सोमवार, 31 मार्च 2025

शुक्रिया

मार्च की उस दुपहर
मेरे बाजू पर तुम्हारा चेहरा पड़ा था,
कानों पर चिपके नीले हेडफ़ोन्स और बिखरे बालों के बीच
दमकता तुम्हारा स्वप्निल चेहरा
केसरबाई केरकर की आवाज़ में राग केदार सुनते हुए
नींद में झूल रहे थे तुम।

दाहिनी बाँह पर तुम्हारी नींद को यूँ सजाकर
बाईं हथेली में तुम्हारी ही पांडुलिपि के पन्ने पकड़े
पढ़ती रही मैं,
तुम्हीं को।

किसी झिलमिल प्रेम-कविता जैसी यह दुपहर
विश्व कविता दिवस के रोज़ जीवन में आई थी।
कविता को शुक्रिया कहूँ,
या तुम्हें?

- प्रियंका दुबे
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अनूप भार्गव की पसंद 

शनिवार, 29 मार्च 2025

कुंडली तो मिल गई है

कुंडली तो मिल गई है,
मन नहीं मिलता, पुरोहित!
क्या सफल परिणय रहेगा?
गुण मिले सब जोग वर से, गोत्र भी उत्तम चुना है।
ठीक है कद, रंग भी मेरी तरह कुछ गेंहुआ है।
मिर्च मुझ पर माँ न जाने क्यों घुमाए जा रही है?
भाग्य से है प्राप्त घर-वर, बस यही समझा रही है।
भानु, शशि, गुरु, शुभ त्रिबल, गुण-दोष,
है सब-कुछ व्यवस्थित,
अब न प्रति-पल भय रहेगा?
रीति-रस्मों के लिए शुभ लग्न देखा जा रहा है।
क्यों अशुभ कुछ सोचकर, मुँह को कलेजा आ रहा है?
अब अपरिचित हित यहाँ मंतव्य जाना जा रहा है।
किंतु मेरा मौन 'हाँ' की ओर माना जा रहा है।
देह की हल्दी भरेगी,
घाव अंतस के अपरिमित?
सर्व मंगलमय रहेगा?
क्या सशंकित मांग पर सिंदूर की रेखा बनाऊँ?
सात पग भर मात्र चलकर साथ सदियों का निभाऊँ?
यज्ञ की समिधा लिए फिर से नए संकल्प भर लूँ?
क्या अपूरित प्रेम की सद्भावना उत्सर्ग कर दूँ?
भूलकर अपना अहित-हित,
पूर्ण हो जाऊँ समर्पित?
ये कुशल अभिनय रहेगा!
क्या सफल परिणय रहेगा?

- इति शिवहरे

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 28 मार्च 2025

मैं हूँ मानवी

मैं हूँ

समर्पण हैं, समझौते हैं

तुम हो बहुत क़रीब


मैं हूँ

हँसी है, ख़ुशी है

और तुम हो नज़दीक ही


मैं हूँ

दर्द है, आँसू हैं

तुम कहीं नहीं


मैं हूँ मानवी

ओ सभ्य पुरुष !


-  संध्या नवोदिता

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 27 मार्च 2025

आवाज दो

आज तुम

इस शाम

मुझे

इस अंधियारे

में उसी नाम

से पुकारो

जिस नाम से

पहली बार

तुम ने

बुलाया था

ताकि मैं

वही पुरानी

हूक में

डूब कर

सारा मालिन्य

धो कर

तुम्हारी आवाज पर

फिर से

लौट पाऊँ । 


 - सुदर्शन प्रियदर्शिनी

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 26 मार्च 2025

तुम ही प्रश्न नहीं करते हो

 तुम ही प्रश्न नहीं  करते हो मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।

हिम्मत करके बाहर आओ

ख़ुद के अंदर से निकलो,

बाहर तो आकाश खिला है

घर के अंदर से निकलो।

काया कल्प तुम्हारा कर दूँ 

ऐसा जंतर लिए खड़ा हूँ

तुम ही प्रश्न नहीं  करते हो

मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।


पर्वत से तुम नीचे आकर

बस थोड़ा सा लहराओ,

मंज़िल तुमको मिल जाएगी

नहीं तनिक भी घबराओ।

लहरों के आगोश में आओ

एक समंदर लिए खड़ा हूँ।।

तुम ही प्रश्न नहीं  करते हो

मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।


आओ आओ मुझको वर लो

मैं तो सिर्फ तुम्हारा हूँ,

तुम देहरी से भवन बना लो

मैं तो निपट दुआरा हूँ।

क्यों अब देर कर रहे प्रियतम

मैं तो अवसर लिए खड़ा हूँ।

तुम ही प्रश्न नहीं करते हो

मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।।


ये धरती जन्मों की प्यासी 

आओगे तो तृप्ति मिलेगी,

रेत हुए मन के आंगन को

एक अनोखी सृष्टि मिलेगी।

पानी बीज खाद बन जाओ

मैं मन बंजर लिए खड़ा हूँ।।


आखिर तुमने पूछ लिया है

धरती बादल का रिश्ता,

छुवन छुवन ने बता दिया है 

मरहम घायल का रिश्ता।

तुमने जादू फैलाया तो

मैं भी मंतर लिए खड़ा हूँ।

तुम ही प्रश्न नहीं करते हो

मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।।


- सर्वेश अस्थाना

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 25 मार्च 2025

क्या साहस हारुँगा

घटो-घटो मुझमें तुम, 

ओ मेरे परिवर्तन।

मंद नहीं होने दूँगा, 

मैं अपना अभिनव नर्तन।


क्या साहस हारुँगा! 

कभी नहीं-कभी नहीं! 


वीणा को सम पर रख, 

अमर राग गाऊँगा।

देह को अदेह बना, 

काल को बजाऊँगा।


जन्मों से बंद द्वार, 

मानस के खोलूँगा।

रच दूँगा नवल नृत्य, 

द्रुत लय पर दोलूँगा।


खुलो-खुलो मुझमें तुम, 

सकल सृष्टि के चेतन।

प्रसरित हो जाने दो, 

मेरा सब प्रेमाराधन।

कलुष सब बुहारूँगा।


क्या-साहस हारूँगा! 

कभी नहीं, कभी नहीं।


तम विदीर्ण कर दूँगा, 

रच दूँगा नये सूर्य।

अमर श्वाँस फूँकूँगा, 

होगी ध्वनि महा-तूर्य।


मथ दूँगा सृष्टि सकल, 

जन्मूँगा नव-मानव।

कण-कण को तब होगा, 

नव-चेतन का अनुभव।


उठो-उठो मुझमें तुम, 

ओ मेरे आराधन! 

मैं हूँ नैवेद्य स्वयं, 

मैं स्वाहा, मैं दर्शन।

दिव्य-देह धारूँगा।


क्या साहस हारूँगा! 

कभी नहीं, कभी नहीं।


- संजय सिंह 'मस्त'

