शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

अनुसरण

गाँधी बाबा
आप यह नहीं कह सकते कि
आपकी कोई चीज़
हमने
नहीं अपनाई,

आपकी लाठी
हमें
बहुत पसंद आई।

- देवी प्रसाद मिश्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

स्त्री

कई नदियाँ मरती हैं 
उसके भीतर जाकर 

कोई स्त्री इतनी आसानी से 
समुद्र की तरह खारी नहीं होती 

- किरण 'मर्म'
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विजया सती की पसंद

बुधवार, 9 जुलाई 2025

होते आए घड़े अछूत

होते आए घड़े अछूत
बुझी नहीं है अब तक प्यास
इस जड़ता की जय!

रहे बजाते ताली-थाली
डाल बुद्धि पर ताला
नहीं करेंगे साफ़, क़सम ली
जाति-धर्म का जाला

हमने पाले अहम अकूत
भेद-भाव के इसी अनय पर
टूटी जीवन-लय!

दुत्कारों के वही कथानक
गिने-चुने निर्देशक
पीढ़ी-दर-पीढ़ी झेली हैं
पीड़ाएँ बन याचक

दर्द नहीं यह सद्य प्रसूत
एक घड़ा क्या सबके मालिक
इसका क्या आशय!

- अनामिका सिंह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 8 जुलाई 2025

विरासत

वो कहानियाँ सुनाती थी 
जाने क्या था उसके सुनाने में 
आज तक कानों में सुनाई दे रही हैं 

जब कहती मैं, अरे इत्ती छोटी, और सुनाओ 
तो वह कहती, 
असली कहानी, कहानी कह देने के बाद शुरू होती है और कभी ख़त्म नहीं होती 

जैसे चाँद निकलता है बादलों की ओट से 
हर बार पूरा ताज़ा और भरपूर सफ़ेद 

ज्यों-ज्यों उम्र बीत रही है 
परतें खुलती चली जा रही हैं 
समझ आता है, सही कहती थी वह

शेर-चूहे की कहानी में
बात शेर की नहीं, चूहे की नहीं 
शेर और चूहा होने की थी 
शेर बस शेर ही नहीं, चूहा भी था - जब जाल में था 
चूहा, चूहा ही नहीं, शेर भी था - जब जाल कुतर रहा था 
समय था, समय का फेर था 

रानी सुरुचि ने ध्रुव को उसके पिता की गोद से उतारा 
माँ सुनीति विकल नहीं हुई 
बोली, पिता की गोद से भी बड़ी गोद है
तपस्या से मिलेगी 
सुनीति जानती थी, 
श्रम से अर्जित किया हुआ स्थान कोई छीन नहीं सकता 
ध्रुव है- स्थिर, अटल 
श्रम का प्रतिफल है 

कबूतर फँस गए थे 
और मिलकर ले उड़े थे जाल
साथ उड़ने के लिए फँसना शर्त नहीं 
साथ उड़ पाना कला है, हासिल है 

कमाल यह नहीं था कि अर्जुन ने लक्ष्य भेद दिया 
वह तो कौशल था
कमाल यह था कि उसे अपना लक्ष्य पता था 

वह नहीं है अब 
उसकी परतदार कहानियाँ हैं 
उसकी कहानियों के क़िरदार
मेरी विरासत हैं

- ऋचा जैन
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अनूप भार्गव की पसंद 

सोमवार, 7 जुलाई 2025

विश्वरूप

मत मर्म-व्यथा छूने, विद्युत बन, आओ;
बन निबिड़-श्याम घन, प्राणों में छा जाओ।

किरणों की उलझन क्षणिक, न बनो सवेरा;
बन निशा डुबा दो छवि में जीवन मेरा।

अस्थिर जीवन-कण बन न नयन ललचाओ;
बन शांत मरण-सागर असीम, लहराओ।

जो टूट पड़े क्षण में विनाश-इंगित पर,
वह तारक बन मत ध्यान भंग कर जाओ;

जिसकी अंचल-छाया में सोवे त्रिभुवन,
वह अंतहीन आकाश नील बन आओ।

फिर उसी रूप से नयनों को न भुलाओ;
अभिनव अपूर्व छवि जीवन को दिखलाओ।

दर्शन-सुख की परिभाषा नई बनाओ;
लघु दृग-तारों में नहीं, हृदय में आओ।

वह विश्वरूप बन आओ, मेरे सुंदर,
जो रेखाओं का बंदी बने न पट पर;

जिसको भर रखने को तपकर जीवन-भर
उर बने एक-दिन अंतहीन नीलांबर।

अनुभव को नयनों तक सीमित न बनाओ;
छवि से जीवन के अणु-अणु को भर जाओ।

हर झाँकी में विस्तृततर बनकर आओ;
जग के प्राणों की प्रतिक्षण परिधि बढ़ाओ।

- जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'
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रविवार, 6 जुलाई 2025

वंशी करो मुखर


गूँज उठे युग की साँसों में

नव जीवन का स्वर।

 

सदियों की सोई मानवता

ज्योति नयन खोले,

मिटे कलुष तम तोम

प्रभाती स्वर्णरंग घोले!

उतरें देव स्वर्ग से

मधु के कलश लिए भू पर।

वंशी करो मुखर। 

 

वाणी की वाणी पर

शाश्वत सरगम लहराये,

नये स्वरों में नये भाव भर

कवि का मन गाये!

फूटें जड़ चट्टानों से

रस के चेतन निर्झर।

वंशी करो मुखर

 

-    डॉ० रवींद्र भ्रमर 

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 5 जुलाई 2025

हवा से कह दो।

घर में अभी मुखौटों वाले

चेहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

अभी झरोखों से दीवारें

तन से मन से दूर नहीं हैं

हैं मजबूत इरादों वाली

लेकिन दिल से क्रूर नहीं हैं

आपस में मतभेद किसी में

गहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

आने जाने और नाचने

गाने पर प्रतिबंध नहीं है

हाँ उसका सम्मान न होगा

जिसमें कोई गंध नहीं है

खनक नृत्य की सुनने वाले

बहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

आँगन में तुलसी का चौरा

बहुत ठीक है दुखी नहीं है

सबसे बात कर रहा हँसकर

सुगना अंतर्मुखी नहीं है

अभी खिड़कियाँ खुली हुई हैं

ठहरे नहीं 

हवा से कह दो। 


- मयंक श्रीवास्तव


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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

गीत – गली के वासी

हमें न भायी

जग की माया

हम हैं गीत- गली के वासी

 

वहाँ, साधुओं

सिर्फ नेह की

बजती है शहनाई

जो लय हमने साधी उस पर

वह है होती नहीं पराई

 

गीत – गली में ही

काबा है  

गीत – गली में ही है कासी

 

वह दुलराते

हर सूरज को

गीत – गली की हमें कसम है

उसमें जाते ही मिट जाता

हाट- लाट का सारा भ्रम है

 

वहाँ साँस

जो छवियाँ रचती

होती नहीं कभी वे बासी

 

कल्पवृक्ष है

उसी गली में

जिसके नीचे देव विराजे

लगते हमें भिखारी सारे

दुनिया के राजे - महराजे

 

महिमा

गीत – गली की ऐसी

कभी न रहतीं साँसें प्यासी


-कुमार रवींद्र

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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

   

गुरुवार, 3 जुलाई 2025

शब्द

 शब्द

शब्द अगर आना तो –                                 

कोई शुभ्र अर्थ लाना,

तुमको रच, अपने गीतों का

कोष सँवारूँगा।

अर्थ कि वह ताजा – टटका

जो मन पीड़ा हरदे

हृदय- कुंड खारे पानी को

जो मीठा कर दे

 

मित्र सार्थक बनकर

मन के पन्नों छा जाना,

मिले भाव- नवनीत, सृजन की-

रई बिलोड़ूँगा।

दीन- दुखी कर दर्दों का-

मरहम लाना भाई

घीसू’ हरषे और असीसे

जुमम्न’ की माई

मुल्ला- पंडित गले मिलें

वह युक्ति साथ लाना,

आपस में जो पड़ी बैर-

की, गाँठें खोलूँगा।

वंचित को हो चना – चबैना

भूखा पेट भरे

सन्नाटों को चीर – चिरइया

होकर मुक्त उड़े

बच्चों की बेलौस हँसी

अक्षर – अक्षर दमके,

अपनी कलम उतार, धुंध के

बादल छाटूँगा। 

 

- श्यामलाल ‘शामी’

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


बुधवार, 2 जुलाई 2025

निज़ाम बदल जाने से नहीं बदल जाते मुक़ाम

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाता है उनका मुक़ाम
जो साथ रहते हैं इक ज़माने से

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाती है धूप
क्या छोड़ देती है किसी आँगन को

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाता है पानी का बहाव
क्या किसी मुहल्ले से चला जाता है दूर

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाती है हवा
क्या किसी के साथ चलने से कर देती है इनकार

निज़ाम बदल जाने से
क्या किसी पर कम
किसी पर ज़्यादा झुक आता है आसमान

निज़ाम बदल जाने से
क्या ज़्यादा घूमने लगती है पृथ्वी
किसी के पक्ष में

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाते हैं देवता
वे तो सबकी सुबह और शाम के हैं
कहाँ किसी निज़ाम के हैं

निज़ाम बदल जाने से
नहीं बदल जाते जीने के काम
नहीं बदल जाते किसी के नाम

- ध्रुव शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 1 जुलाई 2025

कुंभन बन पाना और बात है

गीत बाँचकर
मंचों पर
ताली बजवाना
और बात है
पर, गीतों में
पानी को
पानी कह पाना और बात है

सुविधाएँ
अच्छी लगती हैं
सभी चाहते हैं सुविधाएँ
सुविधा लेकर
सुविधाओं का
मोल चुकाना और बात है
गीत बाँचकर...

यूँ तो
सबकी देखा-देखी
उसने भी ऐलान कर दिया
पर
अपने ही निर्णय पर
टिककर रह पाना और बात है
गीत बाँचकर...

पदक और पैसों की
ढेरी पर चढ़कर
ऊँचे लगते हैं
लेकिन
युग-कवियों का फिर
कुंभन बन पाना और बात है
गीत बाँचकर...

- जगदीश व्योम
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 30 जून 2025

कवि नहीं कविता बड़ी हो

इस तरह तू लिख
कि लिख के कवि नहीं कविता बड़ी हो

अपने बूते पर खड़ी हो
जो ज़माने से लड़ी हो
ऐसी भाषा
जैसी भाषा भीड़ के पल्ले पड़ी हो

ह से हाथी
ह से हौदा
क़द नहीं क़ीमत का सौदा
अपने खेतों पर लिखा है हमने अमरीकी मसौदा

ऐसी क्या दौलत कि बच्चू प्यार में भी हड़बड़ी हो

धूप में सीझा हो सावन
भूख के आगे पसावन
दूध-सा गाढ़ा पसीना
और सपनों का जमावन

हर घड़ी लगती हो जैसे, बस, यही अंतिम घड़ी हो

लिख कि धरती मुस्कुराए
दुख का सीना चिटक जाए
रक्त में स्नान करने वाला
यादों में नहाए

प्यास के सहरा में जैसे कोई शीतल बावड़ी हो

इस तरह तू लिख कि लिख के कवि नहीं
कविता बड़ी हो

- देवेंद्र आर्य
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 29 जून 2025

लगता है जाने पर मेरे

आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ़ तुम्हारे दृग में
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!
 
मैं आया तो चारण-जैसा
गाने लगा तुम्हारा आँगन;
हँसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी
तुम चुपचाप खड़े किस कारण?
मुझको द्वारे तक पहुँचाने सब तो आए, तुम्हीं न आए,
लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे!
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

मौन तुम्हारा प्रश्नचिह्न है, 
पूछ रहे शायद कैसा हूँ 
कुछ-कुछ चातक से मिलता हूँ
कुछ-कुछ बादल के जैसा हूँ; 
मेरा गीत सुना सब जागे, तुमको जैसे नींद आ गई, 
लगता मौन प्रतीक्षा में तुम सारी रात नहीं सोओगे! 
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

परिचय से पहले ही बोलो, 
उलझे किस ताने-बाने में?
तुम शायद पथ देख रहे थे, 
मुझको देर हुई आने में;
जगभर ने आशीष पठाए, तुमने कोई शब्द न भेजा,
लगता है तुम मन-बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

- रामावतार त्यागी
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अनूप भार्गव की पसंद 

शनिवार, 28 जून 2025

अकेला पानी

अपने ही अथाह में
खोजता है अकेला पानी
छिपने की जगह रेत में

रेत नहीं छिपाती उसे
ठेलती रहती है गहराई की ओर

रेत से पानी
पानी से रेत
मिल रहे हैं ऐसे ही
न जाने कब से इसी तरह
बचाए हुए अपना प्रेम

- ध्रुव शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 27 जून 2025

डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी का खाना

जिस चाव से विश्वनाथ जी खाते हैं पकवान
उसी चाव से खाते हैं नमक और रोटी
प्याज और मिर्च के साथ
चटनी देखते ही उनका चोला मगन हो जाता है ।

इस तरह कि उन्हें खाता हुआ देखकर
कुबेर के मुँह में पानी आ जाए
डॉक्टर अपनी हिदायतें भूल जाएँ
मंदाग्नि के रोगी की भूख खुल जाए
कुछ ऐसा कि उन्हें खिलाने वाला
उन्हें खाता हुआ देखकर ही अघा जाए ।
मुँह में एक निवाला गया नहीं कि बस
सिर हिला हौले से ‘वाह’
जैसे किसी ने बहुत सलीके से उन्हें
ग़ालिब का कोई शेर सुना दिया हो।
थाली का एक-एक चावल अँगुलियों से
उठाते हैं अक्षत की तरह
हाथ से खाते हैं भात
जैसे चम्मच से चावल खाना
मध्यस्थ के माध्यम से प्रेमिका का चुंबन लेना हो।

रस की उद्भावना में डूबे भरत से
कविता के अध्यापक विश्वनाथ जी ने
सीखा होगा शायद बातों-बातों में भी
व्यंजनों का रस लेना।

रोटी-दाल-भात-तरकारी
पूरी-पराठा-रायता-चटनी
दही बड़े और भरवा बैंगन
इडली-डोसा-चाट-समोसा
ज़रा इनका उच्चारण तो कीजिए
आप भी आदमी हो जाएँगे।

अगर अन्न-जल, भूख-प्यास न होते
तो कितनी उबाऊ होती यह दुनिया
अगर दुनिया में खाने-पीने की चीज़ें न होतीं
तो जीभ को राम कहने में भी रस नहीं मिलता।

विश्वनाथ जी का खाना देखकर मन करता है कि
आज बीवी से कहें कि वह
मटर का निमोना और आलू का चोखा बनाए 
जिसे खाया जा सके छककर।

बाबा किसी ग़रीब बाभन के बेटे रहे होंगे
अन्यथा अमीरी में पले हुए
किसी भी आदमी की जीभ पर
नहीं चढ़ सकता अन्नमात्र का ऐसा स्वाद
उनके खाने की तुलना ग़रीब मजूर या
हलवाहे की, खेत पर खुलने वाली
भूख से ही की जा सकती है।

अन्यथा जिनके पास विकल्प हैं स्वाद के
वे नहीं जानते भूख का स्वाद।

- दिनेश कुशवाह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 26 जून 2025

बेटियाँ जब विदा होती हैं

बेटियाँ जब विदा होती हैं
उदासी की बारिश में
भीग जाता है समूचा घर

घर के हर कोने में टँगा
बेटियों की अनुपस्थिति का साइनबोर्ड
दूर से ही चमकता है

जैसे रेगिस्तान में चमकती है
दूर-दूर तक 
सिर्फ़ रेत ही रेत। 

- जसवीर त्यागी
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विजया सती के सौजन्य से 

बुधवार, 25 जून 2025

अंतहीन हैं मेरी इच्छाएँ

समय बहुत कम है मेरे पास
और अंतहीन हैं मेरी इच्छाएँ

गोरैया-सा चहकना चाहती हूँ मैं
चाहती हूँ तितली की तरह उड़ना
और सारा रस पी लेना चाहती हूँ जीवन का

नाचना चाहती हूँ इस कदर कि
थक कर हो रहूँ निढाल

एक मछली की तरह तैरना चाहती हूँ
पानी की गहराइयों में

सबसे ऊँचे शिखर से देखना चाहती हूँ संसार
बहुत गहरे में कहीं गुम हो रहना चाहती हूँ मैं

इस कदर टूटकर करना चाहती हूँ प्यार 
कि बाकी न रहे
मेरा और तुम्हारा नाम-ओ-निशान
इस कदर होना चाहती हूँ मुक्त 
कि लाख खोजो
मुझे पा न सको तुम
फिर
कभी भी कहीं भी

- देवयानी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 24 जून 2025

कम नहीं हुआ है किसी पर मरने का मूल्य

बहुत छोटी हो गई है हमारी दुनिया
बहुत कम हुई है हमारी दुनिया की दूरी
पर हमारा भय कम नहीं हुआ है।

अलंघ्य कुछ भी नहीं है हमारी दुनिया में आज
पर वहीं की वहीं खड़ी है दो कमरों के बीच
दीवार दुर्भेद्य
जिसे दो जन हटाना चाहते हैं पूरे मन से
जबकि अभी-अभी गिरी है बर्लिन की दीवार।

देशों ने चखा है स्वतंत्रता का स्वाद
पर हमारे मुँह का कसैलापन कम नहीं हुआ है।

आँखों का कोना सहलाने जितनी मुलायमियत से
छूते ही कुछ बटनें
एक आदमी बोलता है हैलो
सात समुंदर पार
पर उस आदमी के लिए
हमारा तरसना कम नहीं हुआ।

आपसी बातचीत बढ़ी है दुनिया में
पर कम नहीं हुए हैं प्रश्न
दुनिया में आदान-प्रदान बढ़ा है
पर कम नहीं हुए हैं युद्ध।
युद्ध के सारे हथियार बदले हैं
पर एक चीज़ बिलकुल नहीं बदली
कि युद्ध में अब भी मरता है आदमी।

मारने की दर बढ़ी है दुनिया में
पर
कम नहीं हुआ है किसी पर मरने का मूल्य।

- दिनेश कुशवाह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 23 जून 2025

बाँसुरी

मैं बाँस का एक टुकड़ा था
तुमने मुझे यातना देकर
बाँसुरी बनाया

मैं तुम्हारे आनंद के लिए
बजता रहा
फिर रख दिया जाता रहा
घर के अँधेरे कोने में

जब तुम्हें ख़ुश होना होता था
तुम मुझे बजाते थे

मेरे रोम-रोम में पिघलती थीं
तुम्हारी साँसें
मैं दर्द से भर जाया करता था

तुमने मुझे बाँस के कोठ से
अलग किया
अपने ओठों से लगाया

मैं इस पीड़ा को भूल गया कि
मेरे अंदर कितने छेद हैं

मैं तुम्हारे अकेलेपन की बाँसुरी हूँ
तुम नहीं बजाते हो तो भी
मैं आदतन बज जाया करता हूँ।

- स्वप्निल श्रीवास्तव
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विजया सती की पसंद 

रविवार, 22 जून 2025

ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है

ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है
बहार आने की सूरत निकल भी सकती है

जला के शम्अ अब उठ-उठके देखना छोड़ो
वो ज़िम्मेदारी से अज़-ख़ुद पिघल भी सकती है

है शर्त सुब्ह के रस्ते से हो के शाम आए
तो रात उस को सहर में बदल भी सकती है

ज़रा सँभल के जलाना अक़ीदतों के चराग़
भड़क न जाएँ कि मसनद ये जल भी सकती है

अभी तो चाक पे जारी है रक़्स मिट्टी का
अभी कुम्हार की निय्यत बदल भी सकती है

ये आफ़्ताब से कह दो कि फ़ासला रक्खे
तपिश से बर्फ़ की दीवार गल भी सकती है

तिरे न आने की तशरीह कुछ ज़रूरी नहीं
कि तेरे आते ही दुनिया बदल भी सकती है

कोई ज़रूरी नहीं वो ही दिल को शाद करे
'अलीना' आप तबीअत बहल भी सकती है

- अलीना इतरत
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 21 जून 2025

मुलाक़ात

कल 
मेरी मुलाक़ात हुई 
मुझसे 
आईने के बिना 
अपना चेहरा 
देखने का
यह एक दुर्लभ 
दृश्य था!

- ज्योति कृष्ण वर्मा
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 20 जून 2025

पुखराजी धूप

सुबह की नरम पुखराजी वो धूप
खिड़की से आ के बिछौने पे मेरे
गुनगुने हाथों से छू के मुझे
कानों में प्यार से गुनगुन करे,
पीताभ, स्वर्णिम किरणों की चकमक
दूर के पीपल पे झलमल झलकती
मुंदी आँखों पे मेरी नर्तन करे,
मैं न उठूँ और लेटी रहूँ तो
भेजे गौरैया को, कुटकुट बधैय्या को
जो चूँ चूँ चहकती शरारत करें
भेजे हवाओं को, फूलों के सौरभ को
जो मन को मेरे, ताजगी से भरे!

फिर भी मैं आँखें मूंदे रहूँ
मलमल-सी आभा से लिपटी रहूँ तो,
तीखे परस से छूकर के मुझको
उठने को बेहद तंग वो करे,
उठते ही मेरे, बादल के पीछे
छुपती छुपाती, मिचौली-सी करती
खिड़की से कमरे में,
कमरे से आँगन में
दादी की खटिया से,
गैया की बछिया पे
थिरकती मचलती रुक-रुक के चलती
सबको उजाले से भर के हँसे,
कितनी सलोनी, कितनी अनूठी
पीली, सुनहरी, सरकती वो धूप
गरमा के आँगन, दीवारों और आलों को
पशमीने से कोमल मेरे ख्यालों को
दिनभर गलबहियाँ वो डाले मेरे

साँझ को पूरब की ऊँची मुँडेर पे
खिसक जाती, कहती - ‘अब हम चले’!

- दीप्ति गुप्ता
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 19 जून 2025

तुम

एक तुम वह हो
जो तुम हो
बतियाते हो मुझसे
मुझे सुनते हो
जाने क्या सोचते हो
जाने कैसे रहते हो
क्या चाहते हो
क्यों चाहते हो
चाहते भी हो या नहीं चाहते हो

एक तुम है
जो मुझमें है
शायद तुमसे मिलता-सा
शायद न मिलता हो तुमसे इस तरह
मैं अपने भीतर के इस तुम से बतियाती हूँ
उसकी आवाज़ें तुम तक जाती हैं

जब तुम कहते हो
मैं मुझमें बैठे तुम को सुनती हूँ
यह जो तुम बाहर हो मेरे सामने
यह जो मुझमें है
क्या यह भी बतियाते हैं दोनों

- देवयानी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 18 जून 2025

प्रीत किये दुख होय

हिमगिरी-सी पीड़ा सह जाने वाला हृदय
गौरेया के पंख की ठेस से टूट जाता है
जाते हुए तुम्हारी पीठ देखती हूँ
मेरी अंजुरी से छलक जाता है अमृत 

न धरती फटी न आसमान टूटा
ये संसार यथावत चलता रहा 
कहीं कोई पत्ता भी नहीं खड़का
मैंने अपने ही प्राण निकलते देखे
मेरी आँख से एक आँसू नहीं गिरा

सब इतना ठीक था, 
जैसे घड़ी न थमी 
न वक्त बदला
दीवार पर एक जाला नहीं था
मेरी चादर धुली हुई थी
मेरे माथे पर थी वही बिंदी
मैंने हँसना छोड़ा न गुनगुनाना
बस तुम्हारी पसंद का इत्र लगाना भूल गई 

तुम्हारे बाद आयु बची, जीवन नहीं

- श्रुति कुशवाहा
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विजया सती के सौजन्य से 

मंगलवार, 17 जून 2025

ये समय है

ये समय है 
बोलने का समय है
खुलेआम
भेद खोलने का समय है

लोग शोर में ज़िंदगी गुज़ारने लगे हैं
शोर मचाकर चुप रहना सीख जाते हैं
बोलना बेकार हो जाता है
लोग बोलना बंद करते जा रहे हैं
तभी तो बोलियाँ मिटती जा रही हैं
गोलियों की आवाज़ बढ़ती जा रही है

ये बेख़बर रहकर जीने का नहीं
समझकर बोलने का समय है
ये शैतान से संवाद का समय है
हैवान से जेहाद का समय है

ये किसी के बचने का नहीं
इसीलिए सबको बचाने का समय है
ये समय काम आ जाए तो बहुत अच्छा
न आए तो फिर सबके मिट जाने का समय है

- ध्रुव शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 16 जून 2025

प्रत्युत्तर

पड़ताली तर्जनी
हमारे पास है औ’
दिखाते हैं वे
अँगूठा-समाधान!

- देवी प्रसाद मिश्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 15 जून 2025

कुछ नहीं

समंदर कभी किसी के 
घावों के बारे में 
नहीं पूछता 
उसके पास 
नमक के सिवा 
कुछ नहीं

- ज्योति कृष्ण वर्मा 
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विजया सती के सौजन्य से 

शनिवार, 14 जून 2025

हे सृष्टिपिता!

हे सृष्टिपिता!
स्त्री देह गढ़ने वाले
तुम्हारे साँचे में ही कोई दोष है 
या मिट्टी ही वह किसी काम की नहीं 
या फिर नाप-तौल की समझ ही ज़रा कच्ची है तुम्हारी! 

आओ 
मैं तुम्हे सिखाती हूँ 
न्यून और आधिक्य का हिसाब 
और सधे हुए अनुपातों का गणित 
तुम ईश्वर हो तो क्या हुआ!
अपनी ही संतति से सीखने में कैसा संकोच! 

चलो पहले स्त्री के कंधे बनाऐंगे
देखो! बहुत कंजूसी ठीक नहीं
इतनी ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने के लिए 
मज़बूत कँधों की पेशियाँ बनाने में 
शक्ति की ज़रा ज़्यादा टिकाऊ मिट्टी लगती है

दिल धड़के भी, प्रेम भी करे और आघात भी सहे
यही दस्तूर है न तुम्हारी दुनिया का!
लिहाजा हृदय बनाऐंगे 
ज़रा मज़बूत और ख़ूब पक्की मिट्टी से
कि ज़रा ज़रा-सी बात पर आहत होकर टूट न जाए

हाथ पैरों को देंगे 
थोड़ा इस्पाती कलेवर
कि बाहर निकलकर कमा खा सके, 
इच्छा के विरुद्ध किसी बात पर
वक़्त पड़ने पर तमाचा या लात जड़ सके
सिर्फ धीरज के बल पर कोई कितना निर्वाह करे बाबा?

मति गढ़ेंगे, सूझ-बूझ से भरी प्रत्युत्तपन्नता वाली
कि निर्णय ले सके स्वयं समय पर
मुंह ही न देखती रहे किसी का

स्मृतियों के ख़ाने अलग-अलग रखेंगे 
कटु स्मृति को रखेंगे थोड़े ही समय रहने वाले ख़ाने में
कि दुखों की उम्र ज़रा कम लंबी हो

आत्मा हो
ज़रा कम लजीली, कम संकोची 
कि उम्र इज़्ज़त मर्यादा संस्कार 
और लोक व्यवहार की भेंट न चढ़ जाए

ओ प्यारे पिता 
अब के जो भेजो पृथ्वी पर कोई स्त्री 
तो उसकी देह की प्राण प्रतिष्ठा 
सम्मान और स्नेह के मंत्रों से करना

देना कम दुर्भाग्य,
कम लाज और भय
कम तिरस्कार, कम अपमान 
कम समझौते, कम हीनताबोध के घाव

देखो!
पिता होकर भेद न करना! 
अब अगर कोई निर्मिति हो  
तो अपनी दोनों संतानों को बराबर देना अवसर।

- सपना भट्ट
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 13 जून 2025

प्रतीक्षा

मछली
पानी में रह सकती है 
पानी की तस्वीर में नहीं 
तुम अपनी 
तस्वीर 
मत भेजो 
चली आओ!

- ज्योति कृष्ण वर्मा 
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विजया सती के सौजन्य से 

गुरुवार, 12 जून 2025

वे लड़कियाँ

वे लड़कियाँ बथुआ की तरह उगी थीं
जैसे गेहूँ के साथ बथुआ
बिन रोपे ही उग आता है
ठीक इसी तरह कुछ घरों में बेटियाँ
बेटों की चाह में अनचाहे ही आ जाती हैं!

पीर से जड़ी सुधियों की माला
पहनकर वे बिहँसती रहीं!

ख़ुद को खरपतवार मान
वे साध से गिनाती रहीं
कि भाई के जन्म पर क्या-क्या उछाह हुआ
और गर्व से बताती रहीं
कि कितने नाज़-नखरे से पला है
हम जलखुंभियों के बीच में ये स्वर्णकमल!

बिना किसी डाह के वे प्रसन्न रहीं
अपने परिजनों की इस दक्षता पर
कि कैसे एक ही कोख से
एक ही रक्त-माँस से
और एक ही
चेहरे-मोहरे के बच्चों के पालन में
दिन-रात का अंतर रखा गया!

समाज के शब्दकोश में दुख के कुछ स्पष्ट पर्यायवाची थे
जिनमें सिर्फ़ सटीक दुखों को रखा गया
इस दुख को पितृसत्तात्मक वेत्ताओं ने ठोस नहीं माना
बल्कि जिस बेटी की पीठ पर बेटा जन्मा
उस पीठ को घी से पोत दिया गया
इस तरह उस बेटी को भाग्यमानी कहकर मान दे दिया!

लल्ला को दुलारती दादी और माँ
लल्ला की कटोरी में बचा दूध-बताशा उसे ही थमातीं!
जैसे गेहूँ के साथ बथुआ भी अनायास सींच दिया जाता है
पर प्यास गेहूँ की ही देखी जाती है!

अपने भाग्य पर इतराती
वे लड़कियाँ कभी देख ही नहीं पाईं
कि भूख हमेशा लल्ला की ही मिटाई गई!

तुम बथुए की तरह उनके लल्ला के पास ही उगती रहीं
तो तुम्हें तुरंत कहाँ उखाड़कर फेंका जाता!

इसलिए दबी ही रहना
ज़्यादा छतनार होकर
बाढ़ न मार देना उनके दुलरुआ की!
जो ढेरों मनौतियों और देवी-देवता के अथक आशीष का फल है।

- रूपम मिश्रा 
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विजया सती के सौजन्य से 

बुधवार, 11 जून 2025

मनाकाश

आज निरभ्र है मनाकाश 
अगणित तारों के अनंत पसार तले
आज बदल सकती हूँ वस्त्र 
आज केवल सतरंगी ओस से ढक सकती हूँ
देह की अनन्य लाज 

आज तुम्हारे स्पर्श से आह्लादित है
गात का तटस्थ जल 
आज प्रतीक्षाओं को दे सकती हूँ
पूर्णता के सारे चमकीले क्षण

आज निर्भय हूँ!
आज चाहूँ तो 
दुख वाले हस्तक्षेपों के उमेठ सकती हूँ कान 
आज मृत्यु को बरजकर द्वार पर रोक सकती हूँ

आज खूब दिनों बाद 
भय और लज्जा के बहुलार्थों से मुक्त है आत्मा
आज रोक सकती हूँ युद्ध
लिख सकती हूँ कविता 

आज अथाह सुख से भरी हैं
देह की सब शिराएँ 

आज निकालकर दे सकती हूँ
तुम्हे अपना हृदय निसंकोच 

चटख लाल, गर्म और लबालब प्रेम से भरा

- सपना भट्ट
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विजया सती के सौजन्य से 

मंगलवार, 10 जून 2025

मृत्यु भी प्रबोधन है

सहसा किसी उदात्त क्षण 
धूप का उजला फूल अपनी वेणी में खोंसे 
विहँसती है जीवन की अंतिम साँझ

किसी अतिरेकी क्षण
देह के अंतिम दर्रे को लाँघकर 
आत्मा के सीले अँधेरे में उतरता है प्रभात 

रस छंद और अलंकारों की 
नाटकीयता से ऊबकर 
अचानक कागज़ पर स्याही उलट देता है कवि,
कविता शोक के धवल वस्त्र पहन लेती है

एकाएक असंभव, संभव हो जाता है

मन का मलंग मल्लाह 
मझधार में अकस्मात डुबो देता है नौका 
फेंक देता है पतवार 

प्रतीक्षालय में 
याद की आख़िरी सिगरेट फूँकते 
छूट जाती है प्लेटफॉर्म पर देर से खड़ी रेलगाड़ी 

धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है
मिलन की एषणा, प्रतीक्षा का सौंदर्य;

प्रेय को चूमने की उत्कट चाह 
धीरे से झर जाती है 

पीछे छूटे गझिन विलाप की 
रुआँसी प्रतिध्वनि कहती है 
कि "क्या हुआ जो तुमने किसी को चीह्नने में चूक की"!

