम तोड़ने के लिए
छोड़ देना चाहते हो।

 - प्रद्युम्न कुमार
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बिजूका से साभार 

रविवार, 13 अक्तूबर 2024

एक यही अरमान गीत बन

एक यही अरमान गीत बन, 
प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ

जड़ जग के उपहार सभी हैं,
धार आँसुओं की बिन वाणी,
शब्द नहीं कह पाते तुमसे
मेरे मन की मर्म कहानी,
उर की आग, राग ही केवल
कंठस्थल में लेकर चलता,
एक यही अरमान गीत बन, 
प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ

जान-समझ मैं तुमको लूँगा
यह मेरा अभिमान कभी था,
अब अनुभव यह बतलाता है
मैं कितना नादान कभी था;
योग्य कभी स्वर मेरा होगा,
विवश उसे तुम दुहराओगे?
बहुत यही है अगर तुम्हारे 
अधरों से परिचित हो जाऊँ।
एक यही अरमान गीत बन, 
प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ

- हरिवंशराय बच्चन
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संपादकीय चयन

शनिवार, 12 अक्तूबर 2024

कविता लिखोगे?

क्या कहा?  
तुम राम पर कविता लिखोगे?

आपने किस घाट पर 
चंदन घिसा है 
कब भला रत्नावली  
का ग़म रिसा है 
संत तुलसीदास से आगे दिखोगे? 

गाँव में बीमार बूढ़ी 
माँ पड़ी है 
भार्या बस साथ रहने
पर अड़ी है 
पुत्र की कैसे कसौटी पर टिकोगे? 

बेर जूठे आपने खाए
कभी क्या 
द्वार शबरी के यहाँ आए
कभी क्या 
मोल जैसे ही लगा फ़ौरन बिकोगे! 

राम की गहराइयों तक
तो पहुँचिए
त्याग की परछाइयों तक
तो पहुँचिए
या कि कचरे-सा उड़ोगे या फिंकोगे? 

आपकी सीता कभी
बिछुड़ी नहीं है
आँख रत्ती-भर कभी
निचुड़ी नहीं है
फिर विरह की आँच में कैसे सिकोगे?

- दिनेश प्रभात
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अनूप भार्गव के सौजन्य से 

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2024

जानकी के लिए

मर चुका है रावण का शरीर
स्तब्ध है सारी लंका
सुनसान है किले का परकोटा
कहीं कोई उत्साह नहीं
किसी घर में नहीं जल रहा है दिया
विभीषण के घर को छोड़कर।

सागर के किनारे बैठे हैं विजयी राम
विभीषण को लंका का राज्य सौंपते हुए
ताकि सुबह हो सके उनका राज्याभिषेक
बार-बार लक्ष्मण से पूछते हैं
अपने सहयोगियों की कुशल क्षेम
चरणों के निकट बैठे हैं हनुमान!
मन में क्षुब्ध हैं लक्ष्मण
कि राम क्यों नहीं लेने जाते हैं सीता को
अशोक वाटिका से
पर कुछ कह नहीं पाते हैं।

धीरे-धीरे सिमट जाते हैं सभी काम
हो जाता है विभीषण का राज्याभिषेक
किंतु राम प्रवेश नहीं करते लंका में
बाहर ही ठहरते हैं एक ऊँचे टीले पर।

भेजते हैं हनुमान को अशोक-वाटिका
यह समाचार देने के लिए
कि मारा गया है रावण
और अब लंकाधिपति हैं विभीषण।

सीता सुनती हैं इस समाचार को
और रहती हैं ख़ामोश 
कुछ नहीं कहती
बस निहारती है रास्ता
रावण का वध करते ही
वनवासी राम बन गए हैं सम्राट?
लंका तक पहुँचकर भी भेजते हैं अपना दूत
नहीं जानना चाहते एक वर्ष कहाँ रही सीता
कैसे रही सीता?
नयनों से बहती है अश्रुधार
जिसे समझ नहीं पाते हनुमान
कह नहीं पाते वाल्मीकि।

राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती
इन परिचारिकाओं से
जिन्होंने मुझे भयभीत करते हुए भी
स्त्री की पूर्ण गरिमा प्रदान की
वे रावण की अनुचरी तो थीं
पर मेरे लिए माताओं के समान थीं।
राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती
इन अशोक वृक्षों से
इन माधवी लताओं से
जिन्होंने मेरे आँसुओं को
ओस के कणों की तरह सहेजा अपने शरीर पर
पर राम तो अब राजा हैं
वह कैसे आते सीता को लेने?
विभीषण करवाते हैं सीता का शृंगार
और पालकी में बिठाकर पहुँचाते हैं राम के भवन पर
पालकी में बैठे हुए सीता सोचती है
जनक ने भी तो उसे विदा किया था इसी तरह!

वहीं रोक दो पालकी,
गूँजता है राम का स्वर
सीता को पैदल चलकर आने दो मेरे समीप!
ज़मीन पर चलते हुए काँपती है भूमिसुता
क्या देखना चाहते हैं
मर्यादा पुरुषोत्तम, कारावास में रहकर
चलना भी भूल जाती हैं स्त्रियाँ?
अपमान और उपेक्षा के बोझ से दबी सीता
भूल जाती है पति मिलन का उत्साह
खड़ी हो जाती है किसी युद्ध-बंदिनी की तरह!
कुठाराघात करते हैं राम - सीते, कौन होगा वह पुरुष
जो वर्ष भर पर-पुरुष के घर में रही स्त्री को
करेगा स्वीकार?
मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ, तुम चाहे जहाँ जा सकती हो।
उसने तुम्हें अंक में भरकर उठाया
और मृत्यु पर्यंत तुम्हें देखकर जीता रहा
मेरा दायित्व था तुम्हें मुक्त कराना
पर अब नहीं स्वीकार कर सकता तुम्हें पत्नी की तरह!
वाल्मीकि के नायक तो राम थे
वे क्यों लिखते सीता का रुदन
और उसकी मनोदशा?
उन क्षणों में क्या नहीं सोचा होगा सीता ने
कि क्या यह वही पुरुष है
जिसका किया था मैंने स्वयंवर में वरण
क्या यह वही पुरुष है जिसके प्रेम में
मैं छोड़ आई थी अयोध्या का महल
और भटकी थी वन, वन!
हाँ, रावण ने उठाया था मुझे गोद में
हाँ, रावण ने किया था मुझसे प्रणय निवेदन
वह राजा था चाहता तो बलात ले जाता अपने रनिवास में
पर रावण पुरुष था,
उसने मेरे स्त्रीत्व का अपमान कभी नहीं किया
भले ही वह मर्यादा पुरुषोत्तम न कहलाए इतिहास में!
यह सब कहला नहीं सकते थे वाल्मीकि
क्योंकि उन्हें तो रामकथा ही कहनी थी!
आगे की कथा आप जानते हैं
सीता ने अग्नि-परीक्षा दी
कवि को कथा समेटने की जल्दी थी
राम, सीता और लक्ष्मण अयोध्या लौट आए
नगर वासियों ने दीपावली मनाई
जिसमें शहर के धोबी शामिल नहीं हुए।

आज इस दशहरे की रात
मैं उदास हूँ उस रावण के लिए
जिसकी मर्यादा
किसी मर्यादा पुरुषोत्तम से कम नहीं थी।
मैं उदास हूँ कवि वाल्मीकि के लिए
जो राम के समक्ष सीता के भाव लिख न सके।
आज इस दशहरे की रात
मैं उदास हूँ स्त्री अस्मिता के लिए
उसकी शाश्वत प्रतीक जानकी के लिए! 

- राजेश्वर वशिष्ठ
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अनूप भार्गव के सौजन्य से 

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2024

क्षमा-पत्र

सारी दुनिया की स्त्रियों
मुझे क्षमा कर देना उन सभी अपराधों के लिए
जो मैं आज तक करता रहा तुम पर। 

कुछ अपराध अनजाने में भी हुए होंगे
और कुछ किए गए होंगे इसलिए
कि तुम्हारी आँखों की इबारतें पढ़कर
डगमगाई होगी मेरी सत्ता
तिलमिलाया होगा मेरा अहम।

मुझे बचपन से सिखाया गया था
तुम हारने के लिए नहीं बने हो।

तुम्हें देखकर हर बार बेचैन हो जाता था मैं 
पकड़कर क़ैद करना चाहता था
उन तितलियों को 
जो मँडराती थी तुम्हारे चेहरे के इर्द-गिर्द
रस-रंग की खोज में
मैं भी छूकर देखना चाहता था उन सपनों को
जो तैर रहे थे तुम्हारी आँखों में।

तुम्हारा मन तुम्हारा था
तुम्हारे सपने भी तुम्हारे थे
और शरीर भी केवल तुम्हारा ही था
उनसे जुड़े निर्णय भी सब तुम्हें ही लेने थे।

सिकंदर की तरह निकलता है हर पुरुष
पूरी दुनिया फतह करने
बिना यह जाने कि अगर 
उसने जीत भी ली सारी दुनिया
तो क्या उसे भोग पाएगा समग्रतः
हर सिकंदर मरता ही है किसी तीर की नोक से 
बरसों इस सत्य का अहसास ही नहीं हुआ मुझे।

सुनेत्रा,
आज, बुद्ध की साक्षी में लिख रहा हूँ यह बयान
जो ध्यानमग्न हैं!
पता नहीं वह इस शपथ-पत्र के
गवाह बनना चाहते हैं या नहीं
उनसे बेहतर कौन समझता है पुरुष-मन!

इसलिए
सारी दुनिया की स्त्रियों
मुझे क्षमा कर देना उन सभी अपराधों के लिए
जो मैं आज तक करता रहा तुम पर। 

- राजेश्वर वशिष्ठ
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अनूप भार्गव के सौजन्य से 

बुधवार, 9 अक्तूबर 2024

कोई अधूरा पूरा नहीं होता

कोई अधूरा पूरा नहीं होता
और एक नया शुरू होकर
नया अधूरा छूट जाता
शुरू से इतने सारे
कि गिने जाने पर भी अधूरे छूट जाते
 
परंतु इस असमाप्त
अधूरे से भरे जीवन को
पूरा माना जाए, अधूरा नहीं
कि जीवन को भरपूर जिया गया
 
इस भरपूर जीवन में
मृत्यु के ठीक पहले भी मैं
एक नई कविता शुरू कर सकता हूँ
मृत्यु के बहुत पहले की कविता की तरह
जीवन की अपनी पहली कविता की तरह
 
किसी नए अधूरे को अंतिम न माना जाए।
 
- विनोद कुमार शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 
 

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2024

चिड़िया का गीत

एक हरे वृक्ष पर पीली चिड़िया आती थी 
चिड़िया एक जंगल से उड़कर आती थी 
नीचे अपनी साँवली परछाई के ऊपर 
अपने पीलेपन को 
आकाश के नीले में गाती थी 

एक पुकार से वृक्ष की मटमैली जड़ 
सिहरकर उसको देखती थी 
अगली बार चिड़िया जड़ के मटमैले को गाती थी 
उसे सुनकर एक पकता हुआ फल सुगंधित हो जाता था 
पकता हुआ फल लाल और रस को पुकारता था 
तुरंत चिड़िया लाल और रस को गाती थी 
गाने में सुगंध जो क्षण भर पहले छूटा 
तत्क्षण सुगंध को भरपाई में 
दो बार गाती थी 
एक बेरंग हवा वहाँ से गुज़रती थी 
वृक्ष बाहर थोड़ा हिलता था 
चिड़िया थोड़ी देर बेरंग, बाहर और हिलने को गाती 
चिड़िया का गाना सब सुनते थे 
अचानक चिड़िया को लगता था 
कि वह ख़ुद का गाना न सुनती थी 
फिर चुप होकर वह ख़ुद को सुनने लगती थी 
फिर बिन बोले अपने सुनने को गाती थी 
वह एक चिड़िया जितने को जितना गाती थी 
उसी एक में उतनी चिड़ियाएँ 
उतनी और उतर आती थीं 
आख़िर में भर कर सब चिड़ियाएँ सब में 
एक साथ चुपचाप सुनने का गीत गाती थीं!

