शुक्रवार, 22 नवंबर 2024

सीढ़ी

जो किसी को
सीढ़ी बनाकर
ऊपर चढ़ रहे हैं

वे मुझसे कह रहे हैं
तुम कमज़ोर हो
कब से खड़ी हो
बीच रास्ते
हट जाओ

वे नहीं जानते
कि सीढ़ी के हटते ही
वे गिरेंगे

मैं
फिर भी
खड़ी रहूँगी

- पद्मजा शर्मा
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 21 नवंबर 2024

हार्मनी

सफ़ेद और काला अलग रहेंगे
तो नस्ल कहाएँगे
मिलकर रहेंगे तो संगीत

हारमोनियम
साहचर्य की एक मिसाल है
उँगलियों के बीच की ख़ाली जगह
उँगलियों से भर देने के लिए है

- हेमंत देवलेकर
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बिजुका से साभार 

बुधवार, 20 नवंबर 2024

कायर मत बन

कुछ भी बन, बस कायर मत बन!

ठोकर मार! पटक मत माथा!
तेरी राह रोकते पाहन!
कुछ भी बन, बस कायर मत बन!

ले-देकर जीना, क्या जीना?
कब तक ग़म के आँसू पीना?
मानवता ने सींचा तुझको
बहा युगों तक ख़ून-पसीना!
कुछ न करेगा? किया करेगा

रे मनुष्य, बस कातर क्रंदन?
कुछ भी बन, बस कायर मत बन!

युद्धम्देहि कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर!
या तो जीत प्रीति के बल पर,
या तेरा पथ चूमे तस्कर!
प्रतिहिंसा भी दुर्बलता है,

पर कायरता अधिक अपावन!
कुछ भी बन, बस कायर मत बन!

तेरी रक्षा का न मोल है,
पर तेरा मानव अमोल है!
यह मिटता है, वह बनता है;
यही सत्य की सही तोल है!
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को,

कर न दुष्ट को आत्म-समर्पण!
कुछ भी बन बस कायर मत बन!

- नरेंद्र शर्मा
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 19 नवंबर 2024

अलगाव


दूर तुम तब भी थे
दूर तुम अब भी हो
बदली है बस
दूरी की तासीर
तुम्हारे-मेरे बीच
कभी थीं आम की घनी अमराइयाँ
बौराई हुई
मादक दूरी
अब उग आए हैं बीच
कैक्टस के जंगल
जो तुम तक पहुँचने की
हर लहराती कोशिश को तोड़ देते हैं
यह तीखापन
हो सकता है तुम्हारी मजबूरी
पर सोचो तो
कौन-सा चेहरा सजता है
खँरोचों से
अपनापे का ऊष्म-ज्वार
उमड़ता है होंठों पर
पर स्पर्श पाते ही तुम्हारी ठंडी पाषाणी दृष्टि का
जम जाती है
एक जीवंत धारा
और मैं ठिठुरती रहती हूँ
हिमनदी-सी
एक मख़मली हरियाली थी
तुम्हारे-मेरे बीच
न जाने क्यों लगता है अब
हरियाली एक घातक नकाब है
नीचे खुदी हैं बारूदी खँदकें
पाँव धरते ही
फटेगी तुम्हारे होंठों पर
डायनामाइट की तरह एक मुस्कान
और जला देगी मुझे
मैं
जो हरियाली की ठगी
उसे बारूद का जंगल
मान नहीं पाती
नहीं मान पाती
तुम्हारे-मेरे बीच
अब सिर्फ़ सन्नाटा है
बुनते रहते हैं हम
एक ख़ामोशी 
आँखों से आँखों तक
कुछ न कहना
तुम्हारी समझदारी है शायद
पर दर्द का यह बाँझपन
सालता रहता है मुझे
रिसती रहती हूँ
गुमसुम
आँखों के कोरों से
दर्द को सींचना
फर्ज़ होता है उनके लिए
दर्द ही जिनकी पहचान होती है।


 - रेखा
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 18 नवंबर 2024

रोते बुद्ध उतरते हैं

                    