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


सोमवार, 24 मार्च 2025

पाँच खिड़कियों वाले घर

 दर्पण में 

जन्मी छाया से

मैंने अपनी कथा कही ।


बहुत बढ़ाकर 

कहने पर भी

कथा रही 

ढाई आखर की

गूँज उठी 

सारी दीवारें

पाँच खिड़कियों 

वाले घर की


एक प्रहर 

युग-युग जीने की

सच पूछो तो प्रथा यही

- शतदल

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 23 मार्च 2025

साँचे में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ

 साँचे में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ

कुछ और पिघलने का हुनर सीख रहा हूँ


गिर-गिर के सँभलने का हुनर सीख लिया है

रफ़्तार से चलने का हुनर सीख रहा हूँ


मुमकिन है फ़लक छूने की तदबीर अलग हो

फ़िलहाल उछलने का हुनर सीख रहा हूँ


पूरब में उदय होना मुक़द्दर में लिखा था

पश्चिम में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ


कब तक मुझे घेरे में रखेंगी ये चटानें

रिस-रिस के निकलने का हुनर सीख रहा हूँ


- विजय कुमार स्वर्णकार

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शनिवार, 22 मार्च 2025

ऊँचाई है कि

 मैं वह ऊँचा नहीं जो मात्र ऊँचाई पर होता है

कवि हूँ और पतन के अंतिम बिंदु तक पीछा करता हूँ

हर ऊँचाई पर दबी दिखती है मुझे ऊँचाई की पूँछ

लगता है थोड़ी सी ऊँचाई और होनी चाहिए थी


पृथ्वी की मोटाई समुद्रतल की ऊँचाई है

लेकिन समुद्रतल से हर कोई ऊँचा होना चाहता है

पानी भी, उसकी लहर भी

यहाँ तक कि घास भी और किनारे पर पड़ी रेत भी

कोई जल से कोई थल से कोई निश्छल से भी ऊँचा उठना चाहता है छल से

जल बादलों तक

थल शिखरों तक

शिखर भी और ऊँचा होने के लिए

पेड़ों की ऊँचाई को अपने में शामिल कर लेता है

और बर्फ़ की ऊँचाई भी

और जहाँ दोनों नहीं, वहाँ वह घास की ऊँचाई भी

अपनी बताता है


ऊँचा तो ऊँचा सुनेगा, ऊँचा समझेगा

आँख उठाकर देखेगा भी तो सवाए या दूने को

लेकिन चौगुने सौ गुने ऊँचा हो जाने के बाद भी

ऊँचाई है कि हर बार बची रह जाती है

छूने को ।


- लीलाधर जगूड़ी

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शुक्रवार, 21 मार्च 2025

मौन ही मुखर है

 कितनी सुन्दर थी

वह नन्हीं-सी चिड़िया

कितनी मादकता थी

कण्ठ में उसके

जो लाँघ कर सीमाएँ सारी

कर देती थी आप्लावित

विस्तार को विराट के


कहते हैं

वह मौन हो गई है-

पर उसका संगीत तो

और भी कर रहा है गुंजरित-

तन-मन को

दिगदिगन्त को


इसीलिए कहा है

महाजनों ने कि

मौन ही मुखर है,

कि वामन ही विराट है ।


- विष्णु प्रभाकर

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


गुरुवार, 20 मार्च 2025

क्षणिकाएँ

 लिफाफा


पैगाम तुम्हारा 

और पता उनका 

दोनों के बीच 

फाड़ा मैं ही जाऊँगा।



झाड़न


पड़ा रहने दो मुझे

झटको मत

धूल बटोर रखी है

वह भी उड़ जाएगी।


- विश्वनाथ प्रताप सिंह

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 19 मार्च 2025

सुर

 कोई सुर अंदर ही बजता है कई बार

दीवार से टकराता है

बेसुरा नहीं होता फिर भी

 

कितनी ही बार छलकता है जमीन पर

पर फैलता नहीं

 

नदी में फेंक डालने की साजिश भी तो हुई इस सुर के साथ बार-बार

सुर बदला नहीं

 

सुर में सुख है

सुख में आशा

आशा में  साँस  का एक अंश

इतना अंश काफी है

मेरे लिए, मेरे अपनों के लिए, तुम्हारे लिए, पूरे के पूरे जमाने के लिए

पर इस सुर को

कभी सहलाया भी है ?

