रविवार, 29 दिसंबर 2024

अंतराल

मिलने और बिछड़ने के अंतराल को
ऐसे रखना कि
बाद
कभी बाद भी
बहुत बाद भी
कहीं राह चलते मिल जाऊँ तो
मुझसे मेरा हाथ पकड़कर
पूछ सको मेरा हाल
मुस्कुरा सको मुझे देखकर

जैसे मिल जाते हैं दो जाने-पहचाने राही
किसी दूसरी राह
मिलूँगी ज़रूर

वैसे ही
जैसे पहले कभी मिली थी!

- असीमा भट्ट
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

कुम्हार के हाथ

घूमते चाक पर रचते हुए
ये हाथ कितने सुंदर हैं!

जैसे सुबह की किरणें
घास पर ठहरी हुई रात की ओस
जैसे सुनहले हो चले धान से भरे खेत
जैसे माँ के हाथ!

आँखें बंद कर लो
जीवन में जो सबसे सुंदर लगा हो तुम्हें,
उसे याद करो
फिर कुम्हार के हाथों के बारे में सोचो
जिन पर मिट्टी लगी हुई है
और जो अहर्निश घूमते चाक पर
सदियों से किसी मार्मिक शिल्प में हमसे बातें कर रहे हैं
बस इन्हें आँखों से छुआने का मन होता है!

यह रचते हुए हाथ हैं
दुनिया को संबल और भरोसा देते हुए
कच्ची मिट्टी की लोइयों में कविता गूँथते हुए!

सोचता हूँ
मिट्टी से जीवन सिरजने वाले
इन मानवीय हाथों को हमने क्यों नहीं रखा
अपने सिर आँखों पर?
हमने फ़ुटपाथ पर इन्हें क्यों छोड़ दिया अकेला!

ये किस उम्मीद पर घुमाए जा रहे हैं चाक,
कोई पूछता भी है इनसे कि
माटी से तुम्हारा रिश्ता इतना गहरा कैसे है?
एक कुम्हार ही कह सकता है पूरे भरोसे से
कि वह मिट्टी का आदमी है
क्या आप अपने बारे में यह बात
पूरे यक़ीन से कह सकते हैं?

मिट्टी से एकमेक हो गई इन ज़िंदगियों को
तुम कितना पहचानते हो
किसी कुम्हार का नाम बताओ
तुमने उनके बनाए किसी घड़े का पानी तो पिया होगा?

उनकी औरतें और बच्चे जो
दीयों के ढ़ेर के साथ बैठे हैं
तुम्हारे शहर की सड़कों के किनारे
आज उन्हें, उनके आँवे की गंध से
उनको रचने वाले हाथों के साथ याद करो
फ़ोन पर किसी को मत कहो कि
दीये महँगे हो गए हैं इस बार

- विनय सौरभ
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2024

अनकहा प्रेम

नभ ने धरा से 
कुछ नहीं कहा
और न ही धरा ने
नभ से कुछ कहा।

फिर भी न जाने
कितने अरब प्रकाश-वर्ष से
चल रहा है
यह अद्भुत प्रेम।

- मेधा
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

जीवन की हरियाली

नदी पूरी नदी कहाँ होती है
थोड़ी माँ होती है

पहाड़ होते हैं पिता
शामिल होते हैं सुख-दुख में
बारिशें दे देती हैं हमें सब कुछ
अपने तरीक़े से
आकाश और धरती की मंत्रणा से
बिछा देती हैं हरियाली जीवन में

वृक्ष पूरे वृक्ष कहाँ होते हैं
होते हैं सहोदर
जीवन की विचलिताओं में
भर देते हैं ऊष्मा

धरती पूरी धरती कहाँ होती है
होती है स्त्री
आँधी-तूफ़ानों में विवेक संज्ञान बन
बाँध लेती है हमारी हताशाओं को
अपने पल्लू की गाँठ में

आसमान पूरा नीला कहाँ होता है
होता है सखा
जो हमारे स्याह अँधेरों को
छिपा लेता है अपने सीने में

चाँद पूरा चाँद कहाँ होता है
होता है प्रेमी
जो प्रेमिका की उदास आँखों में
बाँध देता है रोशनी की लड़ियाँ

समुद्र पूरा समुद्र कहाँ होता है
होता है उत्सव
जो जीवन के कोलाहल को
बदल देता है उत्ताल लहरों की उमंगो में।

- वंदना गुप्ता
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संपादकीय चयन 

रविवार, 22 दिसंबर 2024

शनिवार, 21 दिसंबर 2024

शाम का संगीत

किनारे की सड़क पर बसें
तेज़ी से भाग रही हैं
भरे तालाब को देखने
दिन भर से ऊबे लोग
मधुमक्खियों की तरह जमा हैं

वे अपने तालाब से बहुत प्यार करते हैं
गाय का रँभाना, बतख़ाें का चिंचिंयाना
दूर से खोमचे वाले की आवाज़ का आकाश में कँपकँपाना
अचानक रुकी बस के पहिए का ज़मीन पर घिसट जाना

रेशा दर रेशा शाम का संगीत बुन रहा है
किनारे पर बैठा
निष्पलक बूढ़ा अपनी उदास आँखों से
पानी पर डगमगाती नाव को
बचाने में लगा है।

- संगीता गुंदेचा
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

हर हाल में बेजोड़

तिनका हूँ
सूखता हुआ। 

लेकिन फिर भी
जंगल का एक बेजोड़ हिस्सा। 

जब हरा-भरा होने में था
तो सूखने में भी हूँ।

- वेणु गोपाल
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 18 दिसंबर 2024

शब्द

शब्द महज़ शब्द नहीं

पूरा संसार है
केंचुए-सा रेंगता
वायलिन-सा बजता
रंगों-सा बिखरता

मुँह खुलता है जब भी
अंकुर-सा प्रस्फुटित होता है
हाथ के खिलाफ़ मुट्ठी-सा तनता है
युद्ध में ज़ोरों से फटता है
युद्ध के विरुद्ध
सफ़ेद पताका-सा लहराता है
शब्द।

- हेमंत जोशी
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कविता कोश से साभार 

मंगलवार, 17 दिसंबर 2024

तुम मुझे उगने तो दो

आख़िर कब तक तलाशता रहूँगा
संभावनाएँ अँकुराने की
और आख़िर कब तक
मेरी पृथ्वी
तुम अपना गीलापन दफ़नाती रहोगी,

कब तक करती रहोगी
गेहूँ के दानों का इंतज़ार
मैं जंगली घास ही सही
तुम्हारे गीलेपन को
सबसे पहले मैंने ही तो छुआ है
क्या मेरी जड़ों की कुलबुलाहट
तुमने अपने अंतर में महसूस नहीं की है
मुझे उगाओ मेरी पृथ्वी
मैं उगकर
कोने-कोने में फैल जाना चाहता हूँ

तुम मुझे उगने तो दो
मैं
तुम्हारे गेहूँ के दानों के लिए
शायद एक बहुत अच्छी
खाद साबित हो सकूँ।

- शरद बिलाैरे
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

विश्व शांति का स्वप्न

जब बजता है गहन रात्रि में
ठीक बारह बजे का घंटा
और दुनिया के अमन पसंद देश
मध्य रात्रि में देख रहे होते हैं
विश्व शांति का स्वप्न

उसी क्षण दुनिया के
किसी कोने में बजता है
युद्ध का बिगुल
और तमाम सभ्यताएँ
हो जाती है धराशाई

उजड़ जाते पेड़ की शाखाओं के
न जाने कितने घौंसले

उसी समय रात्रि के
अंतिम पहर एक छोटे से देश से
उड़ कर आया कबूतर
लाता है अमन शांति का दिव्य संदेश
और हम देश की सीमाओं, सरहदों से परे

जुड़ जाते हैं भावात्मक एकता में
नई ज्योति जलाकर
बन जाते हैं शांति के अग्रदूत!

- वंदना गुप्ता
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 12 दिसंबर 2024

आत्मा का गीत

मन के तसले में
रखी जा चुकी है
कच्ची सामग्री
खदबदाती 
और पक जाती

कहने को
घर उसका भी था
पर कहाँ था
वह कोना
जहाँ पकाती वह
अपनी कविता

जी लेती क्षण भर
और गा उठती
आत्मा का गीत।

- मेधा
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 11 दिसंबर 2024

थोड़ा-सा जामन देना

मन अनमन है, पल भर को
अपना मन देना
दही जमाने को, थोड़ा-सा
जामन देना

सिर्फ़ तुम्हारे छू लेने से
चाय, चाय हो जाती
धूप छलकती दूध सरीखी
सुबह गाय हो जाती
उमस बढ़ी है, अगर हो सके
सावन देना

नहीं बाँटते इस देहरी
उस देहरी बैना
तोता भी उदास, मन मारे
बैठी मैना
घर से ग़ायब होता जाता,
आँगन देना

अलग-अलग रहने की
ये कैसी मजबूरी
बहुत दिन हुए, आओ चलो
कुतर लें दूरी
आ जाना कुछ पास,
ज़रा-सा जीवन देना।

- यश मालवीय
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 10 दिसंबर 2024

उड़ते हुए

कभी
अपने नवजात पंखों को देखता हूँ
कभी आकाश को
उड़ते हुए।

लेकिन ऋणी मैं फिर भी
ज़मीन का हूँ
जहाँ
तब भी था
जब पंखहीन था
तब भी रहूँगा
जब पंख झर जाएँगे।

- वेणु गोपाल
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संपादकीय चयन 

रविवार, 8 दिसंबर 2024

एक और ढंग

भागकर अकेलेपन से अपने
तुममें मैं गया।

सुविधा के कई वर्ष
तुममें व्यतीत किए।
कैसे?
कुछ स्मरण नहीं।

मैं और तुम! 
अपनी दिनचर्या के पृष्ठ पर 
अंकित थे
एक संयुक्ताक्षर!

क्या कहूँ! लिपि की नियति
केवल लिपि की नियति थी

तुममें से होकर भी,
बसकर भी,
संग-संग रहकर भी
बिल्कुल असंग हूँ।

सच है तुम्हारे बिना जीवन अपंग है।
लेकिन! 
क्यों लगता है मुझे
प्रेम
अकेले होने का ही
एक और ढंग है।

- श्रीकांत वर्मा
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 7 दिसंबर 2024

होशियारी और तर्क

होशियारी और तर्क से उपजे
आरोप और उलाहने देते है
प्रेम में सिर्फ़ दुख

इसीलिए मैं तुम्हारे पास
आने से पहले ताख़ पर
रख आती हूँ
समझदारी होशियारी और अपना
ज़िद्दी स्वभाव

मूर्ख और अंजान बनकर
हम भरपूर जीते है
प्रेम का अनंत सुख

एक बार फिर से
तुम सुनाना मुझे
ढेर सारी झूठी कहानियाँ
मैं जी लूँगी तुम्हारे

प्रेम का अनंत सुख...(वत्सु)

- वत्सला पांडेय
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

ऋतुओं का दीप

रोमांचित हुई रेत हरी-हरी दूब उगी
आज नई कोंपल ने आकाश उठाया है,

केले के पात हिले
एक-एक हिलने ने अतीत को सँभाल लिया,
एक-एक आग्रह की वर्तमान प्यास बुझी!

ठूँठों के स्वप्न हँसे पतझर के जाने से!
फूल-फूल केसर का नीड़ बना,
किसके मन चोट लगी भौंरों के गाने से?
बल्कि यहाँ एक और सुरभि को झोंकों का पंख मिला

जीवन के दरवाज़े ऋतुओं का यह पहला दीप जला!

- लीलाधर जगूड़ी
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 5 दिसंबर 2024

साइकिल

दोनों पैडल पिता के पाँव हैं
टायर पिता के जूते
मुठिया उनके हाथ
कैरियर उनका झोला
हर रोज़ जाती है
उन्हें लेकर
और लाती है लादकर
गाते हुए लहराते हुए
बिना किसी हेडलाइट के भी
वह घुप्प अँधेरे में
चीन्ह लेती है अपनी राह
और मुड़ जाती है घर की ओर
हर रात पिता को
घर तक छोड़कर
फिर ख़ुद सोती है साइकिल
भूखी दीवार से सटकर
साइकिल
जो पिता की अभिन्न साथी है
किसी पेट्रोल-पंप तक नहीं जाती
कोई पेट्रोल नहीं पीती
जिसका अक्षय ईंधन
छिपा है पिता के पाँव में

 - संदीप तिवारी
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 4 दिसंबर 2024

सुखद सबेरा

खिलखिलाकर उतरी सुबह
उसके होंठों पर

ख़ुशी
पसरकर बैठी
घर के कोने-कोने

छुमक रही थी
ठुमक रही थी
जैसे नन्हीं बच्ची के पाँवों की पैजनिया
उसके भीतर
सुखद सबेरा

झाँक रहा था
उसके मुख पर हौले-हौले

 - संज्ञा सिंह
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

स्थायी नागरिक

मैं कविता की दुनिया का स्थायी नागरिक नहीं हूँ

मेरे पास नहीं है इसका कोई ग्रीन कार्ड
कविता की दुनिया के बाहर
इतने सारे मोर्चे हैं
जिनसे जूझने में खप जाता है जीवन

इनसे न फ़ुरसत मिलती है, न निजात
कि कविता की दुनिया की नागरिकता ले सकूँ
इसलिए जब-तब
आता जाता रहता हूँ

कविता की दुनिया
बस पर्यटन है मेरे लिए
न कोई चुनौती
न कोई मोर्चा
न ही कोई क़िला
जिसे जीतने की बेचैनी हो

छुट्टियों में आता हूँ
बेपरवाह घूमता हूँ
थोड़ी-सी हवा
थोड़ा-सा प्यार
थोड़ी-सी भावुकता
बटोरकर रख लेता हूँ

जैसे ऊँट भर लेता है अपने गुप्त थैले में
ढेर सारा पानी

फिर लौट जाता हूँ
उसी दुनिया में वापस

जहाँ छोटे-मोटे मोर्चे
इंतज़ार करते रहते हैं
जैसे बछड़े
गायों के लौटने का।

- सदानंद शाही
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 2 दिसंबर 2024

मैंने आहुति बन कर देखा

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने?
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले?
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले?
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने?
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने?

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे?
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे?
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने!

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है?
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अंतिम रहस्य पहचान लिया-
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है!
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
कुचला जाकर भी धूली-सा आँधी-सा और उमड़ता हूँ

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने!
भव सारा तुझ पर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

- अज्ञेय
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कविता कोश से साभार 

रविवार, 1 दिसंबर 2024

जाने वाले कब लौटे हैं?

जाने वाले कब लौटे हैं क्यूँ करते हैं वादे लोग
नासमझी में मर जाते हैं हम से सीधे-सादे लोग

पूछा बच्चों ने नानी से, हमको ये बतलाओ ना
क्या सचमुच होती थी परियाँ, होते थे शहज़ादे लोग

टूटे सपने, बिखरे अरमाँ, दाग़-ए-दिल और ख़ामोशी
कैसे जीते हैं जीवन भर इतना बोझा लादे लोग

अम्न वफ़ा नेकी सच्चाई हमदर्दी की बात करें
इस दुनिया में मिलते है अब, ओढ़े कितने लबादे लोग

कट कर रहते-रहते हम पर वहशत तारी हो गई है
ए मेरी तन्हाई जा तू, और कहीं के ला दे लोग

- श्रद्धा जैन
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 28 नवंबर 2024

घड़ी की दुकान

घड़ी की दुकानों में
समय नई-नई पोशाकों में
पोज़ देता है
(गतिशीलों को पोज़ देने की फ़ुर्सत नहीं)

रुकी घड़ियाँ दिलासा हैं
कि समय अभी शुरू हुआ नहीं

घड़ी एक गुल्लक है
जिसमें भरी है
समय की काल्पनिकता

अगर इस दुकान में बेहिसाब समय भरा है
तो मुमकिन है, 
बुज़ुर्ग किसी रात लूट ले जाएँ

अपनी घड़ी मिलाने के लिए
ये जगह अत्यंत भ्रामक

एक तश्तरी में
पुर्ज़ा-पुर्ज़ा खुली घड़ी कहती है-

समय और घड़ी दो असंगत चीज़ें हैं
घड़ी की मरम्मत संभव है,

समय की नहीं।

- हेमंत देवलेकर
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 27 नवंबर 2024

बस्ती

सूनापन हो तो क्या

कृतज्ञ हूँ मैं
बसकर मुझमें
तुमने
बस्ती जो किया
मुझे।

- नंदकिशोर आचार्य
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 26 नवंबर 2024

उलझन

चुप-से हैं पर
गहरी उलझन में हैं शब्द
क्या करें वे मेरा

मुझ अपंग का
जो निवेदित है उन्हें

ले चलें
मेरी बैसाखी बनकर
या घिसटने दें
इस ऊबड़-खाबड़ धरती पर
मुझको
मेरे ज़ख़्मों से रिसते हुए।

 - नंदकिशोर आचार्य
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 25 नवंबर 2024

मैं ही तो हो गया होता हूँ शब्द

नहीं, कविता रचना नहीं
सुबूत है कि
मैंने अपने को रचा है।

मैं ही तो हो गया होता हूँ शब्द
फुफकारते समुद्र में लील लिया जाकर भी
सुबह के फूल-सा खिल आता हुआ।
फूल में फूटकर
अपने को ही तो रच रहा होता है पेड़!

अरे!
तो क्या तुम भी
मुझे रचकर ही
ख़ुद को रच पाते हो?

 - नंदकिशोर आचार्य
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संपादकीय चयन 

रविवार, 24 नवंबर 2024

कई रंग हैं

मुस्कान-सी हल्की
आँख-सी खुली
खुले अंग-सी कौंध
आलिंगन-सी घनी

हरियाली के भी कई रंग हैं।

- नंदकिशोर आचार्य
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 23 नवंबर 2024

नए विचार की मशाल जल रही

न आसमान में धुआँ रुके कहीं
न एक दीपवर्तिका झुके कहीं
उठो, कि जागरण प्रभात हो चला
निहार लो कि ये धरा बदल रही

न सामने शिला बने अड़े रहो
न युग प्रवाह रोक कर खड़े रहो
निहार लो कि ये प्रशस्त पथ खुले
कि ये नवीन जाह्नवी उछल रहा

न यूँ तने रहो कि लो जड़ें हिलीं
नवीन प्राण के लिए किरण खिली
निहार लो कि मुक्त हो बहा पवन
कि ये नवीन पौध फूल फल रही।

 - नंद चतुर्वेदी
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 22 नवंबर 2024

सीढ़ी

जो किसी को
सीढ़ी बनाकर
ऊपर चढ़ रहे हैं

वे मुझसे कह रहे हैं
तुम कमज़ोर हो
कब से खड़ी हो
बीच रास्ते
हट जाओ

वे नहीं जानते
कि सीढ़ी के हटते ही
वे गिरेंगे

मैं
फिर भी
खड़ी रहूँगी

- पद्मजा शर्मा
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 21 नवंबर 2024

हार्मनी

सफ़ेद और काला अलग रहेंगे
तो नस्ल कहाएँगे
मिलकर रहेंगे तो संगीत

हारमोनियम
साहचर्य की एक मिसाल है
उँगलियों के बीच की ख़ाली जगह
उँगलियों से भर देने के लिए है

- हेमंत देवलेकर
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बिजुका से साभार 

बुधवार, 20 नवंबर 2024

कायर मत बन

कुछ भी बन, बस कायर मत बन!

ठोकर मार! पटक मत माथा!
तेरी राह रोकते पाहन!
कुछ भी बन, बस कायर मत बन!

ले-देकर जीना, क्या जीना?
कब तक ग़म के आँसू पीना?
मानवता ने सींचा तुझको
बहा युगों तक ख़ून-पसीना!
कुछ न करेगा? किया करेगा

रे मनुष्य, बस कातर क्रंदन?
कुछ भी बन, बस कायर मत बन!

युद्धम्देहि कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर!
या तो जीत प्रीति के बल पर,
या तेरा पथ चूमे तस्कर!
प्रतिहिंसा भी दुर्बलता है,

पर कायरता अधिक अपावन!
कुछ भी बन, बस कायर मत बन!

तेरी रक्षा का न मोल है,
पर तेरा मानव अमोल है!
यह मिटता है, वह बनता है;
यही सत्य की सही तोल है!
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को,

कर न दुष्ट को आत्म-समर्पण!
कुछ भी बन बस कायर मत बन!

- नरेंद्र शर्मा
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 19 नवंबर 2024

अलगाव


दूर तुम तब भी थे
दूर तुम अब भी हो
बदली है बस
दूरी की तासीर
तुम्हारे-मेरे बीच
कभी थीं आम की घनी अमराइयाँ
बौराई हुई
मादक दूरी
अब उग आए हैं बीच
कैक्टस के जंगल
जो तुम तक पहुँचने की
हर लहराती कोशिश को तोड़ देते हैं
यह तीखापन
हो सकता है तुम्हारी मजबूरी
पर सोचो तो
कौन-सा चेहरा सजता है
खँरोचों से
अपनापे का ऊष्म-ज्वार
उमड़ता है होंठों पर
पर स्पर्श पाते ही तुम्हारी ठंडी पाषाणी दृष्टि का
जम जाती है
एक जीवंत धारा
और मैं ठिठुरती रहती हूँ
हिमनदी-सी
एक मख़मली हरियाली थी
तुम्हारे-मेरे बीच
न जाने क्यों लगता है अब
हरियाली एक घातक नकाब है
नीचे खुदी हैं बारूदी खँदकें
पाँव धरते ही
फटेगी तुम्हारे होंठों पर
डायनामाइट की तरह एक मुस्कान
और जला देगी मुझे
मैं
जो हरियाली की ठगी
उसे बारूद का जंगल
मान नहीं पाती
नहीं मान पाती
तुम्हारे-मेरे बीच
अब सिर्फ़ सन्नाटा है
बुनते रहते हैं हम
एक ख़ामोशी 
आँखों से आँखों तक
कुछ न कहना
तुम्हारी समझदारी है शायद
पर दर्द का यह बाँझपन
सालता रहता है मुझे
रिसती रहती हूँ
गुमसुम
आँखों के कोरों से
दर्द को सींचना
फर्ज़ होता है उनके लिए
दर्द ही जिनकी पहचान होती है।


 - रेखा
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 18 नवंबर 2024

रोते बुद्ध उतरते हैं

                    

जले हुए जज़्बात मातमी

शिकवे और गिले,

रोती आँखें मिलीं विदा में

हिलते हाथ मिले।

 

दिल पर है सौ बोझ दुखों का

कितना और झुकें,

देश छोड़ते पाँव कहाँ जायें

किस ठाँव रुकें,

फटा चीर दर्ज़ी सिलता है

मन को कौन सिले।

 

रक्त-नहायी तलवारें

लड़ते अश्वारोही,

बंदी बनते नृपति और

कुछ मुदित राजद्रोही,

सपनों में दिख रहे आजकल

ढहते हुए किले।

 

घुली हुई है  गंध युद्ध की

आज फ़िज़ाओं में,

रोते बुद्ध उतरते हैं हर रोज़

दुआओं में,

मरी हुई मिट्टी में कैसे

सुरभित फूल खिले।

 

- अक्षय पाण्डेय

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शिवानंद सिंह सहयोगी के  सौजन्य से 

रविवार, 17 नवंबर 2024

दादू जी

 

दादू मेरी उँगली पकड़ो

तुम को चलना सिखलाऊँगा ।

 

ले कर छड़ी निकलने पर भी

ठोकर खायदि गिर जाओगे

कौन सँभालेगा तब तुम को

फिर घर तक कैसे आओगे?

रुको!अभी मैँ सँग-सँग चल कर

तुम को घर तक ले आऊँगा।

 

हाथ तुम्हारे काँप रहे हैं

टोस्ट छिटक कर गिर जाता है

फिर धरती पर पड़े हुए को

टॉमी, झट-पट आ खाता है

रुको! अभी तुम कुल्ला कर लो

गरम चाय मैं पिलवाउँगा ।

 

ठंड बहुत है इसीलिए तुम

नहाने  में आलस करते हो

सुबह सैर को जाने में भी

जाने क्यों बेहद डरते हो?

रुको! अभी मैं साथ तुम्हारे

चल कर सैर करा लाऊँगा ।

 

मैँ ने देखा सारे दिन तुम

बच्चों जैसी बातें करते

दोपहरी में सो जाते पर

हुए अकेले आँसू झरते

रुको!, अभी तुम आँसू पोंछो

फिर गीता मैं पढ़वाऊँगा ।।

 

- मुकुट सक्सेना

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शिवानंद सिंह सहयोगी की पसंद 

शनिवार, 16 नवंबर 2024

शोर भीतर

मौन है बाहर

मगर ज्वालामुखी का

शोर भीतर।


आहटें आक्रोश की हैं

हरकतें आवेग की।

भृकुटियाँ उद्वेग मन की

धार बनतीं तेग की।

देह है ठहरी

चलित करवाल की है 

कोर भीतर।।


भंगिमा सद्भाव की अब

तीर बनती जा रही।

पीर की प्रस्तर शिला बन

अश्रु गलती जा रही।

आँख है निश्चल मगर 

बरसात है 

घनघोर भीतर।।


पैर आगे बढ़ रहे हैं

मुट्ठियाँ भींचे हुए।

सामने पर्वत अड़े हैं

लाठियाँ खींचे हुए।

चीख घुटती है मगर 

संचेतना 

पुरजोर भीतर।।


भूख बेकारी निराश्रित

छटपटाती रात-दिन।

आग पर चलती सिसकती

जी रही है साँस गिन।

सामने है तम मगर 

विश्वास का है

भोर भीतर।।


-श्याम सनेही शर्मा 

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शिवानंद सिंह सहयोगी के  सौजन्य से 



शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

जिस एक काँटे से

जिस एक काँटे से 

बचने के लिए 

तैरती रही मछली 

समुंदर-दर-समुंदर 


उसकी देह में छिपा था


 - गगन गिल

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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 14 नवंबर 2024

बच्चों का समूह

कोहरे की बुक्कल मारे हुए
सूरज का माखौल उड़ाता
बर्फीले नाले में खड़ा बच्चा
'झूम बराबर झूम' गुनगुनाता
तलाश रहा है कचरा।

चार से छह बच्चों का समूह
विकास भवन के कूड़ेदानों से
तलाशता रहता है
फाइल कवर
मिठाई के खाली डिब्बे।

कहीं भी, कैसी भी गंदगी हो
सितारवादक सी
सधी उँगलियों से ये
तलाश ही लेते हैं
अपनी ज़रुरत।

दिन ढले पचास-साठ रुपए लिए
घर लौटने पर इन्हें
न जाने कैसी नजर से देखती है माँ
और गरमाहट से भरने लगता है
ठंडा चूल्हा।
            
- मनु स्वामी
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शिवानंद सिंह सहयोगी की पसंद 

बुधवार, 13 नवंबर 2024

साइकिल का रास्ता

साइकिल चलाते हुए 
ज़मीन पर रहते हुए भी 
ज़मीन से ऊपर उठी मैं। 
अंधे मोड़ को काटा ऐसे कि 
रास्ता काटती बिल्ली भी रुक गई दम साध कर 
ढलान से ऐसे उतरी 
समूची दुनिया को छोड़ रही हूँ जैसे पीछे 
चढ़ाई पर ऐसे चढ़ी कि 
पहाड़ों को पार कर पहुँचना है सपनों के टीलों तक।
 
साइकिल चलाते ही जाना 
कितनी जल्दी पीछे छूट जाता है शहर 
शहर को पार करते हुए जाना 
नदी न होती तो 
शहर की साँसें जाने कब की उखड़ गई होतीं 
पहला पहिया न होता तो 
कुछ करने की, जीतने की ज़िद न होती। 
खड़ी हूँ आज 
उसी सड़क पर बगल में साइकिल दबाए 
पैदल चलते लोगों को देख 
घबरा जाती हैं अब सड़कें 
रास्ता काटने से पहले दस बार सोचती हैं बिल्लियाँ 
गाय और कुत्ते भी पहले की तरह 
नहीं बैठते अब सड़क के बीचों-बीच 
देखा नहीं आज तक 
सड़क पर किसी बंदर को घायल अवस्था में 
मृत्यु का आभास होते ही 
पेड़ की खोह में चले जाते हैं वे 
क्या साइकिल चलाते और पैदल चलते लोग भी 
चले जाएँगे ऐसी ही किसी खोह में 
रोंप दी जाएगी क्या 
साइकिल भी किसी स्मृति वन में। 
साइकिल में ज़ंग भी नहीं लगी और 
रास्ते पथरीले हुए बिना ख़त्म हो गए 
फिर भी भोर के सपने की तरह 
दिख ही जाती है सड़क पर साइकिल। 

 - नीलेश रघुवंशी

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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 12 नवंबर 2024

बाँसुरी

 उपमा अलंकार

मुझ पर न लादो बरबस

आओ

मैं अपना परिचय स्वयं दूँ


मैं

एक खोखला

कुरूप बाँस हूँ

खंडित और छिद्रमय

मेरे भीतर

दीर्घशून्य है

पर जब तुम

छूते हो मेरी अनघड़ काया को

अपने थरथराते अधरों से

तो

मैं भूल जाती हूँ खुद को


लगता है

मैं कुछ 'और' भी हूँ

मेरा परिचय

कुछ 'और' भी है


तुम कह दो

कह दो न तुम

तुम बाँस ही नहीं

हो

बाँसुरी भी।


 - रेखा

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संपादकीय चयन 

सोमवार, 11 नवंबर 2024

आहट


आओ मन की आहट-आहट तक पढ़ डालें
फिर कहें यहीं
अपना उजड़ा-सा घर भी था
 
यूँ लाल-हरी-नीली-पीली-उजली आँखें
फिर नदी-नाव, मछली-मछुवारे-सी बातें
कंधों तक चढ़ आयी लहरों की चालों में
कल-परसों वाली भूल-भुलैया की रातें
 
आओ तन-मन को नया-नया कुछ कर डालें
फिर कहें कभी
मौसम को हल्का ज्वर भी था
 
दिन चोंच दबाई धूप उड़ी गौरैया के
सूरज की दबी हँसी-सी सोन चिरैया के
चेहरे पर मली-खिली-फूली पुचकारों में
दियना झाँका हो जैसे ताल-तलैया से
 
आओ चीड़ों पर थकी चाँदनी बन सोएँ 
फिर कहें यहीं
अपना टूटा-सा पर भी था
 
वो कई-कई कोणों में कटकर मुड़ जाना
फिर गुणा-भाग वाले रिश्तों से जुड़ जाना
निरजला,उपासे फीकी-सी उजलाहट में
चालों में लुकी-छिपी बतियाहट पढ़ जाना
 
आओ हर पल में मन्त्र सार्थक रच डालें
फिर कहें कभी
दिन घूमा इधर-उधर भी था

- डॉ. महेश आलोक

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शिवानंद सिंह सहयोगी जी के सौजन्य से 

रविवार, 10 नवंबर 2024

बोध

दूसरे ही दिन

आँगन के आर-पार

परस दी

किलटे-किलटे धूप

तुलसी के दाहिने

बिछाया वही पीढ़ा वही तकिया

तुम्हारी अम्मा के काढ़े हुए फूल

सुबह से दोपहर गए

चूल्हे पर पकती रही

मास की दाल

कुंडी में घिसती रही

पुदीने की चटनी

शाम चाय के साथ

आज भी तले

कचनार के कुरकुरे फूल

रात खाने से पहले

मेज़ पर आमने-सामने

घूरती रही दो थालियाँ

एक-दूसरे का बंद चेहरा


फिर आधी रात

देखी मैंने 

तुम्हारे हिस्से की चादर

उघड़ी हुई-बेझिझक

तकिये पर से ग़ायब था

तुम्हारे सिर का निशान

अलमारी में एक के बाद एक

बाँह लटकाए कोट

बाथरूम में ब्रश

मेज़ पर खुली किताब

बिटिया के नाम लिखा पत्र

हर कहीं हर चीज़ पर

छपे थे तुम्हारे हाथों के निशान

एक चीख़

छत चढ़ गई

सीढ़ियाँ उतर गईं

मेरी छाती में से

पँख छुड़ा

फड़फड़ा कर उड़ा

तुम्हारा नाम

सब दीवारों से टकराकर

बिछ गया फर्श पर

नीला पथराया

मौत सूँघा कबूतर।


 - रेखा

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हरप्रीत सिंह पुरी  के सौजन्य से 

शनिवार, 9 नवंबर 2024

बाबा नाहीं दूजा कोई

बाबा नाहीं दूजा कोई।

एक अनेकन नाँव तुम्हारे, मो पैं और न होई॥टेक॥


अलख इलाही एक तूँ तूँ हीं राम रहीम।

तूँ हीं मालिक मोहना, कैसो नाँउ करीम॥१॥


साँई सिरजनहार तूँ, तूँ पावन तूँ पाक।

तूँ काइम करतार तूँ, तूँ हरि हाजिर आप॥२॥


रमिता राजिक एक तूँ, तूँ सारँग सुबहान।

कादिर करता एक तूँ, तूँ साहिब सुलतान॥३॥


अविगत अल्लह एक तूँ, गनी गुसाईं एक।

अजब अनूपम आप है, दादू नाँव अनेक॥४॥


-  दादू दयाल

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

ओ मेरी मृत्यु!

कभी ऐसा लगता है

सुदूर उत्तर में

एक पेड़ के नीचे मेरी मृत्यु मुझे पुकार रही है

ओ मेरी मृत्यु तुम शांत क़दमों से

धीमी रोशनी की तरह मेरे मस्तक का स्पर्श करती आना

तेरे मौन से मुझे मौन

करती आना

मुझे भय से मुक्त करती आना

आना कि मैं

हर्ष पूर्वक तेरा

आलिंगन करूँ

ओ मेरी मृत्यु! विषाद मिटाती आना

जीवन का लोभ लेती जाना

अंत समय मुझे मुझसे ही विदा लेने का साहस देती आना

ओ मेरी मृत्यु!

मुझे मृत्यु देती आना

कि मेरे कान में गूँजता रहे दम मस्त क़लंदर मस्त -मस्त

कुमार गंधर्व के स्वर में

हिरना संभल -संभल पग धरना

की रागिनी मन में छाई रहे

और ख़ुसरो के बोलों

का अनहद नाद

मेरे प्राणों के साथ-साथ जाए

छाप तिलक सब छीनी रे तोसे नैना मिलाइके

ओ मेरी मृत्यु! सदेह आना

मुझे मुझी से मुक्त करती जाना

तुम जब भी आना।

 - कल्पना पंत

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

 

गुरुवार, 7 नवंबर 2024

हाथ में रख इस हृदय को

आज तुम मुझको बुलाओ

और मैं आऊँ प्रिये !

हाथ में रख इस हृदय को

साथ मैं लाऊँ प्रिये !

 

 ये हवायें, वादियाँ ये

छेड़ती हैं तान जैसे !

फूल,कलियाँ और पंछी

गा रहे सब गान जैसे !

यदि सुनो तुम मन लगाकर

ज़िन्दगी का गीत कोई

आज मैं गाऊँ प्रिये !

 

पाँव में रच दूँ महावर

मैं तुम्हारे, तुम कहो तो !

तोड़ मैं लाऊँ गगन से

सब सितारे, तुम कहो तो !

तुम कहो तो अंक भरकर

लाज अधरों पर तुम्हारे

फिर सजाऊँ मैं प्रिये !

 

मोह लेता है मुझे ये

केश का खुलना,बिखरना !

खनखनाना चूड़ियों का

और ये सजना सँवरना !

यदि न मानों तुम बुरा तो

कर दूँ अर्पित स्वयं को फिर

मैं तुम्हें पाऊँ प्रिये!

- चन्द्रगत भारती

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


 

 

बुधवार, 6 नवंबर 2024

युद्ध और प्रेम

मैं तुमसे मिलने आई

प्रेम की उद्दाम कामना लिए

अँगारों पर लोटती नायिका की भाँति अभिसार के लिए नहीं

अपने भीतर भरे आदिम भय से मुक्ति की चाहत लिए आई

मैं आई विद्रोह लिए आई

रूढ़ियों, ऑनर किलिंग, बलात्कारी हत्याओं, मौरल पुलिसिंग के ठेकेदारों को यह दिखाती आई

कि प्रेम अंतत: प्रेम है

तुम लाख नफ़रत फैला लो

जीतेगा अंततः प्रेम ही

रंग, रक्त, धर्म, वक़्त

कितना ही विलगालो

जीतेगा बस प्रेम ही।

 - कल्पना पंत

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

  

मंगलवार, 5 नवंबर 2024

अभ्यास

जन्मों से उठाए फिरती हूँ

सौम्यता का बोझ

तभी तो इतनी लचीली है मेरी रीढ़

और कमाल है जज़्ब की शक्ति

समंदर है मेरे भीतर

जिसके तल पर जमा है

संपदा दुख-सुख की

पूछते हो कैसे समा लेती हूँ सब

जी जन्म से अभ्यास जो कर रही हूँ

और आज भी जारी है

पर यूँ न समझ लेना रिक्त हूँ शक्तियों से

मुझमें भी हैं शोले हाँ ये अलग बात है कि

दबा के रखे हैं मुठ्ठियों में

धुआँ उठता है उनमें भी

पर रोक लेती हूँ भड़कने से

मुझमें भी निहित है पशु

जो निरंतर रहता है चैतन्य

इसीलिए तो बुनती हूँ प्रतिदिन नया कलेवर

चाहती हूँ गिरा रहे परदा बना रहे रोमांच

जानती हूँ हवा दी शोलों को तो

शून्य हो जाओगे तुम

तभी तो बनाए हुए हूँ अभ्यास का अभियान

नहीं चाहती फिर गढ़ा जाए नया इतिहास

लिखे जाएँ सफ़े तुम्हारी तबाही के

मेरी सोच की शुचिता ही तो

बनाए हुए है तुम्हारा पौरुष

वरना कब का पराजित हो चुका होता

तुम्हारा अहं मेरे अहं से।

 - कृष्णा वर्मा

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 4 नवंबर 2024

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझ को

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा नसीब अपना बना ले मुझको
 
मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के मानी
ये तेरी सादादिली मार न डाले मुझको
 
मैं समंदर भी हूँ, मोती भी हूँ, ग़ोताज़न भी
कोई भी नाम मेरा लेके बुला ले मुझको
 
तूने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुदपरस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझको
 
कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सता ले मुझको
 
ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको
 
मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझसे बचाकर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझको
 
मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे
तू दबे पाँव कभी आ के चुरा ले मुझको
 
तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको
 
वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ 'क़तील'
शर्त ये है कोई बाँहों में सम्भाले मुझको

क़तील शिफ़ाई
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 3 नवंबर 2024

ठुमरियों का महाकाव्य

हाथ भर की रसोई
बित्ते भर का झरोखा
वहीं से आसमान बुहारती हुई वह
ठुमरियों का महाकाव्य रच रही है।

- कल्पना पंत
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हरप्रीत सिंह पुरी  के सौजन्य से 


शनिवार, 2 नवंबर 2024

मर्यादा

मैंने एक गोला बनाया
और फिर
उसे चार हिस्सों में बाँट दिया
तभी किसी ने कहा-
”इन चारों हिस्सों में
अलग-अलग रंग भरो”
…तब मुझे अहसास हुआ
कि नए रंग का
अपनी मर्यादा में रहना
तभी संभव है
जब पुराना रंग
अपनी सीमाओं में
पूरी तरह जम जाए!

-  चिराग़ जैन
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

कुछ न होगा तो भी कुछ होगा

सूरज डूब जाएगा
तो कुछ ही देर में चाँद निकल आएगा
और नहीं हुआ चाँद
तो आसमान में तारे होंगे
अपनी दूधिया रौशनी बिखेरते हुए
 
और रात अँधियारी हुई बादलों भरी
तो भी हाथ-पैर की उँगलियों से टटोलते हुए
धीरे-धीरे हम रास्ता तलाश लेंगे
और टटोलने को कुछ न हुआ आसपास
तो आवाज़ों से एक-दूसरे की थाह लेते
एक ही दिशा में हम बढ़ते जाएँगे
और आवाज़ देने या सुनने वाला कोई न हुआ
तो अपने मन के मद्धिम उजास में चलेंगे
जो वापस फिर-फिर हमें राह पर लाएगा
 
और चलते-चलते जब इतने थक चुके होंगे कि
रास्ता रस्सी की तरह ख़ुद को लपेटता दिखेगा
आगे बढ़ना भी पीछे हटने जैसा हो जाएगा
 
तब कोई याद हमारे भीतर से उठती हुई आएगी
और खोई ख़ामोशियों में गुनगुनाती हुई
हमें मंज़िल तक पहुँचा जाएगी। 

 चंद्रभूषण
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से