जले हुए जज़्बात मातमी

शिकवे और गिले,

रोती आँखें मिलीं विदा में

हिलते हाथ मिले।

 

दिल पर है सौ बोझ दुखों का

कितना और झुकें,

देश छोड़ते पाँव कहाँ जायें

किस ठाँव रुकें,

फटा चीर दर्ज़ी सिलता है

मन को कौन सिले।

 

रक्त-नहायी तलवारें

लड़ते अश्वारोही,

बंदी बनते नृपति और

कुछ मुदित राजद्रोही,

सपनों में दिख रहे आजकल

ढहते हुए किले।

 

घुली हुई है  गंध युद्ध की

आज फ़िज़ाओं में,

रोते बुद्ध उतरते हैं हर रोज़

दुआओं में,

मरी हुई मिट्टी में कैसे

सुरभित फूल खिले।

 

- अक्षय पाण्डेय

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शिवानंद सिंह सहयोगी के  सौजन्य से 

रविवार, 17 नवंबर 2024

दादू जी

 

दादू मेरी उँगली पकड़ो

तुम को चलना सिखलाऊँगा ।

 

ले कर छड़ी निकलने पर भी

ठोकर खायदि गिर जाओगे

कौन सँभालेगा तब तुम को

फिर घर तक कैसे आओगे?

रुको!अभी मैँ सँग-सँग चल कर

तुम को घर तक ले आऊँगा।

 

हाथ तुम्हारे काँप रहे हैं

टोस्ट छिटक कर गिर जाता है

फिर धरती पर पड़े हुए को

टॉमी, झट-पट आ खाता है

रुको! अभी तुम कुल्ला कर लो

गरम चाय मैं पिलवाउँगा ।

 

ठंड बहुत है इसीलिए तुम

नहाने  में आलस करते हो

सुबह सैर को जाने में भी

जाने क्यों बेहद डरते हो?

रुको! अभी मैं साथ तुम्हारे

चल कर सैर करा लाऊँगा ।

 

मैँ ने देखा सारे दिन तुम

बच्चों जैसी बातें करते

दोपहरी में सो जाते पर

हुए अकेले आँसू झरते

रुको!, अभी तुम आँसू पोंछो

फिर गीता मैं पढ़वाऊँगा ।।

 

- मुकुट सक्सेना

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शिवानंद सिंह सहयोगी की पसंद 

शनिवार, 16 नवंबर 2024

शोर भीतर

मौन है बाहर

मगर ज्वालामुखी का

शोर भीतर।


आहटें आक्रोश की हैं

हरकतें आवेग की।

भृकुटियाँ उद्वेग मन की

धार बनतीं तेग की।

देह है ठहरी

चलित करवाल की है 

कोर भीतर।।


भंगिमा सद्भाव की अब

तीर बनती जा रही।

पीर की प्रस्तर शिला बन

अश्रु गलती जा रही।

आँख है निश्चल मगर 

बरसात है 

घनघोर भीतर।।


पैर आगे बढ़ रहे हैं

मुट्ठियाँ भींचे हुए।

सामने पर्वत अड़े हैं

लाठियाँ खींचे हुए।

चीख घुटती है मगर 

संचेतना 

पुरजोर भीतर।।


भूख बेकारी निराश्रित

छटपटाती रात-दिन।

आग पर चलती सिसकती

जी रही है साँस गिन।

सामने है तम मगर 

विश्वास का है

भोर भीतर।।


-श्याम सनेही शर्मा 

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शिवानंद सिंह सहयोगी के  सौजन्य से 



शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

जिस एक काँटे से

जिस एक काँटे से 

बचने के लिए 

तैरती रही मछली 

समुंदर-दर-समुंदर 


उसकी देह में छिपा था


 - गगन गिल

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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 14 नवंबर 2024

बच्चों का समूह

कोहरे की बुक्कल मारे हुए
सूरज का माखौल उड़ाता
बर्फीले नाले में खड़ा बच्चा
'झूम बराबर झूम' गुनगुनाता
तलाश रहा है कचरा।

चार से छह बच्चों का समूह
विकास भवन के कूड़ेदानों से
तलाशता रहता है
फाइल कवर
मिठाई के खाली डिब्बे।

