सोमवार, 31 मार्च 2025
शुक्रिया
शनिवार, 29 मार्च 2025
कुंडली तो मिल गई है
मन नहीं मिलता, पुरोहित!
क्या सफल परिणय रहेगा?
गुण मिले सब जोग वर से, गोत्र भी उत्तम चुना है।
ठीक है कद, रंग भी मेरी तरह कुछ गेंहुआ है।
मिर्च मुझ पर माँ न जाने क्यों घुमाए जा रही है?
भाग्य से है प्राप्त घर-वर, बस यही समझा रही है।
भानु, शशि, गुरु, शुभ त्रिबल, गुण-दोष,
है सब-कुछ व्यवस्थित,
अब न प्रति-पल भय रहेगा?
रीति-रस्मों के लिए शुभ लग्न देखा जा रहा है।
क्यों अशुभ कुछ सोचकर, मुँह को कलेजा आ रहा है?
अब अपरिचित हित यहाँ मंतव्य जाना जा रहा है।
किंतु मेरा मौन 'हाँ' की ओर माना जा रहा है।
देह की हल्दी भरेगी,
घाव अंतस के अपरिमित?
सर्व मंगलमय रहेगा?
क्या सशंकित मांग पर सिंदूर की रेखा बनाऊँ?
सात पग भर मात्र चलकर साथ सदियों का निभाऊँ?
यज्ञ की समिधा लिए फिर से नए संकल्प भर लूँ?
क्या अपूरित प्रेम की सद्भावना उत्सर्ग कर दूँ?
भूलकर अपना अहित-हित,
पूर्ण हो जाऊँ समर्पित?
ये कुशल अभिनय रहेगा!
क्या सफल परिणय रहेगा?
शुक्रवार, 28 मार्च 2025
मैं हूँ मानवी
मैं हूँ
समर्पण हैं, समझौते हैं
तुम हो बहुत क़रीब
मैं हूँ
हँसी है, ख़ुशी है
और तुम हो नज़दीक ही
मैं हूँ
दर्द है, आँसू हैं
तुम कहीं नहीं
मैं हूँ मानवी
ओ सभ्य पुरुष !
- संध्या नवोदिता
गुरुवार, 27 मार्च 2025
आवाज दो
आज तुम
इस शाम
मुझे
इस अंधियारे
में उसी नाम
से पुकारो
जिस नाम से
पहली बार
तुम ने
बुलाया था
ताकि मैं
वही पुरानी
हूक में
डूब कर
सारा मालिन्य
धो कर
तुम्हारी आवाज पर
फिर से
लौट पाऊँ ।
- सुदर्शन प्रियदर्शिनी
बुधवार, 26 मार्च 2025
तुम ही प्रश्न नहीं करते हो
तुम ही प्रश्न नहीं करते हो मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।
हिम्मत करके बाहर आओ
ख़ुद के अंदर से निकलो,
बाहर तो आकाश खिला है
घर के अंदर से निकलो।
काया कल्प तुम्हारा कर दूँ
ऐसा जंतर लिए खड़ा हूँ
तुम ही प्रश्न नहीं करते हो
मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।
पर्वत से तुम नीचे आकर
बस थोड़ा सा लहराओ,
मंज़िल तुमको मिल जाएगी
नहीं तनिक भी घबराओ।
लहरों के आगोश में आओ
एक समंदर लिए खड़ा हूँ।।
तुम ही प्रश्न नहीं करते हो
मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।
आओ आओ मुझको वर लो
मैं तो सिर्फ तुम्हारा हूँ,
तुम देहरी से भवन बना लो
मैं तो निपट दुआरा हूँ।
क्यों अब देर कर रहे प्रियतम
मैं तो अवसर लिए खड़ा हूँ।
तुम ही प्रश्न नहीं करते हो
मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।।
ये धरती जन्मों की प्यासी
आओगे तो तृप्ति मिलेगी,
रेत हुए मन के आंगन को
एक अनोखी सृष्टि मिलेगी।
पानी बीज खाद बन जाओ
मैं मन बंजर लिए खड़ा हूँ।।
आखिर तुमने पूछ लिया है
धरती बादल का रिश्ता,
छुवन छुवन ने बता दिया है
मरहम घायल का रिश्ता।
तुमने जादू फैलाया तो
मैं भी मंतर लिए खड़ा हूँ।
तुम ही प्रश्न नहीं करते हो
मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।।
मंगलवार, 25 मार्च 2025
क्या साहस हारुँगा
घटो-घटो मुझमें तुम,
ओ मेरे परिवर्तन।
मंद नहीं होने दूँगा,
मैं अपना अभिनव नर्तन।
क्या साहस हारुँगा!
कभी नहीं-कभी नहीं!
वीणा को सम पर रख,
अमर राग गाऊँगा।
देह को अदेह बना,
काल को बजाऊँगा।
जन्मों से बंद द्वार,
मानस के खोलूँगा।
रच दूँगा नवल नृत्य,
द्रुत लय पर दोलूँगा।
खुलो-खुलो मुझमें तुम,
सकल सृष्टि के चेतन।
प्रसरित हो जाने दो,
मेरा सब प्रेमाराधन।
कलुष सब बुहारूँगा।
क्या-साहस हारूँगा!
कभी नहीं, कभी नहीं।
तम विदीर्ण कर दूँगा,
रच दूँगा नये सूर्य।
अमर श्वाँस फूँकूँगा,
होगी ध्वनि महा-तूर्य।
मथ दूँगा सृष्टि सकल,
जन्मूँगा नव-मानव।
कण-कण को तब होगा,
नव-चेतन का अनुभव।
उठो-उठो मुझमें तुम,
ओ मेरे आराधन!
मैं हूँ नैवेद्य स्वयं,
मैं स्वाहा, मैं दर्शन।
दिव्य-देह धारूँगा।
क्या साहस हारूँगा!
कभी नहीं, कभी नहीं।
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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
सोमवार, 24 मार्च 2025
पाँच खिड़कियों वाले घर
दर्पण में
जन्मी छाया से
मैंने अपनी कथा कही ।
बहुत बढ़ाकर
कहने पर भी
कथा रही
ढाई आखर की
गूँज उठी
सारी दीवारें
पाँच खिड़कियों
वाले घर की
एक प्रहर
युग-युग जीने की
सच पूछो तो प्रथा यही
- शतदल
रविवार, 23 मार्च 2025
साँचे में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ
साँचे में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ
कुछ और पिघलने का हुनर सीख रहा हूँ
गिर-गिर के सँभलने का हुनर सीख लिया है
रफ़्तार से चलने का हुनर सीख रहा हूँ
मुमकिन है फ़लक छूने की तदबीर अलग हो
फ़िलहाल उछलने का हुनर सीख रहा हूँ
पूरब में उदय होना मुक़द्दर में लिखा था
पश्चिम में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ
कब तक मुझे घेरे में रखेंगी ये चटानें
रिस-रिस के निकलने का हुनर सीख रहा हूँ
शनिवार, 22 मार्च 2025
ऊँचाई है कि
मैं वह ऊँचा नहीं जो मात्र ऊँचाई पर होता है
कवि हूँ और पतन के अंतिम बिंदु तक पीछा करता हूँ
हर ऊँचाई पर दबी दिखती है मुझे ऊँचाई की पूँछ
लगता है थोड़ी सी ऊँचाई और होनी चाहिए थी
पृथ्वी की मोटाई समुद्रतल की ऊँचाई है
लेकिन समुद्रतल से हर कोई ऊँचा होना चाहता है
पानी भी, उसकी लहर भी
यहाँ तक कि घास भी और किनारे पर पड़ी रेत भी
कोई जल से कोई थल से कोई निश्छल से भी ऊँचा उठना चाहता है छल से
जल बादलों तक
थल शिखरों तक
शिखर भी और ऊँचा होने के लिए
पेड़ों की ऊँचाई को अपने में शामिल कर लेता है