सुख में फ्योंली के पीले फूलों को 
किसने वेणी में नहीं खोंसा! 

शोक में काँटों से उलझने का संताप
किसके अँचरे से नहीं बंधा!

जानती हूँ अनित्य है संसार!
और तो और भंगुर है प्रेम की यह मूक यातना भी

फिर भी इतना विलंब नहीं हुआ अभी
कि देह की सब शिराएँ निचोड़कर भी
बिछोह की निषिद्ध ऋतु की साँवली छाया को 
बुराँस के एक लाल फूल में न बदल सकूँ

इतनी संदिग्ध नहीं है बेला 
कि उसी मृदुल फूल को 
अपनी अनुरक्तियों के तमिस्र शवागार में रखकर 
प्रेम के अभीष्ट से मुक्ति की अभ्यर्थना भी न कर सकूँ 

- सपना भट्ट
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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 9 जून 2025

कई बार मैंने

कई बार मैंने कोशिश की
इस बाढ़ में से अपना एक हाथ निकालने की
कई बार भरोसा हुआ
कई बार दिखा यह है अंत

मैं कहना चाहता था
एक या दो मालूमी शब्द
जिन पर फ़िलहाल विश्वास किया जा सके
जो सबसे ज़रूरी हों फ़िलहाल

मैं चाहता था
एक तस्वीर के बारे में बतलाना
जो कुछ देर क़रीब-क़रीब सच हो
जो टँगी रहे चेहरों और

दृश्यों के मिटने के बाद कुछ देर
मैं एक पहाड़ का
वर्णन करना चाहता था
जिस पर चढ़ने की मैंने कोशिश की
जो लगातार गिराता था धूल और कंकड़
रहा होगा वह भूख का पहाड़

मैं एक लापता लड़के का
ब्यौरा देना चाहता था
जो कहीं गुस्से से खाता होगा रोटी
देखता होगा अपनी चोटों के निशान
अपने को कोसता
कहता हुआ चला जाऊँगा घर

मैं अपनी उदासी के लिए
क्षमा नहीं माँगना चाहता था
मैं नहीं चाहता था मामूली
इच्छाओं को चेहरे पर ले आना
मैं भूल नहीं जाना चाहता था
अपने घर का रास्ता।

- मंगलेश डबराल
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विजया सती के सौजन्य से 

रविवार, 8 जून 2025

वृक्ष विहीन

वृक्ष विहीन हुई जाती थी धरती
लालच की आँत फैलती जाती थी

ऐसे में देखा मैंने 
मेरे घर के गमले में
नन्हा-सा पीपल एक उगा है
दस-ग्यारह पत्ते फूटे हैं उस पर
लहराते हैं

शायद कोई पांखी 
खाकर गोल
उड़ते-उड़ते बीज यहाँ पर डाल गया था
पड़ा हुआ था जो मिट्टी में दबा हुआ था

पाकर परस हवा पानी का
उग आया है

मैंने सोचा
मैं इसको रोपूँगा घर के सम्मुख
सींचूँगा बाड़ करूँगा 
जिस पर पांखी आऐंगें

वृक्ष काटने वाले निशदिन जुटे हुए हैं बेशक 
लेकिन 
नन्हीं गुरगुल गौरैया टुइयाँ तोता
भी तो भरसक जुटे हुए हैं

विनोद पदरज
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विजया सती की पसंद 

शनिवार, 7 जून 2025

एक ही प्रेम

एक प्रेम काफ़ी है ज़िंदा रहने के लिए 
एक ही प्रेम नष्ट होने के लिए 
पर्याप्त है एक प्रेम का दंड

एक का ही वरदान कर देता है धन्य 
एक प्रेम की निराशा फैल जाती है दूर तक
और वही थाम लेता है आशा का चिथड़ा 
एक प्रेम से ऊब पैदा होती है, उसी से तृप्ति

एक प्रेम सूर्योदय और सूर्यास्त के लिए 
वही काफ़ी है रात में चाँद सितारों के वास्ते
एक प्रेम की व्यग्रता हो सकती है बर्दाश्त
सँभाली जा सकती है बस एक प्रेम की प्रसन्नता 
एक प्रेम गर्व से कर देता है सिर ऊँचा

और वही बैठा देता है घुटनों के बल 
जब कोई नहीं रहता, कुछ नहीं बचता 
सब विदा ले चुके होते हैं तो अतल की तलहटी में 
सूखे उजाड़ जीवन में टिमटिमाता है वही एक प्रेम 
उसकी टिमटिमाहट दिखती है प्रखर रौशनी की तरह 
जब सब तरफ़ कोलाहल, आपाधापी और घबराहट होती है

एक वही प्रेम हाथ थामकर देता है आत्मीय एकांत 
और वही धकेल देता है जीवन की भागमभाग में 
एक ही प्रेम कर देता है जीना मुश्किल 
और एक उसी के लिए तो अटकी हुई है यह साँस।

- कुमार अंबुज 
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 6 जून 2025

सौंदर्य

हम पहाड़ का सौंदर्य देखते हैं
पहाड़ का दुख नहीं 
हम समुद्र का सौंदर्य देखते हैं 
समुद्र का दुख नहीं 
हम मरुस्थल का सौंदर्य देखते हैं 
मरुस्थल का दुख नहीं 
हम स्त्री का सौंदर्य देखते हैं 
जो पहाड़ है 
समुद्र है 
मरुस्थल है।

- विनोद पदरज
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विजया सती की पसंद 

गुरुवार, 5 जून 2025

शर्म

अपने बच्चे को समझाती हूँ
दुनिया अब भी बहुत सुंदर है
वह पूछता है कैसे?
और मैं सोचती हूँ कहाँ से शुरू करूँ
पेड़?
हवा?
पानी?
प्रेम?
सत्य?
करुणा?
बस इतने पर आकर ही
थकने लगती हूँ प्रश्न चिह्नों से

और जवाब की
उत्सुकता में ताकता मेरा चेहरा
वह समझ जाता है मेरी चुप्पी का अर्थ
और मैं छिपाती हूँ अपनी शर्म

दिखाती हूँ बस खिले हुए कुछ फूल।

- राकी गर्ग
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विजया सती की पसंद 

मंगलवार, 3 जून 2025

बहन


ज्यादा मत हँसा कर

नहीं तो दुख पाऐगी

बरजती थी माँ

छोटी बहन को


अब नहीं हँसती बहन

उस तरह से

जिस तरह से

खिलखिलाती

उड़ रही है भानजी


बल्कि डाँटती है-

"नासपीटी

बंद कर

ज्यादा खिलखिलाएगी तो जीते जी मर जाएगी" और उदास हो जाती है


ना जाने किन स्मृतियों में खो जाती है।


 - विनोद पदरज

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


सोमवार, 2 जून 2025

स्त्रियों से ही है वसंत

स्त्रियों से ही है वसंत 

और स्त्रियों से ही है जीवन-सुख अनंत 

न हों स्त्रियाँ तो फिर कैसा ब्रह्म, 

कैसा ब्रह्मांड...?


नदियाँ स्त्रियों से,

फूलों में खुशबू स्त्रियों से,

आकाश स्त्रियों से,

आकाश में उड़ना स्त्रियों से

शस्त्र और शास्त्र स्त्रियों से 

और हार-जीत भी 

पाँव-पाँव चलता है, दौड़ता है, 

हाँफता है संसार 

तार-तार भी, बेतार भी, 

हो जाता है स्मृतियों में 

पहाड़ सदियों के ढोता है अपने कांधों पर 

बिजली के तारों से लपेटता है दुख अपने

दुख मगर स्त्रियों के भी तो कुछ कम नहीं

टुकड़ा-टुकड़ा सुलगती रहती हैं 

गीली लकड़ियाँ 

जीवन में जीवनभर के लिए 

भर जाता है धुआँ

अक्षर-अक्षर क्षरण, घिसता है पत्थर भी 

परिभाषाएँ बदलती नहीं हैं 

ताप की, संताप की 

जितना-जितना खुलती हैं 

अपनी आकाँक्षाओं में

उतना-उतना बंद होती जाती हैं स्त्रियाँ 

अपनी पवित्रताओं से करती हैं 

उद्धार सभी का 

उनकी सोच सिर्फ उनकी नहीं, न प्रेम हो 

एकाकी कुछ नहीं 

उनके एकान्त में कुछ भी नहीं

ढोल-ढमाके छीनते ही रहते हैं उनके सपने 

सपने वे भी छिन ही जाते हैं स्त्रियों के 

स्त्रियाँ जो देखती हैं सपने दूसरों के लिए 

दूसरों की दुनिया में जीवन नहीं, 

जीवन का अंत है 

स्त्रियों से ही वसंत है।


 - राजकुमार कुम्भज

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- हरप्रीत सिंह पुरी  की पसंद 



रविवार, 1 जून 2025

औसत औरत

तुम्हें चाहिए एक औसत औरत

न कम न ज़्यादा

बिल्कुल नमक की तरह


उसके ज़बान हो

उसके दिल भी हो

उसके सपने भी हो।


उसके मत भी हों मतभेद भी

उसके दिमाग़ हो

ताकि वह पढ़े तुम्हें और सराहे

वह बहस कर सके तुमसे

तुम शह-मात कर दो

ताकि समझा सको उसे

कि उसके विचार कच्चे हैं अभी

अभी और ज़रूरत है उसे

तुम-से विद्वान की।


औसत औरत को तुम

सिखा सकोगे बोलना

सिखा सकोगे कि कैसे पाले जाते हैं

आज़ादी के सपने।


पगली होती हैं औरतें

बस खिंची चली जाती हैं दुलार से।


इसलिए उसकी भावनाएँ भी होंगी

आँसू भी

वह रो सकेगी

तुम्हारी उपेक्षा पर


तुम हँस सकोगे उसकी नादानी पर

कि कितना भी कोशिश करे औरत

औसत से ऊपर उठने की

औरतपन नहीं छूटेगा उससे।


तुम्हारा सुख एक मुकम्मल सुख होगा

ठीक उस समय तुम्हारी जीत सच्ची जीत होगी

जब एक औसत औरत में

तुम गढ़ लोगे अपनी औरत।


 - सुजाता

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शनिवार, 31 मई 2025

नींद उचट जाती है

जब-तब नींद उचट जाती है

पर क्या नींद उचट जाने से

रात किसी की कट जाती है?


देख-देख दु:स्वप्न भयंकर,

चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;

पर भीतर के दु:स्वप्नों से

अधिक भयावह है तम बाहर!

आती नहीं उषा, बस केवल

आने की आहट आती है!


देख अँधेरा नयन दूखते,

दुश्चिंता में प्राण सूखते!

सन्नाटा गहरा हो जाता,

जब-जब श्वान श्रृगाल भूँकते!

भीत भावना,भोर सुनहली

नयनों के न लाती है!


मन होता है फिर सो जाऊँ,

गहरी निद्रा में खो जाऊँ;

जब तक रात रहे धरती पर,

चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ

उस करवट अकुलाहट थी, पर

नींद न इस करवट आती है!


करवट नहीं बदलता है तम,

मन उतावलेपन में अक्षम!

जगते अपलक नयन बावले,

थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम!

साँस आस में अटकी, मन को

आस रात भर भटकाती है!


जागृति नहीं अनिद्रा मेरी,

नहीं गई भव-निशा अँधेरी!

अंधकार केंद्रित धरती पर,

देती रही ज्योति चकफेरी!

अंतर्नयनों के आगे से

शिला न तम की हट पाती है!


 - नरेंद्र शर्मा

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 




शुक्रवार, 30 मई 2025

अभिनय क्या आत्महत्या है



विस्मित देखते हैं लोग

मुझको अन्य होते हुए

और रेशा-रेशा मर रहा हूँ मैं

अनुपल जन्म लेता हुआ :

यही तो होता है हर बार।


अभिनय क्या आत्महत्या है

नए जन्म के लिए

जिसमें अपने को ख़ुद

जनता हूँ मैं

जनकर मार देता हूँ!


 - नंदकिशोर आचार्य

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 



गुरुवार, 29 मई 2025

सफ़र पर


यह वक्त शब्दों के दीये जलाने का है
कहा एक कवि ने
और मैंने सचमुच एक दीया जलाकर
आँगन में रख दिया
वह लड़ता रहा अंधेरे से
लड़ता रहा आँधियों से
लड़ता रहा एक पूरी रुत से
और धीरे-धीरे
मेरे जिस्म में एकाकार हो गया
अब मेरे हर शब्द में है एक मशाल
और शब्द निकले हैं सफ़र पर।

- गुरमीत बेदी

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

बुधवार, 28 मई 2025

आसमान के पार स्वर्ग है

आसमान के पार स्वर्ग है
सोच गया घर से
जाकर देखा 
वहाँ अँधेरा दीपक को तरसे
जीवन का पौधा उगता 
हिमरेखा के नीचे 
धार प्रेम की 
जहाँ नदी बन धरती को सींचे
आसमान से आम आदमी लगता है चींटी
नभ केवल रंगीन भरम है
सच्चाई मिट्टी
गिर जाता जो अंबर से 
वो मरता है
डर से
अंबर तक यदि जाना है तो 
चिड़िया बन जाओ
दिन भर नभ की सैर करो 
पर संध्या घर आओ
आसमान पर कहाँ बसा है
कभी किसी का घर
ज्यादा जोर लगाया जिसने
टूटे उसके पर
फैलो 
काम नहीं चलता ऊँचा उठने भर से

-'सज्जन' धर्मेन्द्र

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से


मंगलवार, 27 मई 2025

नमक में आटा

हमने

कम समय में

बहुत बातें की

बहुत बातों में

कम समय लिया

      

कम समय में

लम्बी यात्राएँ की

लम्बी यात्राओं में

कम समय लिया


कम समय में

बहुत समय लिया

बहुत समय में

कम समय लिया


इस तरह हम

कम में ज़्यादा

ज़्यादा में कम होते गए

हमें होना था

आटे में नमक

मगर हम नमक में आटा होते गए !


- कमल जीत चौधरी

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 26 मई 2025

कवि का संकल्प


                                                                                                                                                                      घात के प्रतिघात के फण पर सदा चलता रहूँगा

किन्तु फिर भी लोक को आलोक से भरता रहूँगा


मृत्युंजयी हूँ, है मुझे अमरत्व का वरदान शाश्वत

युग -युगांतर तक बनेंगे अमर मेरे गान शाश्वत

एक अंतर्द्वंद्व शेष है जो कह न पाया

मनुज काया का अभी कर गूढ़ता भेदन न पाया

यह अनिश्चित प्रश्नवाचक चिह्न सी कब से खड़ी है

निःसारता ही सार इसका भेद यह मैं जानता हूँ


किन्तु मैं तो साधना की वह्नि में तपता रहूँगा

किन्तु फिर भी लोक को आलोक से भरता रहूँगा


-डा. अरुण प्रकाश अवस्थी

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-हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 25 मई 2025

जब वफ़ा के खेत बंजर हो गये

 
जब वफ़ा के खेत बंजर हो गये
मोम जैसे लोग पत्थर हो गये । 

जब बुझा पाये न मेरी प्यास को
 शर्म से पानी समन्दर हो गये । 

आग जैसी धूप में जो चल पड़े 
वो निखर कर और सुन्दर हो गये । 

कीमती दौलत महक जब खो गई
मोतियों से फूल कंकर हो गये । 

रोज आपस में लड़ायें बिल्लियां 
अब सियाने खूब बन्दर हो गये । 

अब ज़रूरत ही नहीं विषपान की
 नील मलकर लोग शंकर हो गये ।

-अनुपिन्द्र सिंह अनूप

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

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शनिवार, 24 मई 2025

चेतन जड़

प्यास कुछ और बढ़ी
और बढ़ी ।
बेल कुछ और चढ़ी
और चढ़ी ।
प्यास बढ़ती ही गई,
बेल चढ़ती ही गई ।
कहाँ तक जाओगी बेलरानी
पानी ऊपर कहाँ है ?
जड़ से आवाज़ आई--
यहाँ है, यहाँ है ।

-अशोक चक्रधर 

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 23 मई 2025

जीवन का गान

                      

स्त्रियाँ रहेंगी 

मटकौरा होगा 

पितर-न्यौंती गाएँगी

दुलहन सजायी जाएगी

जवान सब सजेंगे

जीवन का गान

बना रहेगा

पेड़ रहेंगे

बेशक पत्ते झरेंगे

जीवन का गान

चलता रहेगा


पक्षी सुबह गायेंगे

भोर खूबसूरत होगी

बूढ़े टहलेंगे

और अधिक जीने की इच्छा रखेंगे 

जीवन का गान 

चलता रहेगा।

युवक-युवतियाँ प्रेम करेंगे

गाना गायेंगे 

आँख मारेंगे

लड़कियाँ मुस्कराएँगी

जीवन का गान 

चलता रहेगा ।


बच्चे सज-बज कर स्कूल जाएँगे

माताएँ पहुँचाने जाएँगी

जीवन का गान

चलता रहेगा।


मौत जिसकी होगी

वह घाट जाएगा

या मिट्टी में मिल जाएगा 

पर बच्चे जन्म लेंगे

बधाइयाँ बजेंगी

जीवन का गान

चलता रहेगा।


जीवन जैसा भी है

है बहुत दिलकश 

चाहे कुत्तों का हो

या आदमी का

जीवन का गान 

चलता रहेगा।


चलना ही चाहिए

जीवन का गान 

रुदन जीवन नहीं

जीवन है मुस्कान

जीवन का गान

चलता रहेगा।


- अनन्त मिश्र

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 22 मई 2025

यात्रा

जब आता है इस धरती पर मनुष्य

वह होता है निडर

नहीं जानता डर नाम की किसी चीज़ को

धीरे-धीरे लगता है डरने

धरती की हर चीज़ से

उसे डराते हैं उसके तमाम विश्वास

उसके सपने, रिश्ते, उसके अपने

टूट जाती है उसकी-

हिम्मत और हौसलों की लाठी

डरने लगता है वह अपनी ही परछाईं से

डरता हुआ मनुष्य

कहीं से भी नहीं लगता मनुष्य ।


- कुमार कृष्ण

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 



बुधवार, 21 मई 2025

तुम्हारे मेरे बीच


तुम्हारे और मेरे बीच की दूरी

एक वेदना थी

एक टीस


मैंने तुम्हें तीर्थ माना

दूरी

यात्रा बन गई ।


- पूरन मुद्गल

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 20 मई 2025

पीछे

बाहर निकल आई थी वह

अपने से

पीछे छूट गया था

उसके आकार का अँधेरा।


-ज्योत्स्ना मिलन

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 19 मई 2025

सपने

मैंने

सपनों के गुब्बारे

उड़ाए


वे / आकाश में

विलीन हो गए


फिर

इतना संतोष / कि वे कभी

कहीं तो उतरेंगे ।


- पूरन मुद्गल

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 18 मई 2025

स्नेह


स्नेह है 
एक शुद्ध भाव 
एक तरंग पर 
तैरती दो नाव 
कभी अधिकार 
कभी कर्तव्य 
कभी साहचर्य 
कभी अपेक्षा 
पर इन सबसे ऊपर 
एक शुभ इच्छा 
कि तुम जहाँ रहो 
खुश रहो 
दुख तुम्हें छुए भी नहीं 
और कभी तुम्हारे हृदय की 
अनगिनत स्मृतियों में 
एक मेरा भी नाम हो!

-  जया आनंद

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 17 मई 2025

बुनी हुई रस्सी

बुनी हुई रस्सी को घुमायें उल्टा
तो वह खुल जाती हैं
और अलग अलग देखे जा सकते हैं
उसके सारे रेशे
मगर कविता को कोई
खोले ऐसा उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
इस तरह
क्योंकि अनुभव तो हमें
जितने इसके माध्यम से हुए हैं
उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों से
व्यक्त वे जरूर हुए हैं यहाँ
कविता को
बिखरा कर देखने से
सिवा रेशों के क्या दिखता है
लिखने वाला तो
हर बिखरे अनुभव के रेशे को
समेट कर लिखता है !

- भवानी प्रसाद मिश्र

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शुक्रवार, 16 मई 2025

नदी

बहना अच्छा लगता है
नदी की तरह
पर तट बंधो के साथ,
उफान में
खो जाता है
वह सब भी
मिला था जो
बहने के क्रम में

-  जया आनंद

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 15 मई 2025

धब्बे और तसवीर

                                                                                                                                                        वह चित्र भी झूठा नहीं :
तब प्रेम बचपन ही सही
संसार ही जब खेल था,
तब दर्द था सागर नहीं,
लहरों बसा उद्वेल था;
पर रंग वह छूटा नहीं :
उस प्यार में कुंठा न थी
तुम आग जिसमें भर गए,
तुम वह जहाँ कटुता न थी
उस खेल में छल कर गए;
मैं हँस दिया, रूठा नहीं :
उस चोट के अन्दाज़ में
जो मिल गया, अपवाद था,
उस तिलमिलाती जाग में,
जो मिट गया, उन्माद था,
जो रह गया, टूटा नहीं :
अभाव के प्रतिरूप ही
संसृति नया वैभव बनी,
हर दर्द के अनुरूप ही
सागर बना, गागर बनी,
कच्ची तरह फूटा नहीं :
खोकर हृदय उससेअधिक
कुछ आत्मा ने पा लिया,
विक्षोभ को सौन्दर्य कर
संसार पर बिखरा दिया :
दे ही गया, लूटा नहीं ।

 
-कुँवर नारायण
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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 14 मई 2025

पवित्र, हलाल

उनमें से कुछ लोग

धीरे-धीरे 'जिबह' करने वाली

कुल्हाड़ी ले आए


दूसरे लोग साथ लाए

अत्याधुनिक मशीनें

जो एक तरफ से घुसकर

चीरते हुए पार निकलती थीं

'झटके' में जमींदोज करती हुई


बात भेड़ों की नहीं

पेड़ों की थी

क्या जिबह, झटका क्या

क़त्ल के सभी रास्ते

पवित्र थे, हलाल थे


- देवेश पथ सारिया

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 13 मई 2025

आवागमन

वे गहन वेदना के क्षणों में,
और गूंजते सन्नाटों में ,
अक्सर ढूँढा करती हैं
हमारी खुशियाँ |
जब वे जिया करती हैं
मिलने की तीव्र उत्कंठा लिए.
तब हम होते हैं
जल्दबाजी में ;
बघारते हैं
एक से बढ़कर एक थ्योरी ,
और भर देते हैं कूडेदान
बीमारी लिए अनेकानेक लिफाफों से |
जब वे लुटाना चाहती हैं
बेहिसाब प्यार,
तब हम ढूँढ रहे होते हैं
खुशियाँ ईजाद करने के नए तरीके ;
हमारी आँखों में होती हैं
कैबरे नाचती लड़कियां ,
और होठों पर रहती है
एक झूठी मुस्कान |
हम खा रहे होते हैं
ग्रीन वैली के रेस्तराँ में चिकन-पुलाव,
और रुक-रुक कर लेते हैं
शैम्पेन के घूँट ,
तब घोर अंधकारमय रातों में
वे रोटियाँ बेलते हुए
फूंकती हैं चूल्हे ,
और रोक लिया करती हैं 
अश्रुपूर्ण नयनों को किसी तरह बरसने से |
बचपन की पुचकार,दुलार,चुम्बन
और कंपकंपाती रातों में
छाती से चिपककर गुजारे दिन ;
सब भुला देते हैं हम
महान बनने की प्रक्रिया में |
एक दिन
जागते हैं हम
सदियों की निद्रा से,
और अर्द्ध-रात्रि में
देखे सपने की तरह
जब उतरते हैं चमचमाती कारों से,
तब वे
अपनी पथराई आँखों में समाये सपने साकार करने
और देखने हमें
प्रतिक्षण,प्रतिपल
एक सुदूर जहान को
कर चुकी होती हैं
गमन |

-  धर्मेन्द्र चतुर्वेदी

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

सोमवार, 12 मई 2025

विदा

पहचान में नहीं आ रहा था कि

दोनों में से कौन किसकों विदा करने आया है

दोनों अत्यंत आकर्षक थे

अत्यंत आधुनिक

पर एक बात प्राचीन थी

कि दोनों रो रहे थे


-  बद्रीनारायण

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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 11 मई 2025

तुम ज्यों मेरी चाय

सारे दिन की

थकन मिटाते

तुम ज्यों मेरी चाय


बातों में

अक्सर परोसना

मीठा औ’ नमकीन

कितनी खुशियाँ

भर देते हैं

फ्लेश बैक के सीन


मुस्कानों का

तुम बन जाते

हो अक्सर पर्याय


कितना कुछ

हल कर देती है

अदरक जैसी बात

लौंग, इलायची

बन जाते हैं

प्रेम भरे जज्बात


जितनी भी

जो भी शिकायतें

हो तुम सबका न्याय


तुम बिन कहाँ

शाम भर पाती

इस मन में उल्लास

सच पूछो तो

मेरे होने

का तुम हो आभास


पल दो पल

जो साथ मिल रहे

वह ही मेरी आय


-   गरिमा सक्सेना

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 



शनिवार, 10 मई 2025

सभी मनुष्य हैं

सभी मनुष्य हैं
सभी जीत सकते हैं
सभी हार नहीं सकते ।
सभी मनुष्य हैं
सभी सुखी हो सकते हैं
सभी दुखी नहीं हो सकते ।
सभी जानते हैं
दुख से कैसे बचा जा सकता है
कैसे सुख से बचें
सभी नहीं जानते ।
सभी मनुष्य हैं
सभी ज्ञानी हैं
बावरा कोई नहीं है
बावरे के बिना
संसार नहीं चलता ।
सभी मनुष्य हैं
सभी चुप नहीं रह सकते
सभी हाहाकार नहीं कर सकते
सभी मनुष्य हैं ।
सभी मनुष्य हैं
सभी मर सकते हैं
सभी मार नहीं सकते
सभी मनुष्य हैं
सभी अमर हो सकते हैं ।


-   दूधनाथ सिंह

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 9 मई 2025

उठो धरा के अमर सपूतों

उठो धरा के अमर सपूतों 
पुनः नया निर्माण करो। 
जन-जन के जीवन में फिर से 
नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो। 
नया प्रात है, नई बात है, 
नई किरण है, ज्योति नई। 
नई उमंगें, नई तरंगे, 
नई आस है, साँस नई। 
युग-युग के मुरझे सुमनों में, 
नई-नई मुसकान भरो। 
डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ 
नए स्वरों में गाते हैं। 
गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे 
मस्त हुए मँडराते हैं। 
नवयुग की नूतन वीणा में 
नया राग, नवगान भरो। 
कली-कली खिल रही इधर 
वह फूल-फूल मुस्काया है। 
धरती माँ की आज हो रही 
नई सुनहरी काया है। 
नूतन मंगलमय ध्वनियों से 
गुंजित जग-उद्यान करो। 
सरस्वती का पावन मंदिर 
यह संपत्ति तुम्हारी है। 
तुम में से हर बालक इसका 
रक्षक और पुजारी है। 
शत-शत दीपक जला ज्ञान के 
नवयुग का आह्वान करो। 
उठो धरा के अमर सपूतों, 
पुनः नया निर्माण करो।

- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 8 मई 2025

चेतन जड़

                                                                                                                                                                           प्यास कुछ और बढ़ी
और बढ़ी ।
बेल कुछ और चढ़ी
और चढ़ी ।
प्यास बढ़ती ही गई,
बेल चढ़ती ही गई ।
कहाँ तक जाओगी बेलरानी
पानी ऊपर कहाँ है ?
जड़ से आवाज़ आई--
यहाँ है, यहाँ है।

- अशोक चक्रधर 

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

 

 

बुधवार, 7 मई 2025

अभिलाषा

वे भुलाती हुई
हमारी सारी वेदनाएँ और सुख
समय और उम्र
जन्म ले लेती हैं
जटिल से जटिल परिस्थितियों में
उनके आश्रय में हम
लहरों की अंगडाई सुला देते हैं
आकाश की ऊँचाई मिटा देते हैं
आँधियों में दीप जलाने लगते हैं
पत्थर की छाती पर नव-अंकुर उगाने लगते हैं
वे उडाकर हमारी नींदें
चाहती हैं नियति का सर कलम करना
ऐसी ही होती हैं अभिलाषाएँ
छोटी,बड़ी,स्वान्तःसुखाय या परिजनहिताय
जैसे मेरी अभिलाषा कहती है कि
जब मैं नव-सृष्टि के सृजन को आगे बढूँ
तो तुम आओ मेरे साथ
और जब शिथिलता मेरे बदन पर आकर बंधक बनाने का करे प्रयास
तो तुम मुझे प्रेरित करती
अपने हाथों से पिलाओ...ओक भर पानी

-  धर्मेन्द्र चतुर्वेदी

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 6 मई 2025

कृपया धीरे चलिए

                                                                                                                                                                                                                                 

मुझे किसी महाकवि ने नहीं लिखा

सड़कों के किनारे

मटमैले बोर्ड पर

लाल-लाल अक्षरों में

बल्कि किसी मामूली

पेंटर कर्मचारी ने

मजदूरी के बदले यहाँ वहाँ

लिख दिया

जहाँ-जहाँ पुल कमजोर थे

जहाँ-जहाँ जिंदगी की

भागती सड़कों पर

अंधा मोड़ था

त्वरित घुमाव था

घनी आबादी को चीर कर

सनसनाती आगे निकल जाने की कोशिश थी

बस्ता लिए छोटे बच्चों का मदरसा था

वहाँ-वहाँ लोकतांत्रिक बैरियर की तरह

मुझे लिखा गया

'कृपया धीरे चलिए'

आप अपनी इंपाला में

रुपहले बालोंवाली

कंचनलता के साथ सैर पर निकले हों

या ट्रक पर तरबूजों की तरह

एक-दुसरे से टकराते बँधुआ मजदूर हों

आसाम, पंजाब, बंगाल

भेजे जा रहे हों

मैं अक्सर दिखना चाहता हूँ आप को

'कृपया धीरे चलिए'

मेरा नाम ही यही है साहब

मैं रोकता नहीं आपको

मैं महज मामूली हस्तक्षेप करता हूँ,

प्रधानमंत्री की कुर्सी पर

अविलंब पहुँचना चाहते हैं तो भी

प्रेमिका आप की प्रतीक्षा कर रही है तो भी

आई.ए.एस. होना चाहते हों तो भी

रुपयों से गोदाम भरना चाहते हों तो भी

अपने नेता को सबसे पहले माला

पहनाना चाहते हों तो भी

जिंदगी में हवा से बातें करना चाहते हों तो भी

आत्महत्या की जल्दी है तो भी

लपककर सबकुछ ले लेना चाहते हों तो भी

हर जगह मैं लिखा रहता हूँ

'कृपया धीरे चलिए'

मैं हूँ तो मामूली इबारत

आम आदमी की तरह पर

मैं तीन शब्दों का महाकाव्य हूँ

मुझे आसानी से पढ़िए

कृपया धीरे चलिए।


-  अनन्त मिश्र

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से