कहीं भी, कैसी भी गंदगी हो
सितारवादक सी
सधी उँगलियों से ये
तलाश ही लेते हैं
अपनी ज़रुरत।

दिन ढले पचास-साठ रुपए लिए
घर लौटने पर इन्हें
न जाने कैसी नजर से देखती है माँ
और गरमाहट से भरने लगता है
ठंडा चूल्हा।
            
- मनु स्वामी
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शिवानंद सिंह सहयोगी की पसंद 

बुधवार, 13 नवंबर 2024

साइकिल का रास्ता

साइकिल चलाते हुए 
ज़मीन पर रहते हुए भी 
ज़मीन से ऊपर उठी मैं। 
अंधे मोड़ को काटा ऐसे कि 
रास्ता काटती बिल्ली भी रुक गई दम साध कर 
ढलान से ऐसे उतरी 
समूची दुनिया को छोड़ रही हूँ जैसे पीछे 
चढ़ाई पर ऐसे चढ़ी कि 
पहाड़ों को पार कर पहुँचना है सपनों के टीलों तक।
 
साइकिल चलाते ही जाना 
कितनी जल्दी पीछे छूट जाता है शहर 
शहर को पार करते हुए जाना 
नदी न होती तो 
शहर की साँसें जाने कब की उखड़ गई होतीं 
पहला पहिया न होता तो 
कुछ करने की, जीतने की ज़िद न होती। 
खड़ी हूँ आज 
उसी सड़क पर बगल में साइकिल दबाए 
पैदल चलते लोगों को देख 
घबरा जाती हैं अब सड़कें 
रास्ता काटने से पहले दस बार सोचती हैं बिल्लियाँ 
गाय और कुत्ते भी पहले की तरह 
नहीं बैठते अब सड़क के बीचों-बीच 
देखा नहीं आज तक 
सड़क पर किसी बंदर को घायल अवस्था में 
मृत्यु का आभास होते ही 
पेड़ की खोह में चले जाते हैं वे 
क्या साइकिल चलाते और पैदल चलते लोग भी 
चले जाएँगे ऐसी ही किसी खोह में 
रोंप दी जाएगी क्या 
साइकिल भी किसी स्मृति वन में। 
साइकिल में ज़ंग भी नहीं लगी और 
रास्ते पथरीले हुए बिना ख़त्म हो गए 
फिर भी भोर के सपने की तरह 
दिख ही जाती है सड़क पर साइकिल। 

 - नीलेश रघुवंशी

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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 12 नवंबर 2024

बाँसुरी

 उपमा अलंकार

मुझ पर न लादो बरबस

आओ

मैं अपना परिचय स्वयं दूँ


मैं

एक खोखला

कुरूप बाँस हूँ

खंडित और छिद्रमय

मेरे भीतर

दीर्घशून्य है

पर जब तुम

छूते हो मेरी अनघड़ काया को

अपने थरथराते अधरों से

तो

मैं भूल जाती हूँ खुद को


लगता है

मैं कुछ 'और' भी हूँ

मेरा परिचय

कुछ 'और' भी है


तुम कह दो

कह दो न तुम

तुम बाँस ही नहीं

हो

बाँसुरी भी।


 - रेखा

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संपादकीय चयन 

सोमवार, 11 नवंबर 2024

आहट


आओ मन की आहट-आहट तक पढ़ डालें
फिर कहें यहीं
अपना उजड़ा-सा घर भी था
 
यूँ लाल-हरी-नीली-पीली-उजली आँखें
फिर नदी-नाव, मछली-मछुवारे-सी बातें
कंधों तक चढ़ आयी लहरों की चालों में
कल-परसों वाली भूल-भुलैया की रातें
 
आओ तन-मन को नया-नया कुछ कर डालें
फिर कहें कभी
मौसम को हल्का ज्वर भी था
 
दिन चोंच दबाई धूप उड़ी गौरैया के
सूरज की दबी हँसी-सी सोन चिरैया के
चेहरे पर मली-खिली-फूली पुचकारों में
दियना झाँका हो जैसे ताल-तलैया से
 
आओ चीड़ों पर थकी चाँदनी बन सोएँ 
फिर कहें यहीं
अपना टूटा-सा पर भी था
 
वो कई-कई कोणों में कटकर मुड़ जाना
फिर गुणा-भाग वाले रिश्तों से जुड़ जाना
निरजला,उपासे फीकी-सी उजलाहट में
चालों में लुकी-छिपी बतियाहट पढ़ जाना
 
आओ हर पल में मन्त्र सार्थक रच डालें
फिर कहें कभी
दिन घूमा इधर-उधर भी था

- डॉ. महेश आलोक

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शिवानंद सिंह सहयोगी जी के सौजन्य से 

रविवार, 10 नवंबर 2024

बोध

दूसरे ही दिन

आँगन के आर-पार

परस दी

किलटे-किलटे धूप

तुलसी के दाहिने

बिछाया वही पीढ़ा वही तकिया

तुम्हारी अम्मा के काढ़े हुए फूल

सुबह से दोपहर गए

चूल्हे पर पकती रही

मास की दाल

कुंडी में घिसती रही

पुदीने की चटनी

शाम चाय के साथ

आज भी तले

कचनार के कुरकुरे फूल

रात खाने से पहले

मेज़ पर आमने-सामने

घूरती रही दो थालियाँ

एक-दूसरे का बंद चेहरा


फिर आधी रात

देखी मैंने 

तुम्हारे हिस्से की चादर

उघड़ी हुई-बेझिझक

तकिये पर से ग़ायब था

तुम्हारे सिर का निशान

अलमारी में एक के बाद एक

बाँह लटकाए कोट

बाथरूम में ब्रश

मेज़ पर खुली किताब

बिटिया के नाम लिखा पत्र

हर कहीं हर चीज़ पर

छपे थे तुम्हारे हाथों के निशान

एक चीख़

छत चढ़ गई

सीढ़ियाँ उतर गईं

मेरी छाती में से

पँख छुड़ा

फड़फड़ा कर उड़ा

तुम्हारा नाम

सब दीवारों से टकराकर

बिछ गया फर्श पर

नीला पथराया

मौत सूँघा कबूतर।


 - रेखा

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हरप्रीत सिंह पुरी  के सौजन्य से 

शनिवार, 9 नवंबर 2024

बाबा नाहीं दूजा कोई

बाबा नाहीं दूजा कोई।

एक अनेकन नाँव तुम्हारे, मो पैं और न होई॥टेक॥


अलख इलाही एक तूँ तूँ हीं राम रहीम।

तूँ हीं मालिक मोहना, कैसो नाँउ करीम॥१॥


साँई सिरजनहार तूँ, तूँ पावन तूँ पाक।

तूँ काइम करतार तूँ, तूँ हरि हाजिर आप॥२॥


रमिता राजिक एक तूँ, तूँ सारँग सुबहान।

कादिर करता एक तूँ, तूँ साहिब सुलतान॥३॥


अविगत अल्लह एक तूँ, गनी गुसाईं एक।

अजब अनूपम आप है, दादू नाँव अनेक॥४॥


-  दादू दयाल

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

ओ मेरी मृत्यु!

कभी ऐसा लगता है

सुदूर उत्तर में

एक पेड़ के नीचे मेरी मृत्यु मुझे पुकार रही है

ओ मेरी मृत्यु तुम शांत क़दमों से

धीमी रोशनी की तरह मेरे मस्तक का स्पर्श करती आना

तेरे मौन से मुझे मौन

करती आना

मुझे भय से मुक्त करती आना

आना कि मैं

हर्ष पूर्वक तेरा

आलिंगन करूँ

ओ मेरी मृत्यु! विषाद मिटाती आना

जीवन का लोभ लेती जाना

अंत समय मुझे मुझसे ही विदा लेने का साहस देती आना

ओ मेरी मृत्यु!

मुझे मृत्यु देती आना

कि मेरे कान में गूँजता रहे दम मस्त क़लंदर मस्त -मस्त

कुमार गंधर्व के स्वर में

हिरना संभल -संभल पग धरना

की रागिनी मन में छाई रहे

और ख़ुसरो के बोलों

का अनहद नाद

मेरे प्राणों के साथ-साथ जाए

छाप तिलक सब छीनी रे तोसे नैना मिलाइके

ओ मेरी मृत्यु! सदेह आना

मुझे मुझी से मुक्त करती जाना

तुम जब भी आना।

 - कल्पना पंत

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

 

गुरुवार, 7 नवंबर 2024

हाथ में रख इस हृदय को

आज तुम मुझको बुलाओ

और मैं आऊँ प्रिये !

हाथ में रख इस हृदय को

साथ मैं लाऊँ प्रिये !

 

 ये हवायें, वादियाँ ये

छेड़ती हैं तान जैसे !

फूल,कलियाँ और पंछी

गा रहे सब गान जैसे !

यदि सुनो तुम मन लगाकर

ज़िन्दगी का गीत कोई

आज मैं गाऊँ प्रिये !

 

पाँव में रच दूँ महावर

मैं तुम्हारे, तुम कहो तो !

तोड़ मैं लाऊँ गगन से

सब सितारे, तुम कहो तो !

तुम कहो तो अंक भरकर

लाज अधरों पर तुम्हारे

फिर सजाऊँ मैं प्रिये !

 

मोह लेता है मुझे ये

केश का खुलना,बिखरना !

खनखनाना चूड़ियों का

और ये सजना सँवरना !

यदि न मानों तुम बुरा तो

कर दूँ अर्पित स्वयं को फिर

मैं तुम्हें पाऊँ प्रिये!

- चन्द्रगत भारती

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


 

 

बुधवार, 6 नवंबर 2024

युद्ध और प्रेम

मैं तुमसे मिलने आई

प्रेम की उद्दाम कामना लिए

अँगारों पर लोटती नायिका की भाँति अभिसार के लिए नहीं

अपने भीतर भरे आदिम भय से मुक्ति की चाहत लिए आई

मैं आई विद्रोह लिए आई

रूढ़ियों, ऑनर किलिंग, बलात्कारी हत्याओं, मौरल पुलिसिंग के ठेकेदारों को यह दिखाती आई

कि प्रेम अंतत: प्रेम है

तुम लाख नफ़रत फैला लो

जीतेगा अंततः प्रेम ही

रंग, रक्त, धर्म, वक़्त

कितना ही विलगालो

जीतेगा बस प्रेम ही।

 - कल्पना पंत

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

  

मंगलवार, 5 नवंबर 2024

अभ्यास

जन्मों से उठाए फिरती हूँ

सौम्यता का बोझ

तभी तो इतनी लचीली है मेरी रीढ़

और कमाल है जज़्ब की शक्ति

समंदर है मेरे भीतर

जिसके तल पर जमा है

संपदा दुख-सुख की

पूछते हो कैसे समा लेती हूँ सब

जी जन्म से अभ्यास जो कर रही हूँ

और आज भी जारी है

पर यूँ न समझ लेना रिक्त हूँ शक्तियों से

मुझमें भी हैं शोले हाँ ये अलग बात है कि

दबा के रखे हैं मुठ्ठियों में

धुआँ उठता है उनमें भी

पर रोक लेती हूँ भड़कने से

मुझमें भी निहित है पशु

जो निरंतर रहता है चैतन्य

इसीलिए तो बुनती हूँ प्रतिदिन नया कलेवर

चाहती हूँ गिरा रहे परदा बना रहे रोमांच

जानती हूँ हवा दी शोलों को तो

शून्य हो जाओगे तुम

तभी तो बनाए हुए हूँ अभ्यास का अभियान

नहीं चाहती फिर गढ़ा जाए नया इतिहास

लिखे जाएँ सफ़े तुम्हारी तबाही के

मेरी सोच की शुचिता ही तो

बनाए हुए है तुम्हारा पौरुष

वरना कब का पराजित हो चुका होता

तुम्हारा अहं मेरे अहं से।

 - कृष्णा वर्मा

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 4 नवंबर 2024

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझ को

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा नसीब अपना बना ले मुझको
 
मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी
ये तेरी सादादिली मार न डाले मुझको
 
मैं समंदर भी हूँ, मोती भी हूँ, ग़ोताज़न भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुला ले मुझको
 
तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझको
 
कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सता ले मुझको
 
ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको
 
मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझसे बचाकर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझको
 
मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे
तू दबे पाँव कभी आ के चुरा ले मुझको
 
तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको
 
वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ 'क़तील'
शर्त ये है कोई बाँहों में सम्भाले मुझको

क़तील शिफ़ाई
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 3 नवंबर 2024

ठुमरियों का महाकाव्य

हाथ भर की रसोई
बित्ते भर का झरोखा
वहीं से आसमान बुहारती हुई वह
ठुमरियों का महाकाव्य रच रही है।

- कल्पना पंत
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हरप्रीत सिंह पुरी  के सौजन्य से 


शनिवार, 2 नवंबर 2024

मर्यादा

मैंने एक गोला बनाया
और फिर
उसे चार हिस्सों में बाँट दिया
तभी किसी ने कहा-
”इन चारों हिस्सों में
अलग-अलग रंग भरो”
…तब मुझे अहसास हुआ
कि नए रंग का
अपनी मर्यादा में रहना
तभी संभव है
जब पुराना रंग
अपनी सीमाओं में
पूरी तरह जम जाए!

-  चिराग़ जैन
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

कुछ न होगा तो भी कुछ होगा

सूरज डूब जाएगा
तो कुछ ही देर में चाँद निकल आएगा
और नहीं हुआ चाँद
तो आसमान में तारे होंगे
अपनी दूधिया रौशनी बिखेरते हुए
 
और रात अँधियारी हुई बादलों भरी
तो भी हाथ-पैर की उँगलियों से टटोलते हुए
धीरे-धीरे हम रास्ता तलाश लेंगे
और टटोलने को कुछ न हुआ आसपास
तो आवाज़ों से एक-दूसरे की थाह लेते
एक ही दिशा में हम बढ़ते जाएँगे
और आवाज़ देने या सुनने वाला कोई न हुआ
तो अपने मन के मद्धिम उजास में चलेंगे
जो वापस फिर-फिर हमें राह पर लाएगा
 
और चलते-चलते जब इतने थक चुके होंगे कि
रास्ता रस्सी की तरह ख़ुद को लपेटता दिखेगा
आगे बढ़ना भी पीछे हटने जैसा हो जाएगा
 
तब कोई याद हमारे भीतर से उठती हुई आएगी
और खोई ख़ामोशियों में गुनगुनाती हुई
हमें मंज़िल तक पहुँचा जाएगी। 

 चंद्रभूषण
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2024

पनघट पर नयनों की गागर

व्यथा किसी से कुछ भी अपनी कब कह पाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
 
देख तुम्हारी छवि को ही ये सूरज आँखें खोले
सोच तुम्हें बेसुध हो जाती जब कोयलिया बोले
पनघट पर नयनों की गागर मैं छलकाती रे
आती है जब 
याद तुम्हारी बेहद आती रे।

आ जाओ हरजाई वरना तुमको दूँगी गाली
बिना तुम्हारे जग लगता है बिलकुल ख़ाली-ख़ाली
और मस्त पुरवाई दिल में आग लगाती रे
आती है जब 
याद तुम्हारी बेहद आती रे।

मैं हूँ प्रियतम प्रेम दीवानी जब से सबने जाना
बुलबुल, मोर, पपीहा निशदिन कसते मुझ पर ताना
मुई चाँदनी देख मुझे बस मुँह बिचकाती रे
आती है जब 
याद तुम्हारी बेहद आती रे।
 
मुझे गुलाबी भी दिखता है तुम बिन बिल्कुल काला
तुम दीपक हो इस जीवन के आकर करो उजाला
तुम बिन साजन जली जा रही जैसे बाती रे
आती है जब 
याद तुम्हारी बेहद आती रे।

चन्द्रगत भारती
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

कविता लिखने से पहले ही

कविता लिखने से पहले ही,
कवि का दर्जा पाने वाला, शायद पहला हूँ मैं।

मैंने जब प्रेम किया, तो लोगों ने कहा
इतनी शिद्दत से प्यार सिर्फ़, एक कवि ही कर सकता है

सीटियाँ बजाते हुए जब मैं बारिश में उड़ेल देता अपनी देह को,
कोने में खड़े जेंटलमैन फुसफुसाते कि
इसकी आवारा सीटी में है कविता का संगीत।

हर वक़्त स्वप्न देखना मेरी कला बन गई
उनको क़रीने से सजाता तो लोग कहते कि
अपनी कविताओं की प्रूफ़रीडिंग कर रहा है।

जब मैं बोलता तो लगता कि श्रवण कुमार भर रहा है घड़े में पानी,
कई दशरथों के निशाने होते मुझ पर,
छाती पर बाणों को मुस्कुराकर सहता
तो लोग कहते ऐसा साहस एक कवि में ही हो सकता है।

असल में मैं कवि नहीं हूँ,
मैं तो बस लोगों को सच करने में लगा हूँ।

- कपिल भारद्वाज
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

बूढ़ा पेड़

पेड़ बूढ़ा हो चुका था
पहले फलों
फिर पशु-पक्षियों
और आख़िर में कुछ बचे
सूखे पत्तों ने भी छुड़ा लिया था
उसके हाथों से
अपनी उँगलियों को
 
उस बूढ़े पेड़ से तोड़कर
अक्सर लाया करती थी माँ
उसकी बची-खुची सूखी लकड़ियाँ
जिससे पकाया जाता था
हम भाई-बहनों के लिए भोजन
 
माँ उस बूढ़े पेड़ की लकड़ियों
को तोड़ने से पूर्व
उसे सहलाना और गले लगाना नहीं भूलती
 
और अक्सर हमसे कहा करती
 
तुम्हें याद रखना है, मेरे बच्चो
कि कैसे एक बूढ़े पेड़ ने
अपने बुढ़ापे से
तुम्हें जवान किया है!

गुँजन श्रीवास्तव
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 28 अक्तूबर 2024

सुना है कभी तुमने रंगों को

कभी-कभी
उजाले का आभास
अँधेरे के इतने क़रीब होता है
कि दोनों को अलग-अलग
पहचान पाना मुश्किल हो जाता है।

धीरे-धीरे
जब उजाला
खेलने-खिलने लगता है
और अँधेरा उसकी जुंबिश से
परदे की तरह हिलने लगता है
तो दोनों की
बदलती हुई गति ही
उनकी सही पहचान बन जाती है।

रौशन अँधेरे के साथ
लाली की नामालूम-सी झलक
एक ऐसा रंग रच देती है
जो चितेरे की आँख से ही
देखा जा सकता है।
क्योंकि उसका कोई नाम नहीं होता।
फिर रंगों के नाम
हमें ले ही कितनी दूर जाते हैं?
कोश में हम उनके हर साये के लिए
सही शब्द कहाँ पाते हैं?
रंगों की मिलावट से उपजा
हर अंतर, हर अंतराल 
एक नए रंग की संभावना बन जाता है
और अपना नाम स्वयं ही
अस्फुट स्वर में गाता है

कभी सुना है तुमने
प्रत्यक्ष रंगों को गाते हुए?
एक साथ स्वर-बद्ध होकर
सामने आते हुए?

- जगदीश गुप्त
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 27 अक्तूबर 2024

शहीदों की चिताओं पर

उरूजे कामयाबी पर कभी हिंदोस्ताँ होगा
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा

चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को
बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा

ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल
पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा

जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा

वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा

शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा

कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा

- जगदंबा प्रसाद मिश्र 'हितैषी'
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हरप्रीत  सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 26 अक्तूबर 2024

बहते जल के साथ न बह

बहते जल के साथ न बह
कोशिश करके मन की कह।
 
मौसम ने तेवर बदले
कुछ तो होगी ख़ास वजह।
 
कुछ तो ख़तरे होंगे ही
चाहे जहाँ कहीं भी रह।
 
लोग तूझे कायर समझें
इतने अत्याचार न सह।
 
झूठ कपट मक्कारी का
चारण बनकर ग़ज़ल  कह।

जगदीश व्योम
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से