और बर्फ़ की ऊँचाई भी
और जहाँ दोनों नहीं, वहाँ वह घास की ऊँचाई भी
अपनी बताता है
ऊँचा तो ऊँचा सुनेगा, ऊँचा समझेगा
आँख उठाकर देखेगा भी तो सवाए या दूने को
लेकिन चौगुने सौ गुने ऊँचा हो जाने के बाद भी
ऊँचाई है कि हर बार बची रह जाती है
छूने को ।
हरप्रीत
सिंह पुरी के सौजन्य से
शुक्रवार, 21 मार्च 2025
मौन ही मुखर है
कितनी सुन्दर थी
वह नन्हीं-सी चिड़िया
कितनी मादकता थी
कण्ठ में उसके
जो लाँघ कर सीमाएँ सारी
कर देती थी आप्लावित
विस्तार को विराट के
कहते हैं
वह मौन हो गई है-
पर उसका संगीत तो
और भी कर रहा है गुंजरित-
तन-मन को
दिगदिगन्त को
इसीलिए कहा है
महाजनों ने कि
मौन ही मुखर है,
कि वामन ही विराट है ।
- विष्णु प्रभाकर
गुरुवार, 20 मार्च 2025
क्षणिकाएँ
लिफाफा
पैगाम तुम्हारा
और पता उनका
दोनों के बीच
फाड़ा मैं ही जाऊँगा।
झाड़न
पड़ा रहने दो मुझे
झटको मत
धूल बटोर रखी है
वह भी उड़ जाएगी।
बुधवार, 19 मार्च 2025
सुर
कोई सुर अंदर ही बजता है कई बार
दीवार से टकराता है
बेसुरा नहीं होता फिर भी
कितनी ही बार छलकता है जमीन पर
पर फैलता नहीं
नदी में फेंक डालने की साजिश भी तो हुई इस सुर के साथ बार-बार
सुर बदला नहीं
सुर में सुख है
सुख में आशा
आशा में साँस का एक अंश
इतना अंश काफी है
मेरे लिए, मेरे अपनों के लिए, तुम्हारे लिए, पूरे के पूरे जमाने के लिए
पर इस सुर को
कभी सहलाया भी है ?
सुर में भी जान है
क्यों भूलते हो बार-बार
मंगलवार, 18 मार्च 2025
क्षणिका
एयर-कन्डीशनर की
थोड़ी-सी हवा चुरा के रख दी है
मैंने
तुम्हारी पसंदीदा क़िताबों में
जब
ज्येष्ठ की दुपहरी में
बत्ती गुल हो जाएगी
और
झल्ला कर खोलोगे
तुम क़िताब
तो तुम्हे ठंडी हवा आएगी
- लीना मल्होत्रा
सोमवार, 17 मार्च 2025
भाषा में लोग
छोटी-सी भाषा में
जो अब मृत भाषाओं की सूची में है
पूरा महाभारत हुआ ज़िंदगी का
मुख्य भाषा के साहित्य में मगर
अनलिखे, अनदिखे रहे वे लोग
जो सिर्फ़ अपनी भाषा में जी-मर रहे थे ।
रविवार, 16 मार्च 2025
प्रेम
मुमकिन है बहुत कुछ
आसमान से चिपके तारे अपने गिरेबां में सजा लेना
शब्दों की तिजोरी को लबालब भर लेना
देखो तो इंद्रधनुष में ही इतने रंग आज भर आए
और तुम लगे सोचने
ये इंद्रधनुष को आज क्या हो गया!
सुर मिले इतने कि पूछा खुद से
ये नए सुरों की बारात यकायक कहाँ से फुदक आई?