सुर में भी जान है

क्यों भूलते हो बार-बार


- वर्तिका नन्दा

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 18 मार्च 2025

क्षणिका

एयर-कन्डीशनर की

थोड़ी-सी हवा चुरा के रख दी है

मैंने

तुम्हारी पसंदीदा क़िताबों में


जब

ज्येष्ठ की दुपहरी में

बत्ती गुल हो जाएगी

और

झल्ला कर खोलोगे

तुम क़िताब


तो तुम्हे ठंडी हवा आएगी

 

- लीना मल्होत्रा

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-हरप्रीत सिंह पुरी के  सौजन्य से 

सोमवार, 17 मार्च 2025

भाषा में लोग

बहुत कुछ हुआ इस छोटे से इलाके की
छोटी-सी भाषा में
जो अब मृत भाषाओं की सूची में है
पूरा महाभारत हुआ ज़िंदगी का
मुख्य भाषा के साहित्य में मगर
अनलिखे, अनदिखे रहे वे लोग
जो सिर्फ़ अपनी भाषा में जी-मर रहे थे ।

- लीलाधर जगूड़ी

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 16 मार्च 2025

प्रेम

 मुमकिन है बहुत कुछ

आसमान से चिपके तारे अपने गिरेबां में सजा लेना

शब्दों की तिजोरी को लबालब भर लेना


देखो तो इंद्रधनुष में ही इतने रंग आज भर आए

और तुम लगे सोचने

ये इंद्रधनुष को आज क्या हो गया!


सुर मिले इतने कि पूछा खुद से

ये नए सुरों की बारात यकायक कहाँ  से फुदक आई?


भीनी धूप से भर आई रजाई

मन की रूई में खिल गए झम-झम फूल


प्रियतम,

यह सब संभव है, विज्ञान से नहीं,

प्रेम में आँखें खुली हों या मुंदी

जो प्रेम करता है

उसके लिए कुछ सपना नहीं

बस, जो सोच लिया, वही अपना है।


-वर्तिका नन्दा

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 15 मार्च 2025

मौन

 वो सब बाते अनकही रह गई हैं 

जो मै तुमसे और तुम मुझसे कहना चाहती थीं 

हम भूल गए थे

जब आँखे बात करती हैं 

शब्द सहम कर खड़े रहते हैं 

रात की छलनी से छन के निकले थे जो पल

वे सब मौन ही थे

उन भटकी हुई दिशाओ में

तुम्हारी मुस्कराहटों से भरी नज़रों ने जो चाँदनी की चादर बिछाई थी

अँजुरी भर भर पी लिए थे नेत्रों ने लग्न-मन्त्र

याद है मुझे


अब भी मेरी सुबह जब ख़ुशगवार होती है

मै जानता हूँ ये बेवज़ह नही

तुम अपनी जुदा राह पर

मुझे याद कर रही हो


-लीना मल्होत्रा

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- हरप्रीत सिंह के सौजन्य से 
 

शुक्रवार, 14 मार्च 2025

छू पाओ तो

छू पाओ तो

मन को छू लो


उन्मन मन नीरिल नयनों में

मदिर फागुनी धूप खिलेगी

अनायास ही महक उठेगा

मन सपनों में गन्ध घुलेगी

भावों के

उन्मुक्त गगन में

डोल सको पँछी से डोलो

छू पाओ तो

मन को छू लो


तन मिट्टी का एक खिलौना

इसको पाया तो क्या पाया

नदी रेत की मृग की तृष्णा

छाया केवल, छाया, छाया

प्राणों की

शाश्वत वीणा पर

घोल सको अमृत स्वर घोलो

छू पाओ तो

मन को छू लो


-  मधु प्रधान

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 13 मार्च 2025

उन से नैन मिलाकर देखो

उन से नैन मिलाकर देखो

ये धोखा भी खा कर देखो


दूरी में क्या भेद छिपा है

इसकी खोज लगाकर देखो


किसी अकेली शाम की चुप में

गीत पुराने गाकर देखो


आज की रात बहुत काली है

सोच के दीप जला कर देखो


जाग-जाग कर उम्र कटी है

नींद के द्वार हिलाकर देखो


- मुनीर नियाज़ी

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 12 मार्च 2025

गिलहरी की उड़ान

 मैं लेना चाहता हूँ

सूरज से कुछ रोशनी

और बन जाना चाहता हूँ एक सुबह

जो किसी चिड़िया के चहचहाने की वज़ह बन जाए,


चाँद से कुछ चमक ले लूँ,

और बन जाऊँ चमकती लहरें

जो किनारे पर जाकर

कछुओं के बच्चों को

अपनी गोद में बिठाकर

समंदर तक छोड़ आयें


मैं रात से कुछ

अँधेरा भी लेना चाहूँगा

और बन जाना चाहूँगा एक नींद

जो बच्चों को सपनों की दुनिया में ले जा सके


मैं पेड़ों से उनकी शाखाएँ चाहता हूँ,

कुछ समय के लिए

और बन जाना चाहता हूँ एक झूला

जिस पर एक बाप

अपने बच्चे को एक ऊंचा-सा झोटा दे पाए


मैं परिंदों से

उनके पंख लेना चाहता हूँ

ताकि मैं एक लंबी उड़ान भर सकूँ

वही उड़ान

जो किसी गिलहरी ने अपने सपने में

देखी होगी!

- मुदित श्रीवास्तव

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 हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 11 मार्च 2025

इच्छा से मुँह फेरकर

दोस्ती में प्रेम था
प्रेम में इच्छा
इच्छा से मुँह फेर कर
वह कहाँ जाएगी?
इच्छा से मुँह फेरकर
वह रेल की पटरी पर जाएगी
या झील के किनारे
या नींद की दसवीं गोली के सिरहाने
तीसरी मंज़िल की मुँडेर पर
अंतिम इच्छा के संकोच तक
प्रेम  में इच्छा थी, इच्छा में तृष्णा
तृष्णा क्यों माँगती थी
अपने लिए जगह?
काफ़ी नहीं थी तृष्णा के लिए
उनींद, अधनींद, स्वप्न का दोष
तृष्णा से बचकर वह कहाँ रहेगी?
तृष्णा से बचकर
वह अपनी देह में रहेगी
कभी न उतरने वाले
निन्यानवे के बुख़ार की तरह
पाप की ऐंठन की तरह
प्रेम में इच्छा थी
इच्छा में देह
देह जब नहीं बचेगी
इच्छा कहाँ रहेगी?

- गगन गिल
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अनूप भार्गव के सौजन्य से 

सोमवार, 10 मार्च 2025

छोटी-सी इच्छा


तारों से लबालब
भरे आसमान को
दिल में समाने के लिए
आसमान से बड़ा दिल नहीं
प्रेम से लबालब भरा हुआ
एक छोटा-सा दिल चाहिए होगा
पूरी पृथ्वी को समाने के लिए
पृथ्वी से बड़ी इच्छा नहीं
चाहिए होगी
प्रेम कर पाने की
एक छोटी-सी इच्छा!

-  मुदित श्रीवास्तव

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 9 मार्च 2025

इश्तेहार

 उसने उसकी गली नहीं छोड़ी

अब भी वहीं चिपका है

फटे इश्तेहार की तरह

अच्छा हुआ मैं पहले

निकल आया

नहीं तो मेरा भी वही हाल होता।


- विश्वनाथ प्रताप सिंह 

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- हरप्रीत  सिंह पुरी की पसंद 

कुछ लड़कियाँ

कुछ लड़कियाँ खूब पढ़ रही हैं
कुछ लड़कियाँ अच्छे ओहदों पर पहुँच रही हैं
कुछ लड़कियाँ अपने हकों के लिए लड़ रही हैं
कुछ लड़कियाँ कविताएँ लिख रही हैं
कुछ लड़कियाँ डरती नहीं किसी से
कुछ लड़कियाँ पार्टी कर रही हैं
कुछ लड़कियाँ खुलकर हँस रही हैं
कुछ लड़कियाँ प्यार में हैं

