रविवार, 28 सितंबर 2025

ज़ख़्म ज़माने से मिले

 दाग़ दुनिया ने दिए ज़ख़्म ज़माने से मिले 

हम को तोहफ़े ये तुम्हें दोस्त बनाने से मिले 

हम तरसते ही तरसते ही तरसते ही रहे 

वो फ़लाने से फ़लाने से फ़लाने से मिले 

ख़ुद से मिल जाते तो चाहत का भरम रह जाता 

क्या मिले आप जो लोगों के मिलाने से मिले 

माँ की आग़ोश में कल मौत की आग़ोश में आज 

हम को दुनिया में ये दो वक़्त सुहाने से मिले 

कभी लिखवाने गए ख़त कभी पढ़वाने गए 

हम हसीनों से इसी हीले बहाने से मिले 

इक नया ज़ख़्म मिला एक नई उम्र मिली 

जब किसी शहर में कुछ यार पुराने से मिले 

एक हम ही नहीं फिरते हैं लिए क़िस्सा-ए-ग़म 

उन के ख़ामोश लबों पर भी फ़साने से मिले 

कैसे मानें कि उन्हें भूल गया तू ऐ 'कैफ़' 

उन के ख़त आज हमें तेरे सिरहाने से मिले 

      

- कैफ़ भोपाली

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-हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 



शनिवार, 27 सितंबर 2025

अब इसे छोड़ के जाना

अब इसे छोड़ के जाना भी नहीं चाहते हम

और घर  इतना  पुराना भी नहीं चाहते हम

सर भी  महफूज़  इसी में  है  हमारा लेकिन

क्या करें सर को झुकाना भी नहीं चाहते हम

हाथ और पांव किसी के हों किसी का सर हो

इस तरह क़द को बढ़ाना भी नहीं चाहते हम

अपनी ग़ैरत के लिए फ़ाक़ा कशी भी मंज़ूर

तेरी  शर्तों पे  ख़ज़ाना  भी  नहीं चाहते  हम

आंख जब दी है नज़ारे भी आता कर यारब

एक  कमरे  में  ज़माना  भी  नहीं चाहते हम


 -  हसीब सोज़

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


 

गुरुवार, 25 सितंबर 2025

हाइकु

० बात सबसे
   करते हैं, मगर
   मन की नहीं

० अकेली तो हूँ
   मगर भीड़ को भी
   ओढ़ लेती हूँ

० विश्वास टूटा
   मानवता का एक
   पाठ पा लिया

० भोग्या - नारी
    विज्ञापन जग के
    नशे से बचो 

० माँ ने भी जब
   छोटी बात बनाई
   लगी पराई

- ऋतु पल्लवी 
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 24 सितंबर 2025

फूल अगर कुम्हलाएँगे

फूल अगर कुम्हलाएँगे
गुंचे फिर खिल जाएँगे

कितनी अच्छी बस्ती है
हम भी घर बनवाएँगे

हाथ तुम्हारा थामा है
अब तो साथ निभाएँगे

अपना दुख मत कहना तुम
सुनकर लोग चिढ़ाएँगे

भीगी आँखों ने पूछा
कब तक धुआँ उड़ाएँगे

- एम आई ज़ाहिर
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 23 सितंबर 2025

आँगन से होकर आया है

सारा वातावरण तुम्हारी साँसों की खुशबू से पूरित,
शायद यह मधुमास तुम्हारे आँगन से होकर आया है।

इससे पहले यह मादकता, कभी न थी वातावरणों में,
महक न थी ऐसी फूलों में, बहक नहीं थी आचरणों में,
मन में यह भटकाव, न मौसम में इतना आवारापन था,
मस्ती का माहौल नहीं था, जीवन में बस खारापन था,
लेकिन कल से अनायास ही मौसम में इतना परिवर्तन,
शायद यह वातास तुम्हारे मधुबन से होकर आया है।

आज न जाने अरुणोदय में, शबनम भी सुस्मित सुरभित है,
किरणों में ताज़गी सुवासित कलियों का मस्तक गर्वित है,
आकाशी नीलिमा न जाने क्यों कर संयम तोड़ रही है,
ऊषा का अनुबंध अजाने पुलकित मन से जोड़ रही है,
ऐसा ख़ुशियों का मौसम है, बेहोशी के आलम वाला,
शायद पुष्पित हास तुम्हारे गोपन से होकर आया है।

मेरे चारों ओर तुम्हारी ख़ुशियों का उपवन महका है,
शायद इसीलिए बिन मौसम मेरा मन पंछी चहका है,
मलयानिल चंदन के बन से खुशबू ले अगवानी करता,
उन्मादी मधु ऋतु का झोंका सबसे छेड़ाखानी करता,
सिंदूरी संध्या सतवंती साज सँवारे मुस्काती है,
यह चंदनी सुवास तुम्हारे उपवन से हो कर आया है।

- कृष्ण मिश्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 22 सितंबर 2025

लिखो!

एक ने कहा लिखो भजन सूर-मीरा-से

दूजी ने कहा लिखो प्यानो के लिए गीत- 
बाब डिलन, प्रेस्ले, बैज जैसे गाते हैं।

तीसरी ने कहा लिखो कुछ जो हम समझ सकें।

चौथे ने कहा लिखो घोषणा-पत्र।

पंचम ने कहा लिखो जंग, आग, इंक़लाब।

कहा कवि त्रिलोचन ने लिखो वाक्य पूरा।

- गिरधर राठी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 21 सितंबर 2025

हाइकु

1. नभ में पंछी
    सागर - तन मीन
    कहाँ बसूँ मैं?

2. कितना लूटा 
    धन संपदा यश
    घर न मिला

3. चंदन - सांझ
    रच बस गई है 
    मन खाली था

4. स्याही से मत
    लिखो, रचनाओं को 
    मन उकेरो

5. बच्चे को मत
    पढ़ाओ तुम, मन 
    उसका पढ़ो

- ऋतु पल्लवी 
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 20 सितंबर 2025

सारंगी

जब तारों पर
हड्डियाँ रगड़ता है बजवैया

तब फूटता है
कोई स्वर
सारंगी का

- कुमार मंगलम
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 19 सितंबर 2025

इस्लाह

हमें भी एक दिन
एक दिन हमें भी
देना होगा जवाब
इसलिए
लिखें अगर डायरी
सही-सही लिखें
और अगर याचिका लिखनी है
लिखें समझ-बूझकर


लेकिन अगर चैन न हो हमारा आराध्य
और हम रह सकें बिना अनुताप के
तब न करें स्याह ये
धौले-उजले पन्ने!