भीनी धूप से भर आई रजाई
मन की रूई में खिल गए झम-झम फूल
प्रियतम,
यह सब संभव है, विज्ञान से नहीं,
प्रेम में आँखें खुली हों या मुंदी
जो प्रेम करता है
उसके लिए कुछ सपना नहीं
बस, जो सोच लिया, वही अपना है।
-वर्तिका नन्दा
शनिवार, 15 मार्च 2025
मौन
वो सब बाते अनकही रह गई हैं
जो मै तुमसे और तुम मुझसे कहना चाहती थीं
हम भूल गए थे
जब आँखे बात करती हैं
शब्द सहम कर खड़े रहते हैं
रात की छलनी से छन के निकले थे जो पल
वे सब मौन ही थे
उन भटकी हुई दिशाओ में
तुम्हारी मुस्कराहटों से भरी नज़रों ने जो चाँदनी की चादर बिछाई थी
अँजुरी भर भर पी लिए थे नेत्रों ने लग्न-मन्त्र
याद है मुझे
अब भी मेरी सुबह जब ख़ुशगवार होती है
मै जानता हूँ ये बेवज़ह नही
तुम अपनी जुदा राह पर
मुझे याद कर रही हो
शुक्रवार, 14 मार्च 2025
छू पाओ तो
छू पाओ तो
मन को छू लो
मदिर फागुनी धूप खिलेगी
अनायास ही महक उठेगा
मन सपनों में गन्ध घुलेगी
भावों के
उन्मुक्त गगन में
डोल सको पँछी से डोलो
छू पाओ तो
मन को छू लो
तन मिट्टी का एक खिलौना
इसको पाया तो क्या पाया
नदी रेत की मृग की तृष्णा
छाया केवल, छाया, छाया
प्राणों की
शाश्वत वीणा पर
घोल सको अमृत स्वर घोलो
छू पाओ तो
मन को छू लो
- मधु प्रधान
गुरुवार, 13 मार्च 2025
उन से नैन मिलाकर देखो
उन से नैन मिलाकर देखो
ये धोखा भी खा कर देखो
दूरी में क्या भेद छिपा है
इसकी खोज लगाकर देखो
किसी अकेली शाम की चुप में
गीत पुराने गाकर देखो
आज की रात बहुत काली है
सोच के दीप जला कर देखो
जाग-जाग कर उम्र कटी है
नींद के द्वार हिलाकर देखो
- मुनीर नियाज़ी
बुधवार, 12 मार्च 2025
गिलहरी की उड़ान
मैं लेना चाहता हूँ
सूरज से कुछ रोशनी
और बन जाना चाहता हूँ एक सुबह
जो किसी चिड़िया के चहचहाने की वज़ह बन जाए,
चाँद से कुछ चमक ले लूँ,
और बन जाऊँ चमकती लहरें
जो किनारे पर जाकर
कछुओं के बच्चों को
अपनी गोद में बिठाकर
समंदर तक छोड़ आयें
मैं रात से कुछ
अँधेरा भी लेना चाहूँगा
और बन जाना चाहूँगा एक नींद
जो बच्चों को सपनों की दुनिया में ले जा सके
मैं पेड़ों से उनकी शाखाएँ चाहता हूँ,
कुछ समय के लिए
और बन जाना चाहता हूँ एक झूला
जिस पर एक बाप
अपने बच्चे को एक ऊंचा-सा झोटा दे पाए
मैं परिंदों से
उनके पंख लेना चाहता हूँ
ताकि मैं एक लंबी उड़ान भर सकूँ
वही उड़ान
जो किसी गिलहरी ने अपने सपने में
देखी होगी!
- मुदित श्रीवास्तव
मंगलवार, 11 मार्च 2025
इच्छा से मुँह फेरकर
प्रेम में इच्छा
इच्छा से मुँह फेर कर
वह कहाँ जाएगी?
इच्छा से मुँह फेरकर
वह रेल की पटरी पर जाएगी
या झील के किनारे
या नींद की दसवीं गोली के सिरहाने
तीसरी मंज़िल की मुँडेर पर
अंतिम इच्छा के संकोच तक
प्रेम में इच्छा थी, इच्छा में तृष्णा
तृष्णा क्यों माँगती थी
अपने लिए जगह?
काफ़ी नहीं थी तृष्णा के लिए
उनींद, अधनींद, स्वप्न का दोष
तृष्णा से बचकर वह कहाँ रहेगी?
तृष्णा से बचकर
वह अपनी देह में रहेगी
कभी न उतरने वाले
निन्यानवे के बुख़ार की तरह
पाप की ऐंठन की तरह
प्रेम में इच्छा थी
इच्छा में देह
देह जब नहीं बचेगी
इच्छा कहाँ रहेगी?
सोमवार, 10 मार्च 2025
छोटी-सी इच्छा
तारों से लबालब
भरे आसमान को
दिल में समाने के लिए
आसमान से बड़ा दिल नहीं
प्रेम से लबालब भरा हुआ
एक छोटा-सा दिल चाहिए होगा
पूरी पृथ्वी को समाने के लिए
पृथ्वी से बड़ी इच्छा नहीं
चाहिए होगी
प्रेम कर पाने की
एक छोटी-सी इच्छा!
रविवार, 9 मार्च 2025
इश्तेहार
उसने उसकी गली नहीं छोड़ी
अब भी वहीं चिपका है
फटे इश्तेहार की तरह
अच्छा हुआ मैं पहले
निकल आया
नहीं तो मेरा भी वही हाल होता।
कुछ लड़कियाँ
शनिवार, 8 मार्च 2025
सबकुछ
सबकुछ होने के बाद
जो कुछ नहीं है
वही तुम हो
तुम्हारे होने के बाद
जो भी कुछ है
वही सबकुछ है
शुक्रवार, 7 मार्च 2025
ग्रीष्म तक
अब मैं लौट गई हूँ
उन्हीं पत्तों में
जिनकी मैं हरियाली थी
मैं लौट गई चिरपरिचित उसी अरण्य में
जहाँ मैं सुनती रही थी अब तक
दूसरे जीवों के जीवन-राग
विशद आलाप
देखती रही हूँ उनके जन्म
उनके अवसान
अब मैं तुम्हें नहीं मिल सकूँगी
बन गई हूँ दोबारा वह कोयल
रोके रखती है जो अपनी आवाज़
ग्रीष्म तक
-----------
- सविता सिंह
--------------
अनूप भार्गव के सौजन्य से
गुरुवार, 6 मार्च 2025
बचपन का घर
बुधवार, 5 मार्च 2025
अक्सर तुम शाम को
मंगलवार, 4 मार्च 2025
शाम लेने अब लगी अँगड़ाइयाँ
सोमवार, 3 मार्च 2025
तुम्हारे पालने के बाहर
रविवार, 2 मार्च 2025
आकांक्षा
शनिवार, 1 मार्च 2025
फिर बीता वसंत
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बात सीधी थी पर एक बार भाषा के चक्कर में ज़रा टेढ़ी फँस गई। उसे पाने की कोशिश में भाषा को उलटा पलटा तोड़ा मरोड़ा घुमाया फिराया कि बात या तो ब...
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पत्थरों में कचनार के फूल खिले हैं इनकी तरफ़ देखते ही आँखों में रंग छा जाते हैं मानो ये चंचल नैन इन्हें जनमों से जानते थे। मानो हृदय ही फूला...
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चेतना पारीक कैसी हो? पहले जैसी हो? कुछ-कुछ ख़ुश कुछ-कुछ उदास कभी देखती तारे कभी देखती घास चेतना पारीक, कैसी दिखती हो? अब भी कविता लिखती हो? ...