कुछ लड़कियों को देख लगता है
अब लड़कियों की दुनिया बदल चुकी है
उनकी दुनिया का अँधेरा मिट चुका है

लेकिन अभी भी बहुत सारी लड़कियाँ
पढ़ाई पूरी नहीं कर पा रहीं
जूझ रही हैं अपनी पसंद के विषय की पढ़ाई के लिए,
आगे की पढ़ाई के लिए
बहुत सारी लड़कियाँ
अपनी पसंद के रिश्तों के सपने से भी बाहर हैं
बहुत सारी लड़कियाँ पूरी पढ़ाई करके भी
जी रही हैं अधूरी ज़िंदगी ही
बहुत सारी लड़कियाँ पैसे कमा रही हैं
लेकिन नहीं कमा पा रही हैं अपने हिस्से के सुख
बहुत सारी लड़कियाँ उलझी हुई हैं
साज-शृंगार में, तीज त्योहार में
बहुत सारी लड़कियाँ
एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ी की जा रही हैं
बहुत सारी लड़कियाँ अन्याय को सह जाने को अभिशप्त हैं
कुछ लड़कियों और बहुत-सी लड़कियों के बीच एक लंबी दूरी है
कुछ लड़कियों के बारे में सोचना सुख से भरता है
लेकिन हक़ीक़त की धूप 
हथेली पर रखे इस ज़रा से सुख को पिघला देती है

कुछ लड़कियों के चेहरे बहुत सारी लड़कियों जैसे लगने लगते हैं
‘अब सब ठीक होने लगा है’ का भ्रम टूटने लगता है
कि ज्यादा नुकीले हो गए हैं
स्त्रियों की हिम्मत को तोड़ने वाले हथियार
ज्यादा शातिर हो गई हैं
उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की साजिशें
झूठ की पालिश से खूब चमकाए जा रहे हैं मुहावरे
कि अब सब ठीक-ठाक है...

जबकि असुरक्षा के घेरे से बाहर न ये कुछ लड़कियाँ हैं
न बहुत सारी लड़कियाँ।

- प्रतिभा कटियार
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अनूप भार्गव की पसंद 

शनिवार, 8 मार्च 2025

सबकुछ

सबकुछ होने के बाद

जो कुछ नहीं है

वही तुम हो


तुम्हारे होने के बाद

जो भी कुछ है

वही सबकुछ है


- मुदित श्रीवास्तव
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 7 मार्च 2025

ग्रीष्म तक

अब मैं तुम्हें मिल नहीं पाऊँगी 

अब मैं लौट गई हूँ 

उन्हीं पत्तों में 

जिनकी मैं हरियाली थी


मैं लौट गई चिरपरिचित उसी अरण्य में 

जहाँ मैं सुनती रही थी अब तक 

दूसरे जीवों के जीवन-राग 

विशद आलाप 

देखती रही हूँ उनके जन्म 

उनके अवसान


अब मैं तुम्हें नहीं मिल सकूँगी 

बन गई हूँ दोबारा वह कोयल 

रोके रखती है जो अपनी आवाज़ 

ग्रीष्म तक

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- सविता सिंह

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अनूप भार्गव के सौजन्य से 


गुरुवार, 6 मार्च 2025

बचपन का घर

जब बचपन के घर से,
माता-पिता के घर से, बाहर चला था
तब ख़याल नहीं आया
कि यह यात्रा एक और घर के लिए है
जो निर्लज्जता के साथ छीन लेगा
मुझसे मेरे बचपन का घर।

यूँ दे जाएगा एक टीस
जिसे लाखों लोग महसूस करते हैं
क्योंकि दुनियादारी होते हुए
रोज़ छूट रहे हैं
लाखों लोगों के
लाखों बचपन के घर।

कितना अजीब है
जो हम खो देते हैं उमर की ढलान पर
वह फिर कभी नहीं लौटता
जैसे देह से प्राण निकल जाने के बाद फिर कुछ नहीं हो पाता
ठीक वैसे ही गुम जाता है बचपन का घर।

माता-पिता, भाई-बहन,
प्यार, झगड़ा, ज़िद, दुलार, सुख
सब चले जाते हैं
किसी ऐसे देश में
जहाँ नहीं जाया जा सकता है
जीवन की हर संभव कोशिश के बाद भी
वहाँ कोई नहीं पहुँच सकता।

ना तो चीज़ों को काटा-छांटा जा सकता है
और ना गुमी चीज़ों को जोड़ा जा सकता है
पूरा दम लगाकर भी
फिर से नहीं बन सकता है, बचपन का घर।

हम सब,
माता-पिता, भाई-बहन,
आज भी कई बार इकट्ठा होते हैं
बचपन के घर में
पर तब वह घर एक नया घर होता है,
वह बचपन का घर नहीं हो पाता है।

- तरुण भटनागर
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 5 मार्च 2025

अक्सर तुम शाम को

अक्सर तुम शाम को घर आकर पूछते
आज क्या-क्या किया?
मैं अचकचा जाती
सोचने पर भी जवाब न खोज पाती
कि मैंने दिन भर क्या किया
आखिर वक्त ख़्वाब की तरह कहाँ बीत गया
और हारकर कहती 'कुछ नहीं'
तुम रहस्यमयी ढंग से मुस्कुरा देते!

उस दिन मेरा मुरझाया 'कुछ नहीं' सुनकर
तुमने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा
सुनो ये 'कुछ नहीं' करना भी हर किसी के बस का नहीं है
सूर्य की पहली किरण संग उठना
मेरी चाय में ताज़गी
और बच्चों के दूध में तंदुरुस्ती मिलाना
टिफिन में खुशियाँ भरना
उन्हें स्कूल रवाना करना
फिर मेरा नाश्ता
मुझे दफ़्तर विदा करना
काम वाली बाई से लेकर
बच्चों के आने के वक्त तक
खाना कपड़े सफाई
पढ़ाई
फिर साँझ के आग्रह
रात के मसौदे
और इत्ते सबके बीच से भी थोड़ा वक्त
बाहर के काम के लिए भी चुरा लेना
कहो तो इतना 'कुछ नहीं' कैसे कर लेती हो

मैं मुग्ध सुन रही थी
तुम कहते जा रहे थे

तुम्हारा 'कुछ नहीं' ही इस घर के प्राण हैं
ऋणी हैं हम तुम्हारे इस 'कुछ नहीं' के
तुम 'कुछ नहीं' करती हो तभी हम 'बहुत कुछ' कर पाते हैं
तुम्हारा 'कुछ नहीं'
हमारी निश्चिंतता है
हमारा आश्रय है
हमारी महत्वाकांक्षा है
तुम्हारे 'कुछ नहीं' से ही ये मकां घर बनता है
तुम्हारे 'कुछ नहीं' से ही इस घर के सारे सुख हैं
वैभव है

मैं चकित सुनती रही
तुम्हारा एक-एक अक्षर स्पृहणीय था
तुमने मेरे समर्पण को मान दिया
मेरे 'कुछ नहीं' को सम्मान दिया

अब 'कुछ नहीं' करने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं
बस तुम प्रीत से मेरा मोल लगाते रहना
मान से मेरा शृंगार किया करना

- निधि सक्सेना
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 4 मार्च 2025

शाम लेने अब लगी अँगड़ाइयाँ

शाम लेने अब लगी अँगड़ाइयाँ
क़द से लंबी हो गईं परछाइयाँ

ये सियासत की गली है, लाख बच,
तय यहाँ तेरी भी हैं रुसवाइयाँ

महफ़िलों की बात हमसे, क्यूँ भला,
चुन रखी हैं हमने तो तनहाइयाँ

कितनी उथली थी नदी, जिसकी तुम्हें,
था वहम कि खू़ब हैं गहराइयाँ

हो भले मातम यहाँ, पर उसके घर
किस तरह से बज रहीं शहनाइयाँ

ये हुनर क्या खू़ब उसने पा लिया,
‘धूप’ साबित हो गईं ‘जुन्हाइयाँ’

एक शायर की वसीयत क्या भला,
चंद ग़ज़लें, गीत औ‘ रूबाइयाँ

- दिनेश गौतम
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 3 मार्च 2025

तुम्हारे पालने के बाहर

तुम्हारे पालने के बाहर
एक रतजगा ऐसा भी है
जिसमें रात नहीं होती।

जिसमें देह की परतें खुल जाती हैं
भाषा से शब्द झर जाते हैं
आँखें आँख नहीं रहतीं
वे स्वप्न हो जाती हैं
बोध के संदर्भ जिसमें उलट जाते हैं
काल का व्याकरण गल जाता है।

तुम्हारे पालने के बाहर
एक थकान ऐसी भी होती है
जो अपनी ही ताजगी है
आशंकाएँ जिसमें खूब गरदन उठाती हैं
एक आक्रांत स्नेह अपने भविष्यगत संदिग्धों
की तलाश में होता है
और यहीं से उन सबका शिकार करता है
आने वाले दुर्गम पथों पर
माटी की नरम मोयम रखता हुआ

तुम्हारे पालने के बाहर
एक बीहड़ है जिसमें
एक बागी हुआ मन गाता रहता है
मानव मुक्ति के गीत
उसके हाथ
केसर कुदाल करतब करताल
होते रहते हैं

एक मोम हुआ हृदय ऐसा भी होता है
तुम्हारे पालने के बाहर
जो अपने दुस्वप्नों और हाहाकारों में
तुम्हारी असंज्ञ चेतन मुस्कान
भर रहा होता है।

- तुषार धवल
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संपादकीय चयन 

रविवार, 2 मार्च 2025

आकांक्षा

कोई अनचीन्ही आकांक्षा हो तुम
जैसे मन का कोई अनसुना कोलाहल

कई बार मन की मुंडेरों से बाहर झाँका
परंतु वहाँ मुझे मिलीं मेरी ही सलज्ज आँखे
टकटकी बांधे कुछ अनकहा खोजती

पता है तुम्हें
रोज़ कान्हा को नैवेद्य रखती हूँ
फिर उसे माथे से लगाकर बाँट देती हूँ
वंचित रखती हूँ स्वयं को इस तृप्ति से
ये अतृप्ति आसक्ति का कोई रूप है
या मेरी हठ है
ज्ञात नहीं 
परंतु अतृप्त होना आहूत करता है मुझे
मन जैसे केसरिया चूनर ओढ़ लेता हो

आकांक्षाएँ पूर्ण हो जाए
तो नश्वर हो जाती हैं
और तुम तो अनिवार्यता हो
पृथ्वी जल वायु अग्नि और नेहमयी नभ की तरह

तुम यूँ ही रहो अप्राप्य
कागज़ में फिरती स्मृति की तरह
मन में बिखरती उदासी की तरह
आँखों से झरती कनक ओस की तरह

मैं खोजती रहूँगी पूर्णता
मन में स्वरित सन्नाटों में
बुझते दीये की महक में
सपनों में उभरते बिंबों में

कि कुछ आकाक्षाएँ कभी पूरी न हो
मन के स्फुरण के लिए आवश्यक है ये

- निधि सक्सेना
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 1 मार्च 2025

फिर बीता वसंत

तपती हवाओं में झुलस गई 
पाँखें वसंत की।

नदियों में पिघल 
बह गई 
साँसें बसंत की

अमराइयों में भँवरे 
बौरों से कर रहे 
बातें बसंत की

रेत की नदी में 
ठिठक गई 
नावें बसंत की

फिर बीता बसंत 
ताक पर रखीं रह गई 
यादें वसंत की।

- सुरेश ऋतुपर्ण 
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विजया सती की पसंद