- गिरधर राठी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

गुरुवार, 18 सितंबर 2025

मन में सपने अगर नहीं होते

मन में सपने अगर नहीं होते
हम कभी चाँद पर नहीं होते

सिर्फ़ जंगल में ढूँढते क्यूँ हो
भेड़िये अब किधर नहीं होते

कब की दुनिया मसान बन जाती
इस में शाइ'र अगर नहीं होते

किस तरह वो ख़ुदा को पाएँगे
ख़ुद से जो बे-ख़बर नहीं होते

पूछते हो पता ठिकाना क्या
हम फ़क़ीरों के घर नहीं होते

- उदय भानु हंस
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 17 सितंबर 2025

घूम रहा है तन्हा चाँद

यादों की आबाद गली में 
घूम रहा है तन्हा चाँद 

इतने घने बादल के पीछे 
कितना तन्हा होगा चाँद 

आँसू रोके नूर नहाए 
दिल दरिया तन सहरा चाँद 

इतने रौशन चेहरे पर भी 
सूरज का है साया चाँद 

जब पानी में चेहरा देखा 
तूने किस को सोचा चाँद 

बरगद की इक शाख़ हटाकर 
जाने किस को झाँका चाँद 

बादल के रेशम झूले में 
भोर समय तक सोया चाँद 

रात के शाने पर सर रक्खे 
देख रहा है सपना चाँद 

सूखे पत्तों के झुरमुट पर 
शबनम थी या नन्हा चाँद 

हाथ हिलाकर रुख़सत होगा 
उसकी सूरत हिज्र का चाँद 

सहरा-सहरा भटक रहा है 
अपने इश्क़ में सच्चा चाँद 

- परवीन शाकिर
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विजया सती की पसंद 

मंगलवार, 16 सितंबर 2025

उदास हो चला गया वसंत

इस हाथ से
उस हाथ के लिए कविता
जिसे थामना था
इस शहर के
कोलाहल के ठीक बीचोबीच
मगर इस बार भी उदास ही
चला गया वसंत

बादलों ने घेर लिया
तुम्हारी आँखों में
चमकते सूरज और चाँद को
काश थोड़ी भी शर्म होती
इन ज़ुल्फ़ों में
होंठों पर तैरती नदी
आज उदास थी
तुम्हारे चेहरे के आब में
डूबता रहा वर्ष भर
कि पँखुड़ियाँ थोड़ी और नम हो जातीं
सूख गए कुएँ, तालाब भी सूख गया
सूख रही नदी, सूख चुकी ख़रीफ़
और अब रबी भी उसी राह पर
चाहे कितना भी ओढ़ लो नक़ाब
भीतर का सूखा आख़िर बाहर कब तक हरा रहेगा
खोजते रहो पृथ्वी के बाहर भी
पानी और पहाड़
जीवन को बचाने के लिए कुछ और चाहिए

अपने मस्तक पर ढोती तोपों से
चूल्हे की आग नहीं बचाई जा सकती।

- रविशंकर उपाध्याय
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रविवार, 14 सितंबर 2025

सबसे सुंदर

सबसे सुंदर समुद्र 
अभी तक लांघा नहीं गया 

सबसे सुंदर बच्चा
अभी बड़ा नहीं हुआ 

हमारे सबसे सुंदर दिन
अभी देखे नहीं हमने 

और सबसे सुंदर शब्द 
जो मैं तुमसे
कहना चाहता था 
अभी कहे नहीं मैंने 

- नाज़िम हिक़मत
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विजया सती की पसंद 

शनिवार, 13 सितंबर 2025

लौटना

जाने के कई रास्ते होते हैं 
लौटने का सिर्फ एक रास्ता होता है 
रास्तों को खुशबू से पहचानना पड़ता है 
खुशबू पहचानने के लिए 
वक्त की देह से लिपट जाना पड़ता है 
अगर खुशबू को नहीं पहचान पाए 
तो लौटना मुश्किल हो जाता है 

- श्रीधर करुणानिधि 

शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

आज़ादी

सुनो भइया, 
कितनी सुंदर होती है वह आज़ादी 
जो केवल अपने लिए होती है

सुनो भइया, 
कितनी सुंदर होती है वह बहस 
जिसमें निर्णय तो लिए जाएँ 
पर न किया जाए उन्हें लागू किसी के हित में

सुनो भइया, कितनी सुंदर होती है वह दुनिया 
जिसमें हम दिन-रात सपने देखें 
सबकी बराबरी के 
मगर जागते हुए मौन रह जाएँ 
बराबरी के सवाल पर

सुनो भइया, 
कितने सुंदर होती हैं वे औरतें 
जो दहलीज़ फाँद जाती हैं 
पर घर की औरत रहे दहलीज़ में 
इसके लिए करते हैं प्राण-प्रण 
पूरी कोशिश।

- अनिता भारती 
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विजया सती की पसंद 

गुरुवार, 11 सितंबर 2025

नमक

था तो चुटकी भर ज़्यादा 
लेकिन पूरे स्वाद पर उसी का असर है 
सारी मेहनत पर पानी फिर गया 

अब तो जीभ भी इंकार कर रही है 
उसे नहीं चाहिए ऐसा स्वाद जो 
उसी को गलाने की कोशिश करे

ग़लती नमक की भी नहीं है 
उसने तो सिर्फ़ यही जताया है कि 
चुटकी-भर नमक भी क्या कर सकता है 

- शंकरानंद
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विजया सती की पसंद 

बुधवार, 10 सितंबर 2025

ज़िंदगी को जिया मैंने

ज़िंदगी को जिया मैंने 
इतना चौकस होकर 
जैसे नींद में भी रहती है सजग 
एक चढ़ती उम्र की लड़की 
कि उसके पैरों से कहीं चादर न उघड जाए

- अलका सिन्हा
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अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 9 सितंबर 2025

फूल-सा बिखरना

जैसे फूल बिखेरता है 
अपनी पँखुड़ियाँ धरती पर 
बिखेरता हूँ मैं 
तुम पर अपने को 
ठीक वैसे ही 

फिर समेट नहीं पाता हूँ अपने को ही 
जैसे समेट नहीं पाता फूल 
अपनी बिखरी पँखुड़ियाँ 
और फिर 
फूल नहीं रह पाता है फूल 

- आनंद हर्षुल 
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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 8 सितंबर 2025

दोस्त

जिन्हें
कहती है दुनिया दोस्त
चुटकियों में नहीं बनते

पहचाने जा सकते हैं
चुटकियों में

पड़ जाते है जो
एक ही आँच में लाल
दुनिया उन्हें
दोस्त नहीं मानती

दोस्ती
धीरे-धीरे तपती है
और
तपती ही जाती है
फिर पकती है कहीं
करोड़ों पलों के
मौन से गुज़रकर

मैं भी धीरे-धीरे
पकना चाहता हूँ।

- अनिल करमेले
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विजया सती की पसंद 

रविवार, 7 सितंबर 2025

ब्याहताएँ

देहरी लीपकर मांड आई हूँ मांडना
ताकि बनी रहे संसबरक्कत घर में 
चुन पछोरकर 
अनाज भर दिया है कोठी में 
कि मेरी अनुपस्थिति में भी 
कुछ रोज़ ज्योनार बन सके आसानी से

देखो न बाबा
भोर से संध्या हो गई है 
लेस दिया है लालटेन और 
लटका आई हूँ बूढ़े बरगद की डालियों पर 
ताकी अँधेरे में वो खूसट 
अपनी जटाओं से डराए नहीं 
राहगीरों को 

चलो न बाबा 
निपटा आई हूँ सारे काम 
अब ले चलो न अपने घर 
गोधूलि से पहले ही 
क्योंकि 
ब्याहताएँ अँधेरे में विदा नहीं होती 

- अपराजिता अनामिका 
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विजया सती की पसंद 

शनिवार, 6 सितंबर 2025

सुंदर

जो सुंदर था 
गतिमान भी था वही
पकड़ा न गया

पकड़ा गया मैं 
जकड़ा गया

- वीरेन डंगवाल 
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

सौ-सौ सूरज

रात के
गहन अँधेरे में
सूरज
अपना वादा
तोड़कर
चाँद को
यूँ अकेला
छोड़कर
चल दिया

नज़र के
आसमान से दूर
देखता रहा
चाँद
उसके मिटते
निशान को
हर पल
मद्धम हो रहे
उसके प्रकाश को

उसके हर
क़दम के साथ
उसने
एक उम्मीद बाँधी
अपने प्रेम की
बेड़ी के साथ
उसके
क़दमों के नीचे
सपनों की नींव डाली

वो कदम
तो नहीं लौटे
जो उस रात
नहीं रूके थे
लेकिन
सपनों के बीजों से
एक घना पेड़
उग आया
जिस पर
एक नहीं
सौ-सौ सूरज उगे थे

- किरण मल्होत्रा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

मेरी भाषा

मेरी भाषा
कक्षा में पढ़ाई जाने वाली कोई भाषा नहीं थी
वो न तो हिंदी थी
न अँग्रेज़ी
न संस्कृत की तरह अभिजात
न उर्दू जितनी चाशनी लिपटी हुई

वो भाषा थी मेरी माँ के झुँझलाने की
पानी गिरा हो और उसने कहा हो कि
“ध्यान कहाँ है तेरा?”
वो भाषा थी पिता की खामोशी की
जिसमें तंबाकू की गंध
और थकान की चुप्पी लिपटी रहती थी

मेरी भाषा वह थी
जिसमें दादी ने पहली बार मुझे डाँटा था 
“तू फिर खेल में लगी है!”
और फिर उसी में
थाली खिसकाकर चुपचाप खाना परोस दिया था

जिसमें मेरी बहन ने पहला झूठ बोला
'ठीक हूँ'
और फिर बहुत देर तक रोती रही

मेरी भाषा की कोई लिपि नहीं थी
वो आँखों की कोर से फिसलती रही
रसोई के चूल्हे से उठती रही
छत पर सूखते कपड़ों के बीच फड़फड़ाती रही

जब मैंने किताबों में भाषा पढ़ी
तो जाना
मेरी भाषा को अपशब्द कहते हैं
मेरे मुहावरे अशिष्ट हैं
मेरी बोली गँवारू है

तब मैं चुप हो गई 
शब्दों को रुई की तरह दबाकर रखने लगी
कि कहीं कोई सुन न ले
मेरी असल भाषा

लेकिन जब मैंने पहली बार प्यार किया
तो वो भी मेरी भाषा में हुआ
जिसमें ‘हाँ’ कहना
‘जा’ कहने जितना तीखा था
और 'रुक' कहना
मिट्टी जैसी कोमलता लिए होता था

अब मैं अपनी भाषा में लिखती हूँ 
बिना किसी व्याकरण
बिना किसी अनुवाद के
जिसे जो समझना है समझे

मेरी भाषा
मेरे जैसी है 
थोड़ी टूटी
थोड़ी रूखी
पर पूरी तरह सच्ची।

- मालिनी गौतम
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विजया सती की पसंद 

बुधवार, 3 सितंबर 2025

जिनकी भाषा में विष था

जिनकी भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुख था

दुखों के पीछे अपेक्षाएँ थीं
अपेक्षाओं में दौड़ थी
दौड़ने में थकान थी
थकान से हताशा थी
हताशा में भाषा थी

भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुख था

- बाबुषा कोहली 
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अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

बहनें

जब बाप गरज रहे होते हैं 
बाप जैसे 

माँ रो रही होती है 
माँ जैसी 

भाई खड़े रहते हैं 
भाई जैसे 

तब 
कुछ भाई
कुछ माँ 
कुछ बाप जैसी 
प्रार्थना में 
झुकी रहती हैं 
बहनें 

- विनोद कुमार श्रीवास्तव 
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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 1 सितंबर 2025

कविता के अरण्य में

यदि तुम देख सको
कविता में उगता है एक पेड़
उस पर बैठती है एक नन्हीं चिड़िया
यदि तुम सुन सको
यहाँ बहती है एक नदी
अपने ही दुखों से सिहरती

कविता के अरण्य में 
कवि बहुत हैं
मनुष्य तुम्हें खोजने होंगे।

- रश्मि भारद्वाज 
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विजया सती की पसंद 

रविवार, 31 अगस्त 2025

वसंत

वसंत के दिन थे
जब हम पहली बार मिले

पहली बार
मैंने वसंत देखा

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

शनिवार, 30 अगस्त 2025

उम्मीद की अँगीठी

कविता
ज़िंदा आदमी के सीने में सुलगती
उम्मीद की अँगीठी है

अँगीठी पर चढ़े पतीले में
मैंने रख धरे हैं
दुनिया भर के दुख, उदासी और चिंताएँ
वाष्पीभूत होने के लिए

प्रेम के धातु से
बनवाया है यह पतीला
दरअसल है नहीं कोई दूसरा धातु
किसी काम का

एक सुंदर दुनिया की उम्मीद में
सुलगते सीने में भरोसे की आग जलाए
लिखता हूँ कविताएँ
क्योंकि मैं ज़िंदा आदमी हूँ

ज़िंदा आदमी
कविता न लिखे
मर जाएगा

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

मौलिकता

सृजन और प्‍यार और मुक्ति की
गतिकी के कुछ आम नियम होते हैं
लेकिन हर सर्जक
अपने ढंग से रचता है,

हर प्रेमी
अपने ढंग से प्‍यार करता है

और हर देश
अपनी मुक्ति का रास्‍ता
अपने ढंग से चुनता है।

- कात्यायनी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

गुरुवार, 28 अगस्त 2025

कुछ पल

कुछ पल
साथ चले भी कोई
तो क्या होता है
क़दम-दर-क़दम
रास्ता तो
अपने क़दमों से
तय होता है

कुछ क़दम संग
चलने से फिर
न कोई अपना
न पराया होता
बस, केवल
वे पल जीवंत 
और
सफ़र सुहाना होता है

- किरण मल्होत्रा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

बुधवार, 27 अगस्त 2025

बाहर-भीतर : यह जीवन

मैंने फूल देखे
फिर उन्हीं फूलों को
अपने भीतर खिलते देखा
 
मैंने पेड़ देखे
और उन्हीं पेड़ों के हरेपन को
अपने भीतर उमगते देखा
 
मैं नदी में उतरा
अब नदी भी बहने लगी
मेरे भीतर
 
मैंने चिड़िया को गाते सुना
गीत अब मेरे भीतर उठ रहे थे

यूँ बाहर जो मैं जीया
उसने भीतर
कितना भर दिया!

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

मंगलवार, 26 अगस्त 2025

बेहतर है

मौत की दया पर
जीने से
बेहतर है

ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश
के हाथों मारा जाना!

- कात्यायनी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

सोमवार, 25 अगस्त 2025

हँसी

बहुत कुछ कहती है
भरोसा जगाती हँसी
 
एक बेपरवाह हँसी गढ़ती है
सुंदरता का श्रेष्ठतम प्रतिमान

अर्थ खो देंगे
रंग, फूल, तितली और चिड़िया
एक हँसी न हो तो
 
हँसी से ही
संबंधों में रहती है गर्मी
 
नींद कैसे आएगी हँसी के बिना
प्रेम का क्या होगा?
 
हँसी को तकिया बनाकर
सोता है प्रेम

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

पोस्ट ऑफिस

 पोस्ट ऑफिस में अब कहाँ टकराते हैं ख़ूबसूरत लड़के 


चिट्ठियाँ गुम होने का बड़ा नुकसान ये भी हुआ है 

‘एक्सक्यूज़ मी..पेन मिलेगा क्या’ जैसा बहाना जाता रहा 

‘आप बैठ जाइए..मैं लगा हूँ लाइन में’ कहने वाले भी कहाँ रहे 

मुए ज़माने ने इतना भर सुख भी छीन लिया 


वो दिन जब लाल पोस्ट बॉक्स जैसे तिलिस्मी संदूक 

और डाकिया जादूगर 

वो दिन जब महीने में डाकघर के चार चक्कर लग ही जाते 

और तीन बार कहीं टकरा ही जाती नज़रें 

बीते दिनों इतना रोमांच काफी था 

कॉलेज की सहेलियों से बतकही में ये बात ख़ास होती-

‘सुन..कल वो फिर दिखा था’

पोस्ट ऑफिस में दिखने वाले लड़के अमूमन शरीफ़ माने जाते 


पार्सल, मनीआर्डर, रजिस्टर्ड पोस्ट, ग्रीटिंग कार्ड 

और भी सौ काम थे 

राशन से कम कीमती नहीं थी चिट्ठियाँ 

एक से पेट भरता दूसरे से मन 

वो दिन जब डाकघर जाना हो तो 

लड़की अपना सबसे अच्छा सूट निकालती 


पोस्ट ऑफिस उन बैरंग चिट्ठियों का भी ठिकाना था 

जो एकदम सही पते पर पहुँचती 

कुछ बेनामी ख़त जो आँखों-आँखों में पढ़ लिए जाते


इन दिनों डाकघर सूने हो गए हैं 

अब आँखों पर भी चश्मा चढ़ गया है


- श्रुति कुशवाहा

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-संपादकीय चयन 

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

गज़ल

वो रंजिश में नहीं अब प्यार में है
मेरा दुश्मन नए किरदार में है

खुशी के साथ ग्लोबल आपदाएँ
भई खतरा तो हर व्यापार में है

नहीं समझेगा कोई दर्द तेरा
तड़पना, टूटना बेकार में है

कोई उम्मीद हो जिसमें, खबर वो 
बताओ क्या किसी अखबार में है

घरों में आज सूनापन है केवल 
यहाँ रौनक तो बस बाज़ार में है

- विनय मिश्र

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संपादकीय चयन 

बुधवार, 30 जुलाई 2025

शहर के दोस्त के नाम पत्र

हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं

बॉक्साइट के गुलदस्ते सजे हैं

अभ्रक और कोयला तो 

थोक और खुदरा दोनों भावों से 

मंडियों में रोज सजाए जाते हैं


यहाँ बड़े-बड़े बाँध भी

फूल की तरह खिलते हैं

इन्हें बेचने के लिए 

सैनिकों के स्कूल खुले हैं, 

शहर के मेरे दोस्त

ये बेमौसम के फूल हैं

इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती

अपने जुड़े के लिए गजरे

मेरी माँ नहीं बना सकती

मेरे लिए सुकटी या दाल

हमारे यहाँ इससे कोई त्योंहार नहीं मनाया जाता

यहाँ खुले स्कूल

बारहखड़ी की जगह

बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं


बाजार भी बहुत बड़ा हो गया है

मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता

यहाँ से सबका रुख शहर की ओर कर दिया गया है


कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा

उससे पहले नदी गई

अब खबरल फैल रही है कि

मेरा गाँव भी यहाँ से जाने वाला है


शहर में मेरे लोग तुमसे मिलें

तो उनका ख़याल ज़रूर रखना

यहाँ से जाते हुए उनकी आँखों में

मैंने नमी देखी थी

और हाँ

उन्हें शहर का रीति-रिवाज भी तो नहीं आता

मेरे दोस्त उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए

अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ।


- अनुज लुगुन

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-संपादकीय चयन 



मंगलवार, 29 जुलाई 2025

जो समय बदलते हैं

घड़ी की सुइयों के बीच भी

अँधेरा रहता है 

शाम होने के बाद 

वह धीरे-धीरे 

गहराने लगता है

चंद्रमा की चमक

उसकी रफ़्तार पर नहीं पड़ती

शायद इसीलिए

बहुत रात के बाद 

उसके चलने की आवाज़

और तेज हो जाती है

जैसे अपने हिस्से की 

रौशनी माँग रही हो

हालांकि वह कभी 

मिलने वाली नहीं

फिर भी बल्ब जलाने से 

घड़ी का चेहरा

खिल जाता है

जो दूसरों का समय बदलते हैं

वे ऐसे ही रौशनी के लिए

तरसते रहते हैं

अनवरत चलते हुए

एक दिन रुक जाते हैं सहसा 

चुपचाप

जैसे घड़ी बंद मिलती है

किसी सुबह।


- शंकरानंद

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संपादकीय चयन 



सोमवार, 28 जुलाई 2025

अजब सफ़र है

अजब सफ़र है 

मैं अपनी मुट्ठी से रेत बनकर फिसल रहा हूँ 

 वह रेत दामन  में भर रही है

मैं थोड़ा मुट्ठी में रह गया हूँ

मैं थोड़ा दामन में गिर चुका हूँ 

मैं बाक़ी दोनों के दरमयाँ हूँ 

मुझे यह डर है 

मैं ज्यों ही मुट्ठी को खोल दूँगा 

वह अपने दामन को झाड़ देगी

-अम्मार इक़बाल

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 27 जुलाई 2025

प्रार्थना से प्रेम

वर्षा हो 

अन्न हो

सुख हो

शांति हो

शुभ हो

सुपुत्र हों, सुपुत्रियाँ भी 

संग हो 

विवाह हो

प्रेम हो

प्रेम विवाह हो 

और तलाक न हो !


 - अविनाश मिश्र

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विजया सती के सौजन्य से

शनिवार, 26 जुलाई 2025

दुलारी धिया

पी के घर जाओगी दुलारी धिया 

लाल पालकी में बैठ चुक्के-मुक्के

सपनों का खूब सघन गुच्छा 

भुइया में रखोगी पाँव

महावर रचे

धीरे-धीरे उतरोगी 

सोने की थारी में जेवनार-दुलारी धिया 

पोंछा बन

दिन-भर फर्श पर फिराई जाओगी 

कछारी जाओगी पाट पर 

सूती साड़ी की तरह

पी से नैना ना मिला पाओगी दुलारी धिया 

दुलारी धिया 

छूट जाएँगी सखियाँ-सलेहरें

उड़ासकर अलगनी पर टाँग दी जाओगी 

पी घर में राज करोगी दुलारी धिया 

दुलारी धिया, दिन भर 

धान उसीनने की हँड़िया बन

चौमुहे चूल्हे पर धीकोगी 

अकेले में कहीं छुप के 

मैके की याद में दो-चार धार फोड़ोगी 

सास-ससुर के पाँव धो पीना, दुलारी धिया 

बाबा ने पूरब में ढूँढा

पश्चिम में ढूँढा

तब जाके मिला है तेरे जोग घर

ताले में कई-कई दिनों तक 

बंद कर दी जाओगी, दुलारी धिया 

पूरे मौसम लकड़ी की ढेंकी बन

कूटोगी धान

पुरइन के पात पर पली-बढ़ी दुलारी धिया 


पी घर से निकलोगी

दहेज की लाल रंथी पर

चित्तान लेटे

खोइछे में बाँध देगी

सास-सुहागिन, सवा सेर चावल 

हरदी का टूसा

दूब

पी घर को न बिसारना, दुलारी धिया।


 - बद्रीनारायण

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- विजया सती के सौजन्य से 


शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

अब तक नहीं लिखा

जाने क्या-क्या लिखा अभी तक

लेकिन जो लिखना था हमको, 

अब तक नहीं लिखा। 


किसने सोखे थे सपनों के 

रंग उजाले वाले, 

किसने जगा दिए निद्रा पर

चिंताओं के ताले 

किसके डर से रही काँपती,

मन की दीपशिखा

अब तक नहीं लिखा।


किसके आश्वासन से टूटी

आशाओं की हिम्मत,

किसने कर्म छीनकर हमसे

दे दी खोटी किस्मत

घोर गरीबी का यह रस्ता,

किसने दिया दिखा

अब तक नहीं लिखा।


किसने सत्य, अहिंसा मारे

किसने शांति चुराई

किसने छीनी है वाणी से

शब्दों की अँगड़ाई

भाषा के सीने पर किसने, 

आरा तेज रखा

अब तक नहीं लिखा।

 
- अश्वघोष

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- विजया सती के सौजन्य से

गुरुवार, 24 जुलाई 2025

कल से प्रेम

सुबह तीन बजे उठूँगा 

तानपूरा सुनूँगा 

ध्यान करूँगा 

ऋचाएँ पढूँगा 

रहस्यों पर सोचूँगा 

सत्य को जानूँगा 

प्यार को सोने दूँगा 

उसे जगाऊँगा नहीं 

निशब्द पुकारूँगा 

काली काफी बनाऊँगा-पीऊँगा

सब कुछ बहुत धीमी गति से करूँगा 

इधर-उधर जाता रहूँगा 

केंद्र को केंद्र नहीं रहने दूँगा

इच्छाओं को शर्म से बाधित करूँगा 

जड़ता को श्रम से 

घड़ी से ज्यादा सही चलूँगा 

नई किताबें शुरू करूँगा 

नई कथाएँ 

कम काम लूँगा 

ज्यादा काम करूँगा।


 - अविनाश मिश्र

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- विजया सती के सौजन्य से

बुधवार, 23 जुलाई 2025

मेरे सुग्गे तुम उड़ना


दगा है उड़ना

धोखा है उड़ना

कोई कहे-

छल है, कपट है उड़ना


पर मेरे सुग्गे, तुम उड़ना

तुम उड़ना

पिंजड़ा हिला

सोने की कटोरी गिरा

अनार के दाने छींट

धूप में करके छेद

हवाओं की सिकड़ी बजा

मेरे सुग्गे, तुम उड़ना।


 - बद्रीनारायण

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-विजया सती के सौजन्य से 

मंगलवार, 22 जुलाई 2025

मजदूरी से प्रेम


मैं एक मनुष्य था 

मैं एक कवि था 

मुझमें कहीं एक उपन्यासकार भी था 

लेकिन मुझमें कहीं एक मजदूर भी था


अगर यह मजदूर नहीं होता 

तब मैं भूख से मर जाता।

 

 - अविनाश मिश्र

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-विजया सती के सौजन्य से

सोमवार, 21 जुलाई 2025

मत होना उदास


कुछ जून ने बुना

कुछ जुलाई ने

नदी ने थोड़ा साथ दिया

थोड़ा पहाड़ ने

बुनने में रस्सी मूँज की।


प्रभु की प्रभुताई बाँधी जाएगी

यम की चतुराई 

हाथी का बल

सोने-चाँदी का छल बाँधा जाएगा

बाँधा जाएगा

विषधर का विष 


कुछ पाप बाँधा जाएगा

कुछ झूठ बाँधा जाएगा


रीति तुम चुप रहना

नीति मत होना उदास।


- बद्रीनारायण

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- विजया सती के सौजन्य से

रविवार, 20 जुलाई 2025

अनुकरण से प्रेम


मैंने किसी का अनुकरण नहीं किया 

जिन्होंने किसी का अनुकरण नहीं किया 

मैंने उनका अनुकरण किया


मैं मौलिक नहीं हूँ 

मैंने पूर्णविराम चुराए हैं।


 - अविनाश मिश्र

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संपादकीय चयन 


शनिवार, 19 जुलाई 2025

चौमासा

आषाढ़-सा उठाव
सावन-सा भराव
भादों-सा इकसार
आश्विन-सा अमृत-छिड़काव

चौमासे की तरह
तुम्हारे प्यार के भी
कई ढंग हैं।

- नंदकिशोर आचार्य
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गुरुवार, 17 जुलाई 2025

सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर

सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर
चमकती चिंगारियाँ-सी चकरा रहीं आँखों की पुतलियों में
नज़र पे चिपके हुए हैं कुछ चिकने-चिकने से रौशनी के धब्बे
जो पलकें मूँदूँ तो चुभने लगती हैं रौशनी की सफ़ेद किरचें
मुझे मेरे मखमली अँधेरों की गोद में डाल दो उठाकर
चटकती आँखों पे घुप्प अँधेरों के फाए रख दो
यह रौशनी का उबलता लावा न अंधा कर दे।

- गुलज़ार
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वक़्त का दरपन बूढ़ी आँखें

 

वक़्त का दरपन बूढ़ी आँखें।

उम्र की उतरन बूढ़ी आँखें।


कौन समझ पाएगा पीड़ा

ओढ़े सिहरन बूढ़ी आँखें।


जीवन के सोपान यही हैं

बचपन, यौवन, बूढ़ी आँखें।


चप्पा-चप्पा बिखरी यादें

बाँधे बंधन बूढ़ी आँखें।


टूटा चश्मा घिसी कमानी

चाह की खुरचन बूढ़ी आँखें।


एक इबारत सुख की खातिर

बाँचे कतरन बूढ़ी आँखें।


सपनों में देखा करती हैं

‘वर्षा’-सावन बूढ़ी आँखें।

 

 - वर्षा सिंह

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- संपादकीय चयन 

बुधवार, 16 जुलाई 2025

कबूतर लौटकर नभ से


कबूतर लौटकर नभ से सहमकर बुदबुदाते हैं

वहाँ पर भी किसी बारूद का

षडयंत्र जारी है


हवा में भी

बिछाया जा रहा घातक सुरंगों को

धरा से व्योम तक पहुँचा रहे

कुछ लोग जंगों को


गगन में गंध फैली है किसी नाभिक रसायन की

धरा पर दीखती विध्वंस की

व्यापक तैयारी है


वहाँ पर शांति,

सह-अस्तित्व जैसे शब्द बौने हैं

यहाँ पर सभ्यता के हाथ

एटम के खिलौने हैं


वहाँ से पंचशीलों में लगा घुन साफ़ दिखता है

मिसाइल के बटन से जुड़ गई

किस्मत हमारी है


शांति की आस्थाओं को 

चलो व्यापक समर्थन दें

युद्ध से जल रही भू को

नया उद्दाम जीवन दें


किसी हिरोशिमा की फिर कहीं न राख बन जाए

युद्ध तो युद्ध केवल युद्ध है

विध्वंसकारी है


 - जगदीश पंकज

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- संपादकीय चयन 


मंगलवार, 15 जुलाई 2025

इच्छा

 

मैंने 

हवाओं के छोर से

बाँध दिया

इच्छाओं का दामन


देखती हूँ

वे कहाँ तक जाती हैं।


 - मधु शर्मा

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संपादकीय चयन 



सोमवार, 14 जुलाई 2025

जेठ तपा मधुमास

संदर्भों के होठ सिले हैं

व्याख्या हुई उदास

किस प्रसंग की बात कर रहा

जेठ तपा मधुमास


आँगन की बौराई बिल्ली

तुलसी घेर रही

चींटी बाँध बनाकर गाए

बाढ़ तुम्हारी आस


ऐसी पुरुवा बही रात भर

बादल सुलग गए

पछुआ ने सूरज से पूछा

कहाँ रहोगे आज

    

दूब जली, मेंहदी झुलसाई

दुल्हन सेज सजी

कैसा सावन आने वाला

जिससे लगती लाज


राग गड़ रही, गीत चुभ रहे

सगुन धुआँ के गाँव

आँझ पराती आँसू-आँसू

आँख लगे नाराज

    

आना अबके लगन लगे है

अगन-मनन की ओर

रुँध गई देहरी गगन की

ऐसी है आवाज़ 


चाँद सितारे नाच न पावें

नदी न गाए गीत

झरनों ने संगीत हड़प ली

पर्वत पी गए साज

    

संदर्भों के होठ सिले हैं

व्याख्या हुई उदास

किस प्रसंग की बात कर रहा

जेठ तपा मधुमास


 - संजय तिवारी

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संपादकीय चयन 



रविवार, 13 जुलाई 2025

जहाँ सुख है

जहाँ सुख है
वहीं हम चटककर
टूट जाते हैं बारंबार 

जहाँ दुख है
वहाँ पर एक सुलगन
पिघलाकर हमें
फिर जोड़ देती है।

- अज्ञेय
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शनिवार, 12 जुलाई 2025

इसी काया में मोक्ष

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
इसी से तो मिलना था
पिछले कई जन्मों से।

एक ऐसा आदमी जिसे पाकर
यह देह रोज़ ही जन्मे, रोज़ ही मरे
झरे हरसिंगार की तरह
जिसे पाकर मन
फूलकर कुप्पा हो जाए।

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
अगर पूरी दुनिया अपनी आँखों नहीं देखी
तो भी यह जन्म व्यर्थ नहीं गया।

बहुत दिनों से मैं
किसी को अपना कलेजा
निकालकर दे देना चाहता हूँ
मुद्दतों से मेरे सीने में
भर गया है अपार मर्म
मैं चाहता हूँ कोई
मेरे पास भूखे शिशु की तरह आए
कोई मथ डाले मेरे भीतर का समुद्र
और निकाल ले सारे रतन।

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही
भक्क से बर जाए आँखों में लौ
और लगे कि दीया लेकर खोजने पर ही
मिलेगा धरती पर ऐसा मनुष्य
कि पा गया मैं उसे
जिसे मेरे पुरखे गंगा में नहाकर पाते थे।

बहुत दिनों से मैं
जानना चाहता हूँ
कैसा होता है मन की सुंदरता का मानसरोवर
छूना चाहता हूँ तन की सुंदरता का शिखर
मैं चाहता हूँ मिले कोई ऐसा
जिससे मन हज़ार बहानों से मिलना चाहे।

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
करोड़ों जन्मों के पाप मिट गए
कट गए सारे बंधन
कि मोक्ष मिल गया इसी काया में।

- दिनेश कुशवाह
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

अनुसरण

गाँधी बाबा
आप यह नहीं कह सकते कि
आपकी कोई चीज़
हमने
नहीं अपनाई,

आपकी लाठी
हमें
बहुत पसंद आई।

- देवी प्रसाद मिश्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

स्त्री

कई नदियाँ मरती हैं 
उसके भीतर जाकर 

कोई स्त्री इतनी आसानी से 
समुद्र की तरह खारी नहीं होती 

- किरण 'मर्म'
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विजया सती की पसंद

बुधवार, 9 जुलाई 2025

होते आए घड़े अछूत

होते आए घड़े अछूत
बुझी नहीं है अब तक प्यास
इस जड़ता की जय!

रहे बजाते ताली-थाली
डाल बुद्धि पर ताला
नहीं करेंगे साफ़, क़सम ली
जाति-धर्म का जाला

हमने पाले अहम अकूत
भेद-भाव के इसी अनय पर
टूटी जीवन-लय!

दुत्कारों के वही कथानक
गिने-चुने निर्देशक
पीढ़ी-दर-पीढ़ी झेली हैं
पीड़ाएँ बन याचक

दर्द नहीं यह सद्य प्रसूत
एक घड़ा क्या सबके मालिक
इसका क्या आशय!

- अनामिका सिंह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 8 जुलाई 2025

विरासत

वो कहानियाँ सुनाती थी 
जाने क्या था उसके सुनाने में 
आज तक कानों में सुनाई दे रही हैं 

जब कहती मैं, अरे इत्ती छोटी, और सुनाओ 
तो वह कहती, 
असली कहानी, कहानी कह देने के बाद शुरू होती है और कभी ख़त्म नहीं होती 

जैसे चाँद निकलता है बादलों की ओट से 
हर बार पूरा ताज़ा और भरपूर सफ़ेद 

ज्यों-ज्यों उम्र बीत रही है 
परतें खुलती चली जा रही हैं 
समझ आता है, सही कहती थी वह

शेर-चूहे की कहानी में
बात शेर की नहीं, चूहे की नहीं 
शेर और चूहा होने की थी 
शेर बस शेर ही नहीं, चूहा भी था - जब जाल में था 
चूहा, चूहा ही नहीं, शेर भी था - जब जाल कुतर रहा था 
समय था, समय का फेर था 

रानी सुरुचि ने ध्रुव को उसके पिता की गोद से उतारा 
माँ सुनीति विकल नहीं हुई 
बोली, पिता की गोद से भी बड़ी गोद है
तपस्या से मिलेगी 
सुनीति जानती थी, 
श्रम से अर्जित किया हुआ स्थान कोई छीन नहीं सकता 
ध्रुव है- स्थिर, अटल 
श्रम का प्रतिफल है 

कबूतर फँस गए थे 
और मिलकर ले उड़े थे जाल
साथ उड़ने के लिए फँसना शर्त नहीं 
साथ उड़ पाना कला है, हासिल है 

कमाल यह नहीं था कि अर्जुन ने लक्ष्य भेद दिया 
वह तो कौशल था
कमाल यह था कि उसे अपना लक्ष्य पता था 

वह नहीं है अब 
उसकी परतदार कहानियाँ हैं 
उसकी कहानियों के क़िरदार
मेरी विरासत हैं

- ऋचा जैन
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अनूप भार्गव की पसंद 

सोमवार, 7 जुलाई 2025

विश्वरूप

मत मर्म-व्यथा छूने, विद्युत बन, आओ;
बन निबिड़-श्याम घन, प्राणों में छा जाओ।

किरणों की उलझन क्षणिक, न बनो सवेरा;
बन निशा डुबा दो छवि में जीवन मेरा।

अस्थिर जीवन-कण बन न नयन ललचाओ;
बन शांत मरण-सागर असीम, लहराओ।

जो टूट पड़े क्षण में विनाश-इंगित पर,
वह तारक बन मत ध्यान भंग कर जाओ;

जिसकी अंचल-छाया में सोवे त्रिभुवन,
वह अंतहीन आकाश नील बन आओ।

फिर उसी रूप से नयनों को न भुलाओ;
अभिनव अपूर्व छवि जीवन को दिखलाओ।

दर्शन-सुख की परिभाषा नई बनाओ;
लघु दृग-तारों में नहीं, हृदय में आओ।

वह विश्वरूप बन आओ, मेरे सुंदर,
जो रेखाओं का बंदी बने न पट पर;

जिसको भर रखने को तपकर जीवन-भर
उर बने एक-दिन अंतहीन नीलांबर।

अनुभव को नयनों तक सीमित न बनाओ;
छवि से जीवन के अणु-अणु को भर जाओ।

हर झाँकी में विस्तृततर बनकर आओ;
जग के प्राणों की प्रतिक्षण परिधि बढ़ाओ।

- जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'
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रविवार, 6 जुलाई 2025

वंशी करो मुखर


गूँज उठे युग की साँसों में

नव जीवन का स्वर।

 

सदियों की सोई मानवता

ज्योति नयन खोले,

मिटे कलुष तम तोम

प्रभाती स्वर्णरंग घोले!

उतरें देव स्वर्ग से

मधु के कलश लिए भू पर।

वंशी करो मुखर। 

 

वाणी की वाणी पर

शाश्वत सरगम लहराये,

नये स्वरों में नये भाव भर

कवि का मन गाये!

फूटें जड़ चट्टानों से

रस के चेतन निर्झर।

वंशी करो मुखर

 

-    डॉ० रवींद्र भ्रमर 

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 5 जुलाई 2025

हवा से कह दो।

घर में अभी मुखौटों वाले

चेहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

अभी झरोखों से दीवारें

तन से मन से दूर नहीं हैं

हैं मजबूत इरादों वाली

लेकिन दिल से क्रूर नहीं हैं

आपस में मतभेद किसी में

गहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

आने जाने और नाचने

गाने पर प्रतिबंध नहीं है

हाँ उसका सम्मान न होगा

जिसमें कोई गंध नहीं है

खनक नृत्य की सुनने वाले

बहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

आँगन में तुलसी का चौरा

बहुत ठीक है दुखी नहीं है

सबसे बात कर रहा हँसकर

सुगना अंतर्मुखी नहीं है

अभी खिड़कियाँ खुली हुई हैं

ठहरे नहीं 

हवा से कह दो। 


- मयंक श्रीवास्तव


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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

गीत – गली के वासी

हमें न भायी

जग की माया

हम हैं गीत- गली के वासी

 

वहाँ, साधुओं

सिर्फ नेह की

बजती है शहनाई

जो लय हमने साधी उस पर

वह है होती नहीं पराई

 

गीत – गली में ही

काबा है  

गीत – गली में ही है कासी

 

वह दुलराते

हर सूरज को

गीत – गली की हमें कसम है

उसमें जाते ही मिट जाता

हाट- लाट का सारा भ्रम है

 

वहाँ साँस

जो छवियाँ रचती

होती नहीं कभी वे बासी

 

कल्पवृक्ष है

उसी गली में

जिसके नीचे देव विराजे

लगते हमें भिखारी सारे

दुनिया के राजे - महराजे

 

महिमा

गीत – गली की ऐसी

कभी न रहतीं साँसें प्यासी


-कुमार रवींद्र

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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

   

गुरुवार, 3 जुलाई 2025

शब्द

 शब्द

शब्द अगर आना तो –                                 

कोई शुभ्र अर्थ लाना,

तुमको रच, अपने गीतों का

कोष सँवारूँगा।

अर्थ कि वह ताजा – टटका

जो मन पीड़ा हरदे

हृदय- कुंड खारे पानी को

जो मीठा कर दे

 

मित्र सार्थक बनकर

मन के पन्नों छा जाना,

मिले भाव- नवनीत, सृजन की-

रई बिलोड़ूँगा।

दीन- दुखी कर दर्दों का-

मरहम लाना भाई

घीसू’ हरषे और असीसे

जुमम्न’ की माई

मुल्ला- पंडित गले मिलें

वह युक्ति साथ लाना,

आपस में जो पड़ी बैर-

की, गाँठें खोलूँगा।

वंचित को हो चना – चबैना

भूखा पेट भरे

सन्नाटों को चीर – चिरइया

होकर मुक्त उड़े

बच्चों की बेलौस हँसी

अक्षर – अक्षर दमके,

अपनी कलम उतार, धुंध के

बादल छाटूँगा। 

 

- श्यामलाल ‘शामी’

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


बुधवार, 2 जुलाई 2025

निज़ाम बदल जाने से नहीं बदल जाते मुक़ाम

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाता है उनका मुक़ाम
जो साथ रहते हैं इक ज़माने से

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाती है धूप
क्या छोड़ देती है किसी आँगन को

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाता है पानी का बहाव
क्या किसी मुहल्ले से चला जाता है दूर

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाती है हवा
क्या किसी के साथ चलने से कर देती है इनकार

निज़ाम बदल जाने से
क्या किसी पर कम
किसी पर ज़्यादा झुक आता है आसमान

निज़ाम बदल जाने से
क्या ज़्यादा घूमने लगती है पृथ्वी
किसी के पक्ष में

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाते हैं देवता
वे तो सबकी सुबह और शाम के हैं
कहाँ किसी निज़ाम के हैं

निज़ाम बदल जाने से
नहीं बदल जाते जीने के काम
नहीं बदल जाते किसी के नाम

- ध्रुव शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 1 जुलाई 2025

कुंभन बन पाना और बात है

गीत बाँचकर
मंचों पर
ताली बजवाना
और बात है
पर, गीतों में
पानी को
पानी कह पाना और बात है

सुविधाएँ
अच्छी लगती हैं
सभी चाहते हैं सुविधाएँ
सुविधा लेकर
सुविधाओं का
मोल चुकाना और बात है
गीत बाँचकर...

यूँ तो
सबकी देखा-देखी
उसने भी ऐलान कर दिया
पर
अपने ही निर्णय पर
टिककर रह पाना और बात है
गीत बाँचकर...

पदक और पैसों की
ढेरी पर चढ़कर
ऊँचे लगते हैं
लेकिन
युग-कवियों का फिर
कुंभन बन पाना और बात है
गीत बाँचकर...

- जगदीश व्योम
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 30 जून 2025

कवि नहीं कविता बड़ी हो

इस तरह तू लिख
कि लिख के कवि नहीं कविता बड़ी हो

अपने बूते पर खड़ी हो
जो ज़माने से लड़ी हो
ऐसी भाषा
जैसी भाषा भीड़ के पल्ले पड़ी हो

ह से हाथी
ह से हौदा
क़द नहीं क़ीमत का सौदा
अपने खेतों पर लिखा है हमने अमरीकी मसौदा

ऐसी क्या दौलत कि बच्चू प्यार में भी हड़बड़ी हो

धूप में सीझा हो सावन
भूख के आगे पसावन
दूध-सा गाढ़ा पसीना
और सपनों का जमावन

हर घड़ी लगती हो जैसे, बस, यही अंतिम घड़ी हो

लिख कि धरती मुस्कुराए
दुख का सीना चिटक जाए
रक्त में स्नान करने वाला
यादों में नहाए

प्यास के सहरा में जैसे कोई शीतल बावड़ी हो

इस तरह तू लिख कि लिख के कवि नहीं
कविता बड़ी हो

- देवेंद्र आर्य
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 29 जून 2025

लगता है जाने पर मेरे

आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ़ तुम्हारे दृग में
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!
 
मैं आया तो चारण-जैसा
गाने लगा तुम्हारा आँगन;
हँसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी
तुम चुपचाप खड़े किस कारण?
मुझको द्वारे तक पहुँचाने सब तो आए, तुम्हीं न आए,
लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे!
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

मौन तुम्हारा प्रश्नचिह्न है, 
पूछ रहे शायद कैसा हूँ 
कुछ-कुछ चातक से मिलता हूँ
कुछ-कुछ बादल के जैसा हूँ; 
मेरा गीत सुना सब जागे, तुमको जैसे नींद आ गई, 
लगता मौन प्रतीक्षा में तुम सारी रात नहीं सोओगे! 
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

परिचय से पहले ही बोलो, 
उलझे किस ताने-बाने में?
तुम शायद पथ देख रहे थे, 
मुझको देर हुई आने में;
जगभर ने आशीष पठाए, तुमने कोई शब्द न भेजा,
लगता है तुम मन-बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

- रामावतार त्यागी
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अनूप भार्गव की पसंद 

शनिवार, 28 जून 2025

अकेला पानी

अपने ही अथाह में
खोजता है अकेला पानी
छिपने की जगह रेत में

रेत नहीं छिपाती उसे
ठेलती रहती है गहराई की ओर

रेत से पानी
पानी से रेत
मिल रहे हैं ऐसे ही
न जाने कब से इसी तरह
बचाए हुए अपना प्रेम

- ध्रुव शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 27 जून 2025

डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी का खाना

जिस चाव से विश्वनाथ जी खाते हैं पकवान
उसी चाव से खाते हैं नमक और रोटी
प्याज और मिर्च के साथ
चटनी देखते ही उनका चोला मगन हो जाता है ।

इस तरह कि उन्हें खाता हुआ देखकर
कुबेर के मुँह में पानी आ जाए
डॉक्टर अपनी हिदायतें भूल जाएँ
मंदाग्नि के रोगी की भूख खुल जाए
कुछ ऐसा कि उन्हें खिलाने वाला
उन्हें खाता हुआ देखकर ही अघा जाए ।
मुँह में एक निवाला गया नहीं कि बस
सिर हिला हौले से ‘वाह’
जैसे किसी ने बहुत सलीके से उन्हें
ग़ालिब का कोई शेर सुना दिया हो।
थाली का एक-एक चावल अँगुलियों से
उठाते हैं अक्षत की तरह
हाथ से खाते हैं भात
जैसे चम्मच से चावल खाना
मध्यस्थ के माध्यम से प्रेमिका का चुंबन लेना हो।

रस की उद्भावना में डूबे भरत से
कविता के अध्यापक विश्वनाथ जी ने
सीखा होगा शायद बातों-बातों में भी
व्यंजनों का रस लेना।

रोटी-दाल-भात-तरकारी
पूरी-पराठा-रायता-चटनी
दही बड़े और भरवा बैंगन
इडली-डोसा-चाट-समोसा
ज़रा इनका उच्चारण तो कीजिए
आप भी आदमी हो जाएँगे।

अगर अन्न-जल, भूख-प्यास न होते
तो कितनी उबाऊ होती यह दुनिया
अगर दुनिया में खाने-पीने की चीज़ें न होतीं
तो जीभ को राम कहने में भी रस नहीं मिलता।

विश्वनाथ जी का खाना देखकर मन करता है कि
आज बीवी से कहें कि वह
मटर का निमोना और आलू का चोखा बनाए 
जिसे खाया जा सके छककर।

बाबा किसी ग़रीब बाभन के बेटे रहे होंगे
अन्यथा अमीरी में पले हुए
किसी भी आदमी की जीभ पर
नहीं चढ़ सकता अन्नमात्र का ऐसा स्वाद
उनके खाने की तुलना ग़रीब मजूर या
हलवाहे की, खेत पर खुलने वाली
भूख से ही की जा सकती है।

अन्यथा जिनके पास विकल्प हैं स्वाद के
वे नहीं जानते भूख का स्वाद।

- दिनेश कुशवाह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 26 जून 2025

बेटियाँ जब विदा होती हैं

बेटियाँ जब विदा होती हैं
उदासी की बारिश में
भीग जाता है समूचा घर

घर के हर कोने में टँगा
बेटियों की अनुपस्थिति का साइनबोर्ड
दूर से ही चमकता है

जैसे रेगिस्तान में चमकती है
दूर-दूर तक 
सिर्फ़ रेत ही रेत। 

- जसवीर त्यागी
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विजया सती के सौजन्य से 

बुधवार, 25 जून 2025

अंतहीन हैं मेरी इच्छाएँ

समय बहुत कम है मेरे पास
और अंतहीन हैं मेरी इच्छाएँ

गोरैया-सा चहकना चाहती हूँ मैं
चाहती हूँ तितली की तरह उड़ना
और सारा रस पी लेना चाहती हूँ जीवन का

नाचना चाहती हूँ इस कदर कि
थक कर हो रहूँ निढाल

एक मछली की तरह तैरना चाहती हूँ
पानी की गहराइयों में

सबसे ऊँचे शिखर से देखना चाहती हूँ संसार
बहुत गहरे में कहीं गुम हो रहना चाहती हूँ मैं

इस कदर टूटकर करना चाहती हूँ प्यार 
कि बाकी न रहे
मेरा और तुम्हारा नाम-ओ-निशान
इस कदर होना चाहती हूँ मुक्त 
कि लाख खोजो
मुझे पा न सको तुम
फिर
कभी भी कहीं भी

- देवयानी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 24 जून 2025

कम नहीं हुआ है किसी पर मरने का मूल्य

बहुत छोटी हो गई है हमारी दुनिया
बहुत कम हुई है हमारी दुनिया की दूरी
पर हमारा भय कम नहीं हुआ है।

अलंघ्य कुछ भी नहीं है हमारी दुनिया में आज
पर वहीं की वहीं खड़ी है दो कमरों के बीच
दीवार दुर्भेद्य
जिसे दो जन हटाना चाहते हैं पूरे मन से
जबकि अभी-अभी गिरी है बर्लिन की दीवार।

देशों ने चखा है स्वतंत्रता का स्वाद
पर हमारे मुँह का कसैलापन कम नहीं हुआ है।

आँखों का कोना सहलाने जितनी मुलायमियत से
छूते ही कुछ बटनें
एक आदमी बोलता है हैलो
सात समुंदर पार
पर उस आदमी के लिए
हमारा तरसना कम नहीं हुआ।

आपसी बातचीत बढ़ी है दुनिया में
पर कम नहीं हुए हैं प्रश्न
दुनिया में आदान-प्रदान बढ़ा है
पर कम नहीं हुए हैं युद्ध।
युद्ध के सारे हथियार बदले हैं
पर एक चीज़ बिलकुल नहीं बदली
कि युद्ध में अब भी मरता है आदमी।

मारने की दर बढ़ी है दुनिया में
पर
कम नहीं हुआ है किसी पर मरने का मूल्य।

- दिनेश कुशवाह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 23 जून 2025

बाँसुरी

मैं बाँस का एक टुकड़ा था
तुमने मुझे यातना देकर
बाँसुरी बनाया

मैं तुम्हारे आनंद के लिए
बजता रहा
फिर रख दिया जाता रहा
घर के अँधेरे कोने में

जब तुम्हें ख़ुश होना होता था
तुम मुझे बजाते थे

मेरे रोम-रोम में पिघलती थीं
तुम्हारी साँसें
मैं दर्द से भर जाया करता था

तुमने मुझे बाँस के कोठ से
अलग किया
अपने ओठों से लगाया

मैं इस पीड़ा को भूल गया कि
मेरे अंदर कितने छेद हैं

मैं तुम्हारे अकेलेपन की बाँसुरी हूँ
तुम नहीं बजाते हो तो भी
मैं आदतन बज जाया करता हूँ।

- स्वप्निल श्रीवास्तव
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विजया सती की पसंद 

रविवार, 22 जून 2025

ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है

ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है
बहार आने की सूरत निकल भी सकती है

जला के शम्अ अब उठ-उठके देखना छोड़ो
वो ज़िम्मेदारी से अज़-ख़ुद पिघल भी सकती है

है शर्त सुब्ह के रस्ते से हो के शाम आए
तो रात उस को सहर में बदल भी सकती है

ज़रा सँभल के जलाना अक़ीदतों के चराग़
भड़क न जाएँ कि मसनद ये जल भी सकती है

अभी तो चाक पे जारी है रक़्स मिट्टी का
अभी कुम्हार की निय्यत बदल भी सकती है

ये आफ़्ताब से कह दो कि फ़ासला रक्खे
तपिश से बर्फ़ की दीवार गल भी सकती है

तिरे न आने की तशरीह कुछ ज़रूरी नहीं
कि तेरे आते ही दुनिया बदल भी सकती है

कोई ज़रूरी नहीं वो ही दिल को शाद करे
'अलीना' आप तबीअत बहल भी सकती है

- अलीना इतरत
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद