शुक्रवार, 22 नवंबर 2024
सीढ़ी
गुरुवार, 21 नवंबर 2024
हार्मनी
बुधवार, 20 नवंबर 2024
कायर मत बन
मंगलवार, 19 नवंबर 2024
अलगाव
दूर तुम तब भी थे
दूर तुम अब भी हो
बदली है बस
दूरी की तासीर
तुम्हारे-मेरे बीच
कभी थीं आम की घनी अमराइयाँ
बौराई हुई
मादक दूरी
अब उग आए हैं बीच
कैक्टस के जंगल
जो तुम तक पहुँचने की
हर लहराती कोशिश को तोड़ देते हैं
यह तीखापन
हो सकता है तुम्हारी मजबूरी
पर सोचो तो
कौन-सा चेहरा सजता है
खँरोचों से
अपनापे का ऊष्म-ज्वार
उमड़ता है होंठों पर
पर स्पर्श पाते ही तुम्हारी ठंडी पाषाणी दृष्टि का
जम जाती है
एक जीवंत धारा
और मैं ठिठुरती रहती हूँ
हिमनदी-सी
एक मख़मली हरियाली थी
तुम्हारे-मेरे बीच
न जाने क्यों लगता है अब
हरियाली एक घातक नकाब है
नीचे खुदी हैं बारूदी खँदकें
पाँव धरते ही
फटेगी तुम्हारे होंठों पर
डायनामाइट की तरह एक मुस्कान
और जला देगी मुझे
मैं
जो हरियाली की ठगी
उसे बारूद का जंगल
मान नहीं पाती
नहीं मान पाती
तुम्हारे-मेरे बीच
अब सिर्फ़ सन्नाटा है
बुनते रहते हैं हम
एक ख़ामोशी
आँखों से आँखों तक
कुछ न कहना
तुम्हारी समझदारी है शायद
पर दर्द का यह बाँझपन
सालता रहता है मुझे
रिसती रहती हूँ
गुमसुम
आँखों के कोरों से
दर्द को सींचना
फर्ज़ होता है उनके लिए
दर्द ही जिनकी पहचान होती है।
- रेखा
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संपादकीय चयन
सोमवार, 18 नवंबर 2024
रोते बुद्ध उतरते हैं
जले
हुए जज़्बात मातमी
शिकवे
और गिले,
रोती
आँखें मिलीं विदा में
हिलते
हाथ मिले।
दिल
पर है सौ बोझ दुखों का
कितना
और झुकें,
देश
छोड़ते पाँव कहाँ जायें
किस
ठाँव रुकें,
फटा
चीर दर्ज़ी सिलता है
मन
को कौन सिले।
रक्त-नहायी
तलवारें
लड़ते
अश्वारोही,
बंदी
बनते नृपति और
कुछ
मुदित राजद्रोही,
सपनों
में दिख रहे आजकल
ढहते
हुए किले।
घुली
हुई है गंध युद्ध की
आज
फ़िज़ाओं में,
रोते
बुद्ध उतरते हैं हर रोज़
दुआओं
में,
मरी
हुई मिट्टी में कैसे
सुरभित
फूल खिले।
- अक्षय पाण्डेय
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शिवानंद
सिंह सहयोगी के
सौजन्य
से
रविवार, 17 नवंबर 2024
दादू जी
दादू
मेरी उँगली पकड़ो
तुम
को चलना सिखलाऊँगा ।
ले
कर छड़ी निकलने पर भी
ठोकर
खा, यदि गिर जाओगे
कौन
सँभालेगा तब तुम को
फिर
घर तक कैसे आओगे?
रुको!, अभी मैँ सँग-सँग चल कर
तुम
को घर तक ले आऊँगा।
हाथ
तुम्हारे काँप रहे हैं
टोस्ट
छिटक कर गिर जाता है
फिर
धरती पर पड़े हुए को
टॉमी, झट-पट आ खाता है
रुको! अभी
तुम कुल्ला कर लो
गरम
चाय मैं पिलवाउँगा ।
ठंड
बहुत है इसीलिए तुम
नहाने में आलस करते हो
सुबह
सैर को जाने में भी
जाने
क्यों बेहद डरते हो?
रुको! अभी मैं साथ तुम्हारे
चल
कर सैर करा लाऊँगा ।
मैँ
ने देखा सारे दिन तुम
बच्चों
जैसी बातें करते
दोपहरी
में सो जाते पर
हुए
अकेले आँसू झरते
रुको!, अभी तुम आँसू पोंछो
फिर
गीता मैं पढ़वाऊँगा ।।
- मुकुट
सक्सेना
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शिवानंद
सिंह सहयोगी की पसंद
शनिवार, 16 नवंबर 2024
शोर भीतर
मगर ज्वालामुखी का
शोर भीतर।
आहटें आक्रोश की हैं
हरकतें आवेग की।
भृकुटियाँ उद्वेग मन की
धार बनतीं तेग की।
देह है ठहरी
चलित करवाल की है
कोर भीतर।।
भंगिमा सद्भाव की अब
तीर बनती जा रही।
पीर की प्रस्तर शिला बन
अश्रु गलती जा रही।
आँख है निश्चल मगर
बरसात है
घनघोर भीतर।।
पैर आगे बढ़ रहे हैं
मुट्ठियाँ भींचे हुए।
सामने पर्वत अड़े हैं
लाठियाँ खींचे हुए।
चीख घुटती है मगर
संचेतना
पुरजोर भीतर।।
भूख बेकारी निराश्रित
छटपटाती रात-दिन।
आग पर चलती सिसकती
जी रही है साँस गिन।
सामने है तम मगर
विश्वास का है
भोर भीतर।।
-श्याम सनेही शर्मा
शुक्रवार, 15 नवंबर 2024
जिस एक काँटे से
जिस एक काँटे से
बचने के लिए
तैरती रही मछली
समुंदर-दर-समुंदर
उसकी देह में छिपा था
- गगन गिल
गुरुवार, 14 नवंबर 2024
बच्चों का समूह
सूरज का माखौल उड़ाता
बर्फीले नाले में खड़ा बच्चा
'झूम बराबर झूम' गुनगुनाता
तलाश रहा है कचरा।
चार से छह बच्चों का समूह
विकास भवन के कूड़ेदानों से
तलाशता रहता है
फाइल कवर
मिठाई के खाली डिब्बे।
कहीं भी, कैसी भी गंदगी हो
सितारवादक सी
सधी उँगलियों से ये
तलाश ही लेते हैं
अपनी ज़रुरत।
दिन ढले पचास-साठ रुपए लिए
घर लौटने पर इन्हें
न जाने कैसी नजर से देखती है माँ
और गरमाहट से भरने लगता है
ठंडा चूल्हा।
- मनु स्वामी
बुधवार, 13 नवंबर 2024
साइकिल का रास्ता
ज़मीन पर रहते हुए भी
ज़मीन से ऊपर उठी मैं।
अंधे मोड़ को काटा ऐसे कि
रास्ता काटती बिल्ली भी रुक गई दम साध कर
ढलान से ऐसे उतरी
समूची दुनिया को छोड़ रही हूँ जैसे पीछे
चढ़ाई पर ऐसे चढ़ी कि
पहाड़ों को पार कर पहुँचना है सपनों के टीलों तक।
साइकिल चलाते ही जाना
कितनी जल्दी पीछे छूट जाता है शहर
शहर को पार करते हुए जाना
नदी न होती तो
शहर की साँसें जाने कब की उखड़ गई होतीं
पहला पहिया न होता तो
कुछ करने की, जीतने की ज़िद न होती।
खड़ी हूँ आज
उसी सड़क पर बगल में साइकिल दबाए
पैदल चलते लोगों को देख
घबरा जाती हैं अब सड़कें
रास्ता काटने से पहले दस बार सोचती हैं बिल्लियाँ
गाय और कुत्ते भी पहले की तरह
नहीं बैठते अब सड़क के बीचों-बीच
देखा नहीं आज तक
सड़क पर किसी बंदर को घायल अवस्था में
मृत्यु का आभास होते ही
पेड़ की खोह में चले जाते हैं वे
क्या साइकिल चलाते और पैदल चलते लोग भी
चले जाएँगे ऐसी ही किसी खोह में
रोंप दी जाएगी क्या
साइकिल भी किसी स्मृति वन में।
साइकिल में ज़ंग भी नहीं लगी और
रास्ते पथरीले हुए बिना ख़त्म हो गए
फिर भी भोर के सपने की तरह
दिख ही जाती है सड़क पर साइकिल।
मंगलवार, 12 नवंबर 2024
बाँसुरी
उपमा अलंकार
मुझ पर न लादो बरबस
आओ
मैं अपना परिचय स्वयं दूँ
मैं
एक खोखला
कुरूप बाँस हूँ
खंडित और छिद्रमय
मेरे भीतर
दीर्घशून्य है
पर जब तुम
छूते हो मेरी अनघड़ काया को
अपने थरथराते अधरों से
तो
मैं भूल जाती हूँ खुद को
लगता है
मैं कुछ 'और' भी हूँ
मेरा परिचय
कुछ 'और' भी है
तुम कह दो
कह दो न तुम
तुम बाँस ही नहीं
हो
बाँसुरी भी।
- रेखा
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संपादकीय चयन
सोमवार, 11 नवंबर 2024
आहट
आओ मन की आहट-आहट तक पढ़ डालें
फिर कहें यहीं
अपना उजड़ा-सा घर भी था
यूँ लाल-हरी-नीली-पीली-उजली आँखें
फिर नदी-नाव, मछली-मछुवारे-सी बातें
कंधों तक चढ़ आयी लहरों की चालों में
कल-परसों वाली भूल-भुलैया की रातें
आओ तन-मन को नया-नया कुछ कर डालें
फिर कहें कभी
मौसम को हल्का ज्वर भी था
दिन चोंच दबाई धूप उड़ी गौरैया के
सूरज की दबी हँसी-सी सोन चिरैया के
चेहरे पर मली-खिली-फूली पुचकारों में
दियना झाँका हो जैसे ताल-तलैया से
आओ चीड़ों पर थकी चाँदनी बन सोएँ
फिर कहें यहीं
अपना टूटा-सा पर भी था
वो कई-कई कोणों में कटकर मुड़ जाना
फिर गुणा-भाग वाले रिश्तों से जुड़ जाना
निरजला,उपासे फीकी-सी उजलाहट में
चालों में लुकी-छिपी बतियाहट पढ़ जाना
आओ हर पल में मन्त्र सार्थक रच डालें
फिर कहें कभी
दिन घूमा इधर-उधर भी था
- डॉ. महेश आलोक
रविवार, 10 नवंबर 2024
बोध
दूसरे ही दिन
आँगन के आर-पार
परस दी
किलटे-किलटे धूप
तुलसी के दाहिने
बिछाया वही पीढ़ा वही तकिया
तुम्हारी अम्मा के काढ़े हुए फूल
सुबह से दोपहर गए
चूल्हे पर पकती रही
मास की दाल
कुंडी में घिसती रही
पुदीने की चटनी
शाम चाय के साथ
आज भी तले
कचनार के कुरकुरे फूल
रात खाने से पहले
मेज़ पर आमने-सामने
घूरती रही दो थालियाँ
एक-दूसरे का बंद चेहरा
फिर आधी रात
देखी मैंने
तुम्हारे हिस्से की चादर
उघड़ी हुई-बेझिझक
तकिये पर से ग़ायब था
तुम्हारे सिर का निशान
अलमारी में एक के बाद एक
बाँह लटकाए कोट
बाथरूम में ब्रश
मेज़ पर खुली किताब
बिटिया के नाम लिखा पत्र
हर कहीं हर चीज़ पर
छपे थे तुम्हारे हाथों के निशान
एक चीख़
छत चढ़ गई
सीढ़ियाँ उतर गईं
मेरी छाती में से
पँख छुड़ा
फड़फड़ा कर उड़ा
तुम्हारा नाम
सब दीवारों से टकराकर
बिछ गया फर्श पर
नीला पथराया
मौत सूँघा कबूतर।
- रेखा
शनिवार, 9 नवंबर 2024
बाबा नाहीं दूजा कोई
बाबा नाहीं दूजा कोई।
एक अनेकन नाँव तुम्हारे, मो पैं और न होई॥टेक॥
अलख इलाही एक तूँ तूँ हीं राम रहीम।
तूँ हीं मालिक मोहना, कैसो नाँउ करीम॥१॥
साँई सिरजनहार तूँ, तूँ पावन तूँ पाक।
तूँ काइम करतार तूँ, तूँ हरि हाजिर आप॥२॥
रमिता राजिक एक तूँ, तूँ सारँग सुबहान।
कादिर करता एक तूँ, तूँ साहिब सुलतान॥३॥
अविगत अल्लह एक तूँ, गनी गुसाईं एक।
अजब अनूपम आप है, दादू नाँव अनेक॥४॥
- दादू दयाल
शुक्रवार, 8 नवंबर 2024
ओ मेरी मृत्यु!
कभी ऐसा लगता है
सुदूर
उत्तर में
एक
पेड़ के नीचे मेरी मृत्यु मुझे पुकार रही है
ओ
मेरी मृत्यु तुम शांत क़दमों से
धीमी
रोशनी की तरह मेरे मस्तक का स्पर्श करती आना
तेरे
मौन से मुझे मौन
करती
आना
मुझे
भय से मुक्त करती आना
आना
कि मैं
हर्ष
पूर्वक तेरा
आलिंगन
करूँ
ओ
मेरी मृत्यु! विषाद मिटाती आना
जीवन
का लोभ लेती जाना
अंत
समय मुझे मुझसे ही विदा लेने का साहस देती आना
ओ
मेरी मृत्यु!
मुझे
मृत्यु देती आना
कि
मेरे कान में गूँजता रहे दम मस्त क़लंदर मस्त -मस्त
कुमार
गंधर्व के स्वर में
हिरना
संभल -संभल पग धरना
की
रागिनी मन में छाई रहे
और
ख़ुसरो के बोलों
का
अनहद नाद
मेरे
प्राणों के साथ-साथ जाए
छाप
तिलक सब छीनी रे तोसे नैना मिलाइके
ओ
मेरी मृत्यु! सदेह आना
मुझे
मुझी से मुक्त करती जाना
तुम
जब भी आना।
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
गुरुवार, 7 नवंबर 2024
हाथ में रख इस हृदय को
आज तुम मुझको बुलाओ
और
मैं आऊँ प्रिये !
हाथ
में रख इस हृदय को
साथ
मैं लाऊँ प्रिये !
छेड़ती
हैं तान जैसे !
फूल,कलियाँ और पंछी
गा
रहे सब गान जैसे !
यदि
सुनो तुम मन लगाकर
ज़िन्दगी
का गीत कोई
आज
मैं गाऊँ प्रिये !
पाँव
में रच दूँ महावर
मैं
तुम्हारे, तुम कहो तो !
तोड़
मैं लाऊँ गगन से
सब
सितारे, तुम कहो तो !
तुम
कहो तो अंक भरकर
लाज
अधरों पर तुम्हारे
फिर
सजाऊँ मैं प्रिये !
मोह
लेता है मुझे ये
केश
का खुलना,बिखरना !
खनखनाना
चूड़ियों का
और
ये सजना सँवरना !
यदि
न मानों तुम बुरा तो
कर
दूँ अर्पित स्वयं को फिर
मैं तुम्हें पाऊँ प्रिये!
- चन्द्रगत भारती
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
बुधवार, 6 नवंबर 2024
युद्ध और प्रेम
मैं
तुमसे मिलने आई
प्रेम
की उद्दाम कामना लिए
अँगारों
पर लोटती नायिका की भाँति अभिसार के लिए नहीं
अपने
भीतर भरे आदिम भय से मुक्ति की चाहत लिए आई
मैं
आई विद्रोह लिए आई
रूढ़ियों, ऑनर किलिंग, बलात्कारी
हत्याओं, मौरल पुलिसिंग के ठेकेदारों को यह
दिखाती आई
कि
प्रेम अंतत: प्रेम है
तुम
लाख नफ़रत फैला लो
जीतेगा
अंततः प्रेम ही
रंग, रक्त, धर्म, वक़्त
कितना
ही विलगालो
जीतेगा
बस प्रेम ही।
- कल्पना पंत
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
मंगलवार, 5 नवंबर 2024
अभ्यास
जन्मों से उठाए फिरती हूँ
सौम्यता
का बोझ
तभी
तो इतनी लचीली है मेरी रीढ़
और
कमाल है जज़्ब की शक्ति
समंदर
है मेरे भीतर
जिसके
तल पर जमा है
संपदा
दुख-सुख की
पूछते
हो कैसे समा लेती हूँ सब
जी
जन्म से अभ्यास जो कर रही हूँ
और
आज भी जारी है
पर
यूँ न समझ लेना रिक्त हूँ शक्तियों से
मुझमें
भी हैं शोले हाँ ये अलग बात है कि
दबा
के रखे हैं मुठ्ठियों में
धुआँ
उठता है उनमें भी
पर
रोक लेती हूँ भड़कने से
मुझमें
भी निहित है पशु
जो
निरंतर रहता है चैतन्य
इसीलिए
तो बुनती हूँ प्रतिदिन नया कलेवर
चाहती
हूँ गिरा रहे परदा बना रहे रोमांच
जानती
हूँ हवा दी शोलों को तो
शून्य
हो जाओगे तुम
तभी
तो बनाए हुए हूँ अभ्यास का अभियान
नहीं
चाहती फिर गढ़ा जाए नया इतिहास
लिखे
जाएँ सफ़े तुम्हारी तबाही के
मेरी
सोच की शुचिता ही तो
बनाए
हुए है तुम्हारा पौरुष
वरना
कब का पराजित हो चुका होता
तुम्हारा
अहं मेरे अहं से।
सोमवार, 4 नवंबर 2024
अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझ को
मैं हूँ तेरा नसीब अपना बना ले मुझको
ये तेरी सादादिली मार न डाले मुझको
कोई भी नाम मेरा लेके बुला ले मुझको
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझको
जितना जी चाहे तेरा आज सता ले मुझको
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझको
तू दबे पाँव कभी आ के चुरा ले मुझको
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको
शर्त ये है कोई बाँहों में सम्भाले मुझको
- क़तील शिफ़ाई
-------------------
हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
रविवार, 3 नवंबर 2024
ठुमरियों का महाकाव्य
बित्ते भर का झरोखा
वहीं से आसमान बुहारती हुई वह
ठुमरियों का महाकाव्य रच रही है।
शनिवार, 2 नवंबर 2024
मर्यादा
और फिर
उसे चार हिस्सों में बाँट दिया
तभी किसी ने कहा-
”इन चारों हिस्सों में
अलग-अलग रंग भरो”
…तब मुझे अहसास हुआ
कि नए रंग का
अपनी मर्यादा में रहना
तभी संभव है
जब पुराना रंग
अपनी सीमाओं में
पूरी तरह जम जाए!
- चिराग़ जैन
---------------
शुक्रवार, 1 नवंबर 2024
कुछ न होगा तो भी कुछ होगा
तो कुछ ही देर में चाँद निकल आएगा
और नहीं हुआ चाँद
तो आसमान में तारे होंगे
अपनी दूधिया रौशनी बिखेरते हुए
तो भी हाथ-पैर की उँगलियों से टटोलते हुए
धीरे-धीरे हम रास्ता तलाश लेंगे
और टटोलने को कुछ न हुआ आसपास
तो आवाज़ों से एक-दूसरे की थाह लेते
एक ही दिशा में हम बढ़ते जाएँगे
और आवाज़ देने या सुनने वाला कोई न हुआ
तो अपने मन के मद्धिम उजास में चलेंगे
जो वापस फिर-फिर हमें राह पर लाएगा
रास्ता रस्सी की तरह ख़ुद को लपेटता दिखेगा
आगे बढ़ना भी पीछे हटने जैसा हो जाएगा
और खोई ख़ामोशियों में गुनगुनाती हुई
हमें मंज़िल तक पहुँचा जाएगी।
- चंद्रभूषण
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
गुरुवार, 31 अक्तूबर 2024
पनघट पर नयनों की गागर
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
सोच तुम्हें बेसुध हो जाती जब कोयलिया बोले
पनघट पर नयनों की गागर मैं छलकाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
बिना तुम्हारे जग लगता है बिलकुल ख़ाली-ख़ाली
और मस्त पुरवाई दिल में आग लगाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
मैं हूँ प्रियतम प्रेम दीवानी जब से सबने जाना
बुलबुल, मोर, पपीहा निशदिन कसते मुझ पर ताना
मुई चाँदनी देख मुझे बस मुँह बिचकाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
तुम दीपक हो इस जीवन के आकर करो उजाला
तुम बिन साजन जली जा रही जैसे बाती रे
आती है जब याद तुम्हारी बेहद आती रे।
- चन्द्रगत भारती
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बुधवार, 30 अक्तूबर 2024
कविता लिखने से पहले ही
मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024
बूढ़ा पेड़
पहले फलों
फिर पशु-पक्षियों
और आख़िर में कुछ बचे
सूखे पत्तों ने भी छुड़ा लिया था
उसके हाथों से
अपनी उँगलियों को
अक्सर लाया करती थी माँ
उसकी बची-खुची सूखी लकड़ियाँ
जिससे पकाया जाता था
हम भाई-बहनों के लिए भोजन
को तोड़ने से पूर्व
उसे सहलाना और गले लगाना नहीं भूलती
कि कैसे एक बूढ़े पेड़ ने
अपने बुढ़ापे से
तुम्हें जवान किया है!
- गुँजन श्रीवास्तव
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सोमवार, 28 अक्तूबर 2024
सुना है कभी तुमने रंगों को
उजाले का आभास
अँधेरे के इतने क़रीब होता है
कि दोनों को अलग-अलग
पहचान पाना मुश्किल हो जाता है।
धीरे-धीरे
जब उजाला
खेलने-खिलने लगता है
और अँधेरा उसकी जुंबिश से
परदे की तरह हिलने लगता है
तो दोनों की
बदलती हुई गति ही
उनकी सही पहचान बन जाती है।
रौशन अँधेरे के साथ
लाली की नामालूम-सी झलक
एक ऐसा रंग रच देती है
जो चितेरे की आँख से ही
देखा जा सकता है।
क्योंकि उसका कोई नाम नहीं होता।
हमें ले ही कितनी दूर जाते हैं?
कोश में हम उनके हर साये के लिए
सही शब्द कहाँ पाते हैं?
रंगों की मिलावट से उपजा
हर अंतर, हर अंतराल
एक नए रंग की संभावना बन जाता है
और अपना नाम स्वयं ही
अस्फुट स्वर में गाता है
कभी सुना है तुमने
प्रत्यक्ष रंगों को गाते हुए?
एक साथ स्वर-बद्ध होकर
सामने आते हुए?
- जगदीश गुप्त
रविवार, 27 अक्तूबर 2024
शहीदों की चिताओं पर
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा
चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को
बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल
पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा
जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा
शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा
शनिवार, 26 अक्तूबर 2024
बहते जल के साथ न बह
कुछ तो होगी ख़ास वजह।
चाहे जहाँ कहीं भी रह।
इतने अत्याचार न सह।
चारण बनकर ग़ज़ल न कह।
- जगदीश व्योम
हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
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बात सीधी थी पर एक बार भाषा के चक्कर में ज़रा टेढ़ी फँस गई। उसे पाने की कोशिश में भाषा को उलटा पलटा तोड़ा मरोड़ा घुमाया फिराया कि बात या तो ब...
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पत्थरों में कचनार के फूल खिले हैं इनकी तरफ़ देखते ही आँखों में रंग छा जाते हैं मानो ये चंचल नैन इन्हें जनमों से जानते थे। मानो हृदय ही फूला...
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चेतना पारीक कैसी हो? पहले जैसी हो? कुछ-कुछ ख़ुश कुछ-कुछ उदास कभी देखती तारे कभी देखती घास चेतना पारीक, कैसी दिखती हो? अब भी कविता लिखती हो? ...