- प्रकाश
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 7 अक्तूबर 2024

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 
बह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

तुम विमुख हो, किंतु मैंने कब कहा उन्मुख रहो तुम? 
साधना है सहसनयना—बस, कहीं सम्मुख रहो तुम! 
विमुख-उन्मुख से परे भी तत्त्व की तल्लीनता है
लीन हूँ मैं, तत्त्वमय हूँ अचिर चिर-निर्वाण में हूँ! 
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

क्यों डरूँ मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी? 
क्यों डरूँ मैं क्षीण-पुण्या अवनि के संताप से भी? 
व्यर्थ जिसको मापने में हैं विधाता की भुजाएँ
वह पुरुष मैं, मर्त्य हूँ पर अमरता के मान में हूँ! 
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

रात आती है मुझे क्या? मैं नयन मूँदे हुए हूँ, 
आज अपने हृदय में मैं अंशुमाली को लिए हूँ! 
दर के उस शून्य नभ में सजल तारे छलछलाए
वज्र हूँ मैं, ज्वलित हूँ, बेरोक हूँ, प्रस्थान में हूँ! 
में तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

मूक संसृति आज है, पर गूँजते हैं कान मेरे, 
बुझ गया आलोक जग में, धधकते हैं प्राण मेरे। 
मौन या एकांत या विच्छेद क्यों मुझको सताए? 
विश्व झंकृत हो उठे, मैं प्यार के उस गान में हूँ! 
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

जगत है सापेक्ष, या है कलुष तो सौंदर्य भी है, 
हैं जटिलताएँ अनेक, अंत में सौकर्य भी है। 
किंतु क्यों विचलित करे मुझको निरंतर की कमी यह
एक है अद्वैत जिस स्थल मैं उस स्थान में हूँ! 
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

वेदना अस्तित्व की, अवसान की दुर्भावनाएँ
भव-मरण, उत्थान-अवनति, दुख-सुख की प्रक्रियाएँ 
आज सब संघर्ष मेरे पा गए सहसा समन्वय
आज अनिमिष देख तुमको लीन मैं चिर-ध्यान में हूँ! 
मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 

बह गया जग मुग्ध-सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! 
प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

- अज्ञेय
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 6 अक्तूबर 2024

बाज़ार में खड़े होकर

कभी बाज़ार में खड़े होकर
बाज़ार के ख़िलाफ़ देखो

उन चीज़ों के ख़िलाफ़ 
जिन्हें पाने के लिए आए हो इस तरफ़

ज़रूरतों की गठरी कंधे से उतार देखो
कोने में खड़े होकर नक़ली चमक से सजा
तमाशा-ए-असबाब देखो

बाज़ार आए हो कुछ लेकर ही जाना है
सब कुछ पाने की हड़बड़ी के ख़िलाफ़ देखो

डंडी मारने वाले का हिसाब और उधार देखो
चैन ख़रीद सको तो ख़रीद लो
बेबसी बेच पाओ तो बेच डालो

किसी की ख़ैर में न सही अपने लिए ही
लेकर हाथ में जलती एक मशाल देखो

कभी बाज़ार में खड़े होकर
बाज़ार के ख़िलाफ़ देखो

- यतीन्द्र मिश्र 
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 5 अक्तूबर 2024

समय के उलट

मौन से संकेत  
संकेत से ध्वनि 
ध्वनि से बोली 
बोली से भाषा 
बनने की प्रक्रिया 
पुरानी पड़ चुकी है 
नवीन प्रक्रिया में 
भाषाओं का घड़ा रीत चुका है 
बोली 'हल्ला बोलने'
ध्वनि धमकाने 
और संकेत साँसों पर साँकल चढ़ाने के 
काम लाए जा रहे हैं 
हम समय में उल्टे बह रहे हैं 
यह चुप्पी से भाषा निर्माण का नहीं 
भाषा से चुप्पी साधने का समय है।

-  अंजुम शर्मा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

मेरा आँगन, मेरा पेड़

मेरा आँगन
कितना कुशादा कितना बड़ा था
जिसमें
मेरे सारे खेल
समा जाते थे
और आँगन के आगे था वह पेड़
कि जो मुझसे काफ़ी ऊँचा था
लेकिन
मुझको इसका यक़ीं था
जब मैं बड़ा हो जाऊँगा
इस पेड़ की फुनगी भी छू लूँगा
बरसों बाद
मैं घर लौटा हूँ
देख रहा हूँ
ये आँगन
कितना छोटा है
पेड़ मगर पहले से भी थोड़ा ऊँचा है

-  जावेद अख़्तर
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

शहर

सिर पर 
गेहूँ की बोरी लादकर 
गाँव का आदमी उतरता है शहर में, 

शहर 
गेहूँ की बोरी उसके सिर से उतारता है 
आदमी को पीसता है 
और खा जाता है।

- अंजुम शर्मा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

शहीदों की चिताओं पर

 

उरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा

रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा

 

चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को

बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा

 

ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल

पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा

 

जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़

न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा

 

वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है

सुना है आज मक़्तल में हमारा इम्तिहाँ होगा

 

शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले

वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा

 

कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे

जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा


जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


 

जय घोष एक त्रासदी है

बहुत भोले हो तुम
बार-बार धोखा खाकर भी तुम
गढ़ने लगते हो
एक मूर्ति
किसी नायक की
जो खोलेगा
तुम्हारी गिरह गाँठ
सहलाएगा उन ज़ख़्मों को
जो रिस रहें हैं सदियों से
उसके पास होगी
फूलों वाली जादू की छड़ी
हवा में घुमाएगा गोल-गोल
कहेगा हाँ!
मैं ही तो हूँ
मुक्तिदाता
मेरे पीछे आओ
तुमने भी सुनी तो थी बचपन में
उस बाँसुरी वादक की कहानी
जिसके पीछे चल दिए थे
सब के सब चूहे।
बार-बार भूल जाते हो
बहुत भोले हो यार
बचो उन आवाज़ों से
जो बहुत तेज़ होती हैं
जय घोष त्रासदी
हर जीत मानव की छाती पर हुआ घाव है।
कविता अभी ज़िंदा है
संगीत की लहरी
और
फूलों की घाटी का स्वप्न ज़िंदा है अभी।

-  राजेश अरोड़ा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024

अभी-अभी एक गीत रचा है

अभी-अभी एक गीत रचा है तुमको जीते-जीते 
अभी-अभी अमृत छलका है अमृत पीते-पीते 

अभी-अभी साँसों में उतरी है साँसों की माया 
अभी-अभी होंठों ने जाना अपना और पराया 
अभी-अभी एहसास हुआ जीवन, जीवन बोता है 
ख़ुद को शून्य बनाना भी कितना विराट होता है 
अभी-अभी भर दिए मधुकलश सारे रीते-रीते 
अभी-अभी अमृत छलका है अमृत पीते-पीते 

अभी-अभी संवाद हुए हैं चाहों में आहों में 
अभी-अभी चाँदनी घुली है अंबर की बाँहों में 
अभी-अभी पीड़ा ने खोजा सुख का रैनबसेरा 
अभी-अभी 'हम' होकर पिघला सब कुछ 'तेरा-मेरा'
अभी-अभी भर गया समंदर नदियाँ पीते-पीते 
अभी-अभी अमृत छलका है अमृत पीते-पीते

- कुमार विश्वास
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद