बुधवार, 3 सितंबर 2025

जिनकी भाषा में विष था

जिनकी भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुख था

दुखों के पीछे अपेक्षाएँ थीं
अपेक्षाओं में दौड़ थी
दौड़ने में थकान थी
थकान से हताशा थी
हताशा में भाषा थी

भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुख था

- बाबुषा कोहली 
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अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

बहनें

जब बाप गरज रहे होते हैं 
बाप जैसे 

माँ रो रही होती है 
माँ जैसी 

भाई खड़े रहते हैं 
भाई जैसे 

तब 
कुछ भाई
कुछ माँ 
कुछ बाप जैसी 
प्रार्थना में 
झुकी रहती हैं 
बहनें 

- विनोद कुमार श्रीवास्तव 
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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 1 सितंबर 2025

कविता के अरण्य में

यदि तुम देख सको
कविता में उगता है एक पेड़
उस पर बैठती है एक नन्हीं चिड़िया
यदि तुम सुन सको
यहाँ बहती है एक नदी
अपने ही दुखों से सिहरती

कविता के अरण्य में 
कवि बहुत हैं
मनुष्य तुम्हें खोजने होंगे।

- रश्मि भारद्वाज 
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विजया सती की पसंद 

रविवार, 31 अगस्त 2025

वसंत

वसंत के दिन थे
जब हम पहली बार मिले

पहली बार
मैंने वसंत देखा

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

शनिवार, 30 अगस्त 2025

उम्मीद की अँगीठी

कविता
ज़िंदा आदमी के सीने में सुलगती
उम्मीद की अँगीठी है

अँगीठी पर चढ़े पतीले में
मैंने रख धरे हैं
दुनिया भर के दुख, उदासी और चिंताएँ
वाष्पीभूत होने के लिए

प्रेम के धातु से
बनवाया है यह पतीला
दरअसल है नहीं कोई दूसरा धातु
किसी काम का

एक सुंदर दुनिया की उम्मीद में
सुलगते सीने में भरोसे की आग जलाए
लिखता हूँ कविताएँ
क्योंकि मैं ज़िंदा आदमी हूँ

ज़िंदा आदमी
कविता न लिखे
मर जाएगा

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

मौलिकता

सृजन और प्‍यार और मुक्ति की
गतिकी के कुछ आम नियम होते हैं
लेकिन हर सर्जक
अपने ढंग से रचता है,

हर प्रेमी
अपने ढंग से प्‍यार करता है

और हर देश
अपनी मुक्ति का रास्‍ता
अपने ढंग से चुनता है।

- कात्यायनी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

गुरुवार, 28 अगस्त 2025

कुछ पल

कुछ पल
साथ चले भी कोई
तो क्या होता है
क़दम-दर-क़दम
रास्ता तो
अपने क़दमों से
तय होता है

कुछ क़दम संग
चलने से फिर
न कोई अपना
न पराया होता
बस, केवल
वे पल जीवंत 
और
सफ़र सुहाना होता है

- किरण मल्होत्रा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

बुधवार, 27 अगस्त 2025

बाहर-भीतर : यह जीवन

मैंने फूल देखे
फिर उन्हीं फूलों को
अपने भीतर खिलते देखा
 
मैंने पेड़ देखे
और उन्हीं पेड़ों के हरेपन को
अपने भीतर उमगते देखा
 
मैं नदी में उतरा
अब नदी भी बहने लगी
मेरे भीतर
 
मैंने चिड़िया को गाते सुना
गीत अब मेरे भीतर उठ रहे थे

यूँ बाहर जो मैं जीया
उसने भीतर
कितना भर दिया!

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

मंगलवार, 26 अगस्त 2025

बेहतर है

मौत की दया पर
जीने से
बेहतर है

ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश
के हाथों मारा जाना!

- कात्यायनी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

सोमवार, 25 अगस्त 2025

हँसी

बहुत कुछ कहती है
भरोसा जगाती हँसी
 
एक बेपरवाह हँसी गढ़ती है
सुंदरता का श्रेष्ठतम प्रतिमान

अर्थ खो देंगे
रंग, फूल, तितली और चिड़िया
एक हँसी न हो तो
 
हँसी से ही
संबंधों में रहती है गर्मी
 
नींद कैसे आएगी हँसी के बिना
प्रेम का क्या होगा?
 
हँसी को तकिया बनाकर
सोता है प्रेम

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

पोस्ट ऑफिस

 पोस्ट ऑफिस में अब कहाँ टकराते हैं ख़ूबसूरत लड़के 


चिट्ठियाँ गुम होने का बड़ा नुकसान ये भी हुआ है 

‘एक्सक्यूज़ मी..पेन मिलेगा क्या’ जैसा बहाना जाता रहा 

‘आप बैठ जाइए..मैं लगा हूँ लाइन में’ कहने वाले भी कहाँ रहे 

मुए ज़माने ने इतना भर सुख भी छीन लिया 


वो दिन जब लाल पोस्ट बॉक्स जैसे तिलिस्मी संदूक 

और डाकिया जादूगर 

वो दिन जब महीने में डाकघर के चार चक्कर लग ही जाते 

और तीन बार कहीं टकरा ही जाती नज़रें 

बीते दिनों इतना रोमांच काफी था 

कॉलेज की सहेलियों से बतकही में ये बात ख़ास होती-

‘सुन..कल वो फिर दिखा था’

पोस्ट ऑफिस में दिखने वाले लड़के अमूमन शरीफ़ माने जाते 


पार्सल, मनीआर्डर, रजिस्टर्ड पोस्ट, ग्रीटिंग कार्ड 

और भी सौ काम थे 

राशन से कम कीमती नहीं थी चिट्ठियाँ 

एक से पेट भरता दूसरे से मन 

वो दिन जब डाकघर जाना हो तो 

लड़की अपना सबसे अच्छा सूट निकालती 


पोस्ट ऑफिस उन बैरंग चिट्ठियों का भी ठिकाना था 

जो एकदम सही पते पर पहुँचती 

कुछ बेनामी ख़त जो आँखों-आँखों में पढ़ लिए जाते


इन दिनों डाकघर सूने हो गए हैं 

अब आँखों पर भी चश्मा चढ़ गया है


- श्रुति कुशवाहा

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-संपादकीय चयन 

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

गज़ल

वो रंजिश में नहीं अब प्यार में है
मेरा दुश्मन नए किरदार में है

खुशी के साथ ग्लोबल आपदाएँ
भई खतरा तो हर व्यापार में है

नहीं समझेगा कोई दर्द तेरा
तड़पना, टूटना बेकार में है

कोई उम्मीद हो जिसमें, खबर वो 
बताओ क्या किसी अखबार में है

घरों में आज सूनापन है केवल 
यहाँ रौनक तो बस बाज़ार में है

- विनय मिश्र

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संपादकीय चयन 

बुधवार, 30 जुलाई 2025

शहर के दोस्त के नाम पत्र

हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं

बॉक्साइट के गुलदस्ते सजे हैं

अभ्रक और कोयला तो 

थोक और खुदरा दोनों भावों से 

मंडियों में रोज सजाए जाते हैं


यहाँ बड़े-बड़े बाँध भी

फूल की तरह खिलते हैं

इन्हें बेचने के लिए 

सैनिकों के स्कूल खुले हैं, 

शहर के मेरे दोस्त

ये बेमौसम के फूल हैं

इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती

अपने जुड़े के लिए गजरे

मेरी माँ नहीं बना सकती

मेरे लिए सुकटी या दाल

हमारे यहाँ इससे कोई त्योंहार नहीं मनाया जाता

यहाँ खुले स्कूल

बारहखड़ी की जगह

बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं


बाजार भी बहुत बड़ा हो गया है

मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता

यहाँ से सबका रुख शहर की ओर कर दिया गया है


कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा

उससे पहले नदी गई

अब खबरल फैल रही है कि

मेरा गाँव भी यहाँ से जाने वाला है


शहर में मेरे लोग तुमसे मिलें

तो उनका ख़याल ज़रूर रखना

यहाँ से जाते हुए उनकी आँखों में

मैंने नमी देखी थी

और हाँ

उन्हें शहर का रीति-रिवाज भी तो नहीं आता

मेरे दोस्त उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए

अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ।


- अनुज लुगुन

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-संपादकीय चयन 



मंगलवार, 29 जुलाई 2025

जो समय बदलते हैं

घड़ी की सुइयों के बीच भी

अँधेरा रहता है 

शाम होने के बाद 

वह धीरे-धीरे 

गहराने लगता है

चंद्रमा की चमक

उसकी रफ़्तार पर नहीं पड़ती

शायद इसीलिए

बहुत रात के बाद 

उसके चलने की आवाज़

और तेज हो जाती है

जैसे अपने हिस्से की 

रौशनी माँग रही हो

हालांकि वह कभी 

मिलने वाली नहीं

फिर भी बल्ब जलाने से 

घड़ी का चेहरा

खिल जाता है

जो दूसरों का समय बदलते हैं

वे ऐसे ही रौशनी के लिए

तरसते रहते हैं

अनवरत चलते हुए

एक दिन रुक जाते हैं सहसा 

चुपचाप

जैसे घड़ी बंद मिलती है

किसी सुबह।


- शंकरानंद

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संपादकीय चयन 



सोमवार, 28 जुलाई 2025

अजब सफ़र है

अजब सफ़र है 

मैं अपनी मुट्ठी से रेत बनकर फिसल रहा हूँ 

 वह रेत दामन  में भर रही है

मैं थोड़ा मुट्ठी में रह गया हूँ

मैं थोड़ा दामन में गिर चुका हूँ 

मैं बाक़ी दोनों के दरमयाँ हूँ 

मुझे यह डर है 

मैं ज्यों ही मुट्ठी को खोल दूँगा 

वह अपने दामन को झाड़ देगी

-अम्मार इक़बाल

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 27 जुलाई 2025

प्रार्थना से प्रेम

वर्षा हो 

अन्न हो

सुख हो

शांति हो

शुभ हो

सुपुत्र हों, सुपुत्रियाँ भी 

संग हो 

विवाह हो

प्रेम हो

प्रेम विवाह हो 

और तलाक न हो !


 - अविनाश मिश्र

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विजया सती के सौजन्य से

शनिवार, 26 जुलाई 2025

दुलारी धिया

पी के घर जाओगी दुलारी धिया 

लाल पालकी में बैठ चुक्के-मुक्के

सपनों का खूब सघन गुच्छा 

भुइया में रखोगी पाँव

महावर रचे

धीरे-धीरे उतरोगी 

सोने की थारी में जेवनार-दुलारी धिया 

पोंछा बन

दिन-भर फर्श पर फिराई जाओगी 

कछारी जाओगी पाट पर 

सूती साड़ी की तरह

पी से नैना ना मिला पाओगी दुलारी धिया 

दुलारी धिया 

छूट जाएँगी सखियाँ-सलेहरें

उड़ासकर अलगनी पर टाँग दी जाओगी 

पी घर में राज करोगी दुलारी धिया 

दुलारी धिया, दिन भर 

धान उसीनने की हँड़िया बन

चौमुहे चूल्हे पर धीकोगी 

अकेले में कहीं छुप के 

मैके की याद में दो-चार धार फोड़ोगी 

सास-ससुर के पाँव धो पीना, दुलारी धिया 

बाबा ने पूरब में ढूँढा

पश्चिम में ढूँढा

तब जाके मिला है तेरे जोग घर

ताले में कई-कई दिनों तक 

बंद कर दी जाओगी, दुलारी धिया 

पूरे मौसम लकड़ी की ढेंकी बन

कूटोगी धान

पुरइन के पात पर पली-बढ़ी दुलारी धिया 


पी घर से निकलोगी

दहेज की लाल रंथी पर

चित्तान लेटे

खोइछे में बाँध देगी

सास-सुहागिन, सवा सेर चावल 

हरदी का टूसा

दूब

पी घर को न बिसारना, दुलारी धिया।


 - बद्रीनारायण

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- विजया सती के सौजन्य से 


शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

अब तक नहीं लिखा

जाने क्या-क्या लिखा अभी तक

लेकिन जो लिखना था हमको, 

अब तक नहीं लिखा। 


किसने सोखे थे सपनों के 

रंग उजाले वाले, 

किसने जगा दिए निद्रा पर

चिंताओं के ताले 

किसके डर से रही काँपती,

मन की दीपशिखा

अब तक नहीं लिखा।


किसके आश्वासन से टूटी

आशाओं की हिम्मत,

किसने कर्म छीनकर हमसे

दे दी खोटी किस्मत

घोर गरीबी का यह रस्ता,

किसने दिया दिखा

अब तक नहीं लिखा।


किसने सत्य, अहिंसा मारे

किसने शांति चुराई

किसने छीनी है वाणी से

शब्दों की अँगड़ाई

भाषा के सीने पर किसने, 

आरा तेज रखा

अब तक नहीं लिखा।

 
- अश्वघोष

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- विजया सती के सौजन्य से

गुरुवार, 24 जुलाई 2025

कल से प्रेम

सुबह तीन बजे उठूँगा 

तानपूरा सुनूँगा 

ध्यान करूँगा 

ऋचाएँ पढूँगा 

रहस्यों पर सोचूँगा 

सत्य को जानूँगा 

प्यार को सोने दूँगा 

उसे जगाऊँगा नहीं 

निशब्द पुकारूँगा 

काली काफी बनाऊँगा-पीऊँगा

सब कुछ बहुत धीमी गति से करूँगा 

इधर-उधर जाता रहूँगा 

केंद्र को केंद्र नहीं रहने दूँगा

इच्छाओं को शर्म से बाधित करूँगा 

जड़ता को श्रम से 

घड़ी से ज्यादा सही चलूँगा 

नई किताबें शुरू करूँगा 

नई कथाएँ 

कम काम लूँगा 

ज्यादा काम करूँगा।


 - अविनाश मिश्र

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- विजया सती के सौजन्य से

बुधवार, 23 जुलाई 2025

मेरे सुग्गे तुम उड़ना


दगा है उड़ना

धोखा है उड़ना

कोई कहे-

छल है, कपट है उड़ना


पर मेरे सुग्गे, तुम उड़ना

तुम उड़ना

पिंजड़ा हिला

सोने की कटोरी गिरा

अनार के दाने छींट

धूप में करके छेद

हवाओं की सिकड़ी बजा

मेरे सुग्गे, तुम उड़ना।


 - बद्रीनारायण

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-विजया सती के सौजन्य से 

मंगलवार, 22 जुलाई 2025

मजदूरी से प्रेम


मैं एक मनुष्य था 

मैं एक कवि था 

मुझमें कहीं एक उपन्यासकार भी था 

लेकिन मुझमें कहीं एक मजदूर भी था


अगर यह मजदूर नहीं होता 

तब मैं भूख से मर जाता।

 

 - अविनाश मिश्र

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-विजया सती के सौजन्य से

सोमवार, 21 जुलाई 2025

मत होना उदास


कुछ जून ने बुना

कुछ जुलाई ने

नदी ने थोड़ा साथ दिया

थोड़ा पहाड़ ने

बुनने में रस्सी मूँज की।


प्रभु की प्रभुताई बाँधी जाएगी

यम की चतुराई 

हाथी का बल

सोने-चाँदी का छल बाँधा जाएगा

बाँधा जाएगा

विषधर का विष 


कुछ पाप बाँधा जाएगा

कुछ झूठ बाँधा जाएगा


रीति तुम चुप रहना

नीति मत होना उदास।


- बद्रीनारायण

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- विजया सती के सौजन्य से

रविवार, 20 जुलाई 2025

अनुकरण से प्रेम


मैंने किसी का अनुकरण नहीं किया 

जिन्होंने किसी का अनुकरण नहीं किया 

मैंने उनका अनुकरण किया


मैं मौलिक नहीं हूँ 

मैंने पूर्णविराम चुराए हैं।


 - अविनाश मिश्र

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संपादकीय चयन 


शनिवार, 19 जुलाई 2025

चौमासा

आषाढ़-सा उठाव
सावन-सा भराव
भादों-सा इकसार
आश्विन-सा अमृत-छिड़काव

चौमासे की तरह
तुम्हारे प्यार के भी
कई ढंग हैं।

- नंदकिशोर आचार्य
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गुरुवार, 17 जुलाई 2025

सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर

सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर
चमकती चिंगारियाँ-सी चकरा रहीं आँखों की पुतलियों में
नज़र पे चिपके हुए हैं कुछ चिकने-चिकने से रौशनी के धब्बे
जो पलकें मूँदूँ तो चुभने लगती हैं रौशनी की सफ़ेद किरचें
मुझे मेरे मखमली अँधेरों की गोद में डाल दो उठाकर
चटकती आँखों पे घुप्प अँधेरों के फाए रख दो
यह रौशनी का उबलता लावा न अंधा कर दे।

- गुलज़ार
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वक़्त का दरपन बूढ़ी आँखें

 

वक़्त का दरपन बूढ़ी आँखें।

उम्र की उतरन बूढ़ी आँखें।


कौन समझ पाएगा पीड़ा

ओढ़े सिहरन बूढ़ी आँखें।


जीवन के सोपान यही हैं

बचपन, यौवन, बूढ़ी आँखें।


चप्पा-चप्पा बिखरी यादें

बाँधे बंधन बूढ़ी आँखें।


टूटा चश्मा घिसी कमानी

चाह की खुरचन बूढ़ी आँखें।


एक इबारत सुख की खातिर

बाँचे कतरन बूढ़ी आँखें।


सपनों में देखा करती हैं

‘वर्षा’-सावन बूढ़ी आँखें।

 

 - वर्षा सिंह

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- संपादकीय चयन 

बुधवार, 16 जुलाई 2025

कबूतर लौटकर नभ से


कबूतर लौटकर नभ से सहमकर बुदबुदाते हैं

वहाँ पर भी किसी बारूद का

षडयंत्र जारी है


हवा में भी

बिछाया जा रहा घातक सुरंगों को

धरा से व्योम तक पहुँचा रहे

कुछ लोग जंगों को


गगन में गंध फैली है किसी नाभिक रसायन की

धरा पर दीखती विध्वंस की

व्यापक तैयारी है


वहाँ पर शांति,

सह-अस्तित्व जैसे शब्द बौने हैं

यहाँ पर सभ्यता के हाथ

एटम के खिलौने हैं


वहाँ से पंचशीलों में लगा घुन साफ़ दिखता है

मिसाइल के बटन से जुड़ गई

किस्मत हमारी है


शांति की आस्थाओं को 

चलो व्यापक समर्थन दें

युद्ध से जल रही भू को

नया उद्दाम जीवन दें


किसी हिरोशिमा की फिर कहीं न राख बन जाए

युद्ध तो युद्ध केवल युद्ध है

विध्वंसकारी है


 - जगदीश पंकज

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- संपादकीय चयन 


मंगलवार, 15 जुलाई 2025

इच्छा

 

मैंने 

हवाओं के छोर से

बाँध दिया

इच्छाओं का दामन


देखती हूँ

वे कहाँ तक जाती हैं।


 - मधु शर्मा

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संपादकीय चयन 



सोमवार, 14 जुलाई 2025

जेठ तपा मधुमास

संदर्भों के होठ सिले हैं

व्याख्या हुई उदास

किस प्रसंग की बात कर रहा

जेठ तपा मधुमास


आँगन की बौराई बिल्ली

तुलसी घेर रही

चींटी बाँध बनाकर गाए

बाढ़ तुम्हारी आस


ऐसी पुरुवा बही रात भर

बादल सुलग गए

पछुआ ने सूरज से पूछा

कहाँ रहोगे आज

    

दूब जली, मेंहदी झुलसाई

दुल्हन सेज सजी

कैसा सावन आने वाला

जिससे लगती लाज


राग गड़ रही, गीत चुभ रहे

सगुन धुआँ के गाँव

आँझ पराती आँसू-आँसू

आँख लगे नाराज

    

आना अबके लगन लगे है

अगन-मनन की ओर

रुँध गई देहरी गगन की

ऐसी है आवाज़ 


चाँद सितारे नाच न पावें

नदी न गाए गीत

झरनों ने संगीत हड़प ली

पर्वत पी गए साज

    

संदर्भों के होठ सिले हैं

व्याख्या हुई उदास

किस प्रसंग की बात कर रहा

जेठ तपा मधुमास


 - संजय तिवारी

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संपादकीय चयन 



रविवार, 13 जुलाई 2025

जहाँ सुख है

जहाँ सुख है
वहीं हम चटककर
टूट जाते हैं बारंबार 

जहाँ दुख है
वहाँ पर एक सुलगन
पिघलाकर हमें
फिर जोड़ देती है।

- अज्ञेय
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शनिवार, 12 जुलाई 2025

इसी काया में मोक्ष

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
इसी से तो मिलना था
पिछले कई जन्मों से।

एक ऐसा आदमी जिसे पाकर
यह देह रोज़ ही जन्मे, रोज़ ही मरे
झरे हरसिंगार की तरह
जिसे पाकर मन
फूलकर कुप्पा हो जाए।

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
अगर पूरी दुनिया अपनी आँखों नहीं देखी
तो भी यह जन्म व्यर्थ नहीं गया।

बहुत दिनों से मैं
किसी को अपना कलेजा
निकालकर दे देना चाहता हूँ
मुद्दतों से मेरे सीने में
भर गया है अपार मर्म
मैं चाहता हूँ कोई
मेरे पास भूखे शिशु की तरह आए
कोई मथ डाले मेरे भीतर का समुद्र
और निकाल ले सारे रतन।

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही
भक्क से बर जाए आँखों में लौ
और लगे कि दीया लेकर खोजने पर ही
मिलेगा धरती पर ऐसा मनुष्य
कि पा गया मैं उसे
जिसे मेरे पुरखे गंगा में नहाकर पाते थे।

बहुत दिनों से मैं
जानना चाहता हूँ
कैसा होता है मन की सुंदरता का मानसरोवर
छूना चाहता हूँ तन की सुंदरता का शिखर
मैं चाहता हूँ मिले कोई ऐसा
जिससे मन हज़ार बहानों से मिलना चाहे।

बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
करोड़ों जन्मों के पाप मिट गए
कट गए सारे बंधन
कि मोक्ष मिल गया इसी काया में।

- दिनेश कुशवाह
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

अनुसरण

गाँधी बाबा
आप यह नहीं कह सकते कि
आपकी कोई चीज़
हमने
नहीं अपनाई,

आपकी लाठी
हमें
बहुत पसंद आई।

- देवी प्रसाद मिश्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

स्त्री

कई नदियाँ मरती हैं 
उसके भीतर जाकर 

कोई स्त्री इतनी आसानी से 
समुद्र की तरह खारी नहीं होती 

- किरण 'मर्म'
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विजया सती की पसंद

बुधवार, 9 जुलाई 2025

होते आए घड़े अछूत

होते आए घड़े अछूत
बुझी नहीं है अब तक प्यास
इस जड़ता की जय!

रहे बजाते ताली-थाली
डाल बुद्धि पर ताला
नहीं करेंगे साफ़, क़सम ली
जाति-धर्म का जाला

हमने पाले अहम अकूत
भेद-भाव के इसी अनय पर
टूटी जीवन-लय!

दुत्कारों के वही कथानक
गिने-चुने निर्देशक
पीढ़ी-दर-पीढ़ी झेली हैं
पीड़ाएँ बन याचक

दर्द नहीं यह सद्य प्रसूत
एक घड़ा क्या सबके मालिक
इसका क्या आशय!

- अनामिका सिंह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 8 जुलाई 2025

विरासत

वो कहानियाँ सुनाती थी 
जाने क्या था उसके सुनाने में 
आज तक कानों में सुनाई दे रही हैं 

जब कहती मैं, अरे इत्ती छोटी, और सुनाओ 
तो वह कहती, 
असली कहानी, कहानी कह देने के बाद शुरू होती है और कभी ख़त्म नहीं होती 

जैसे चाँद निकलता है बादलों की ओट से 
हर बार पूरा ताज़ा और भरपूर सफ़ेद 

ज्यों-ज्यों उम्र बीत रही है 
परतें खुलती चली जा रही हैं 
समझ आता है, सही कहती थी वह

शेर-चूहे की कहानी में
बात शेर की नहीं, चूहे की नहीं 
शेर और चूहा होने की थी 
शेर बस शेर ही नहीं, चूहा भी था - जब जाल में था 
चूहा, चूहा ही नहीं, शेर भी था - जब जाल कुतर रहा था 
समय था, समय का फेर था 

रानी सुरुचि ने ध्रुव को उसके पिता की गोद से उतारा 
माँ सुनीति विकल नहीं हुई 
बोली, पिता की गोद से भी बड़ी गोद है
तपस्या से मिलेगी 
सुनीति जानती थी, 
श्रम से अर्जित किया हुआ स्थान कोई छीन नहीं सकता 
ध्रुव है- स्थिर, अटल 
श्रम का प्रतिफल है 

कबूतर फँस गए थे 
और मिलकर ले उड़े थे जाल
साथ उड़ने के लिए फँसना शर्त नहीं 
साथ उड़ पाना कला है, हासिल है 

कमाल यह नहीं था कि अर्जुन ने लक्ष्य भेद दिया 
वह तो कौशल था
कमाल यह था कि उसे अपना लक्ष्य पता था 

वह नहीं है अब 
उसकी परतदार कहानियाँ हैं 
उसकी कहानियों के क़िरदार
मेरी विरासत हैं

- ऋचा जैन
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अनूप भार्गव की पसंद 

सोमवार, 7 जुलाई 2025

विश्वरूप

मत मर्म-व्यथा छूने, विद्युत बन, आओ;
बन निबिड़-श्याम घन, प्राणों में छा जाओ।

किरणों की उलझन क्षणिक, न बनो सवेरा;
बन निशा डुबा दो छवि में जीवन मेरा।

अस्थिर जीवन-कण बन न नयन ललचाओ;
बन शांत मरण-सागर असीम, लहराओ।

जो टूट पड़े क्षण में विनाश-इंगित पर,
वह तारक बन मत ध्यान भंग कर जाओ;

जिसकी अंचल-छाया में सोवे त्रिभुवन,
वह अंतहीन आकाश नील बन आओ।

फिर उसी रूप से नयनों को न भुलाओ;
अभिनव अपूर्व छवि जीवन को दिखलाओ।

दर्शन-सुख की परिभाषा नई बनाओ;
लघु दृग-तारों में नहीं, हृदय में आओ।

वह विश्वरूप बन आओ, मेरे सुंदर,
जो रेखाओं का बंदी बने न पट पर;

जिसको भर रखने को तपकर जीवन-भर
उर बने एक-दिन अंतहीन नीलांबर।

अनुभव को नयनों तक सीमित न बनाओ;
छवि से जीवन के अणु-अणु को भर जाओ।

हर झाँकी में विस्तृततर बनकर आओ;
जग के प्राणों की प्रतिक्षण परिधि बढ़ाओ।

- जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'
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रविवार, 6 जुलाई 2025

वंशी करो मुखर


गूँज उठे युग की साँसों में

नव जीवन का स्वर।

 

सदियों की सोई मानवता

ज्योति नयन खोले,

मिटे कलुष तम तोम

प्रभाती स्वर्णरंग घोले!

उतरें देव स्वर्ग से

मधु के कलश लिए भू पर।

वंशी करो मुखर। 

 

वाणी की वाणी पर

शाश्वत सरगम लहराये,

नये स्वरों में नये भाव भर

कवि का मन गाये!

फूटें जड़ चट्टानों से

रस के चेतन निर्झर।

वंशी करो मुखर

 

-    डॉ० रवींद्र भ्रमर 

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 5 जुलाई 2025

हवा से कह दो।

घर में अभी मुखौटों वाले

चेहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

अभी झरोखों से दीवारें

तन से मन से दूर नहीं हैं

हैं मजबूत इरादों वाली

लेकिन दिल से क्रूर नहीं हैं

आपस में मतभेद किसी में

गहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

आने जाने और नाचने

गाने पर प्रतिबंध नहीं है

हाँ उसका सम्मान न होगा

जिसमें कोई गंध नहीं है

खनक नृत्य की सुनने वाले

बहरे नहीं

हवा से कह दो।

 

आँगन में तुलसी का चौरा

बहुत ठीक है दुखी नहीं है

सबसे बात कर रहा हँसकर

सुगना अंतर्मुखी नहीं है

अभी खिड़कियाँ खुली हुई हैं

ठहरे नहीं 

हवा से कह दो। 


- मयंक श्रीवास्तव


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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

गीत – गली के वासी

हमें न भायी

जग की माया

हम हैं गीत- गली के वासी

 

वहाँ, साधुओं

सिर्फ नेह की

बजती है शहनाई

जो लय हमने साधी उस पर

वह है होती नहीं पराई

 

गीत – गली में ही

काबा है  

गीत – गली में ही है कासी

 

वह दुलराते

हर सूरज को

गीत – गली की हमें कसम है

उसमें जाते ही मिट जाता

हाट- लाट का सारा भ्रम है

 

वहाँ साँस

जो छवियाँ रचती

होती नहीं कभी वे बासी

 

कल्पवृक्ष है

उसी गली में

जिसके नीचे देव विराजे

लगते हमें भिखारी सारे

दुनिया के राजे - महराजे

 

महिमा

गीत – गली की ऐसी

कभी न रहतीं साँसें प्यासी


-कुमार रवींद्र

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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

   

गुरुवार, 3 जुलाई 2025

शब्द

 शब्द

शब्द अगर आना तो –                                 

कोई शुभ्र अर्थ लाना,

तुमको रच, अपने गीतों का

कोष सँवारूँगा।

अर्थ कि वह ताजा – टटका

जो मन पीड़ा हरदे

हृदय- कुंड खारे पानी को

जो मीठा कर दे

 

मित्र सार्थक बनकर

मन के पन्नों छा जाना,

मिले भाव- नवनीत, सृजन की-

रई बिलोड़ूँगा।

दीन- दुखी कर दर्दों का-

मरहम लाना भाई

घीसू’ हरषे और असीसे

जुमम्न’ की माई

मुल्ला- पंडित गले मिलें

वह युक्ति साथ लाना,

आपस में जो पड़ी बैर-

की, गाँठें खोलूँगा।

वंचित को हो चना – चबैना

भूखा पेट भरे

सन्नाटों को चीर – चिरइया

होकर मुक्त उड़े

बच्चों की बेलौस हँसी

अक्षर – अक्षर दमके,

अपनी कलम उतार, धुंध के

बादल छाटूँगा। 

 

- श्यामलाल ‘शामी’

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


बुधवार, 2 जुलाई 2025

निज़ाम बदल जाने से नहीं बदल जाते मुक़ाम

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाता है उनका मुक़ाम
जो साथ रहते हैं इक ज़माने से

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाती है धूप
क्या छोड़ देती है किसी आँगन को

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाता है पानी का बहाव
क्या किसी मुहल्ले से चला जाता है दूर

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाती है हवा
क्या किसी के साथ चलने से कर देती है इनकार

निज़ाम बदल जाने से
क्या किसी पर कम
किसी पर ज़्यादा झुक आता है आसमान

निज़ाम बदल जाने से
क्या ज़्यादा घूमने लगती है पृथ्वी
किसी के पक्ष में

निज़ाम बदल जाने से
क्या बदल जाते हैं देवता
वे तो सबकी सुबह और शाम के हैं
कहाँ किसी निज़ाम के हैं

निज़ाम बदल जाने से
नहीं बदल जाते जीने के काम
नहीं बदल जाते किसी के नाम

- ध्रुव शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 1 जुलाई 2025

कुंभन बन पाना और बात है

गीत बाँचकर
मंचों पर
ताली बजवाना
और बात है
पर, गीतों में
पानी को
पानी कह पाना और बात है

सुविधाएँ
अच्छी लगती हैं
सभी चाहते हैं सुविधाएँ
सुविधा लेकर
सुविधाओं का
मोल चुकाना और बात है
गीत बाँचकर...

यूँ तो
सबकी देखा-देखी
उसने भी ऐलान कर दिया
पर
अपने ही निर्णय पर
टिककर रह पाना और बात है
गीत बाँचकर...

पदक और पैसों की
ढेरी पर चढ़कर
ऊँचे लगते हैं
लेकिन
युग-कवियों का फिर
कुंभन बन पाना और बात है
गीत बाँचकर...

- जगदीश व्योम
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 30 जून 2025

कवि नहीं कविता बड़ी हो

इस तरह तू लिख
कि लिख के कवि नहीं कविता बड़ी हो

अपने बूते पर खड़ी हो
जो ज़माने से लड़ी हो
ऐसी भाषा
जैसी भाषा भीड़ के पल्ले पड़ी हो

ह से हाथी
ह से हौदा
क़द नहीं क़ीमत का सौदा
अपने खेतों पर लिखा है हमने अमरीकी मसौदा

ऐसी क्या दौलत कि बच्चू प्यार में भी हड़बड़ी हो

धूप में सीझा हो सावन
भूख के आगे पसावन
दूध-सा गाढ़ा पसीना
और सपनों का जमावन

हर घड़ी लगती हो जैसे, बस, यही अंतिम घड़ी हो

लिख कि धरती मुस्कुराए
दुख का सीना चिटक जाए
रक्त में स्नान करने वाला
यादों में नहाए

प्यास के सहरा में जैसे कोई शीतल बावड़ी हो

इस तरह तू लिख कि लिख के कवि नहीं
कविता बड़ी हो

- देवेंद्र आर्य
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 29 जून 2025

लगता है जाने पर मेरे

आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सिर्फ़ तुम्हारे दृग में
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!
 
मैं आया तो चारण-जैसा
गाने लगा तुम्हारा आँगन;
हँसता द्वार, चहकती ड्योढ़ी
तुम चुपचाप खड़े किस कारण?
मुझको द्वारे तक पहुँचाने सब तो आए, तुम्हीं न आए,
लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे!
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

मौन तुम्हारा प्रश्नचिह्न है, 
पूछ रहे शायद कैसा हूँ 
कुछ-कुछ चातक से मिलता हूँ
कुछ-कुछ बादल के जैसा हूँ; 
मेरा गीत सुना सब जागे, तुमको जैसे नींद आ गई, 
लगता मौन प्रतीक्षा में तुम सारी रात नहीं सोओगे! 
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

परिचय से पहले ही बोलो, 
उलझे किस ताने-बाने में?
तुम शायद पथ देख रहे थे, 
मुझको देर हुई आने में;
जगभर ने आशीष पठाए, तुमने कोई शब्द न भेजा,
लगता है तुम मन-बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे!

- रामावतार त्यागी
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अनूप भार्गव की पसंद 

शनिवार, 28 जून 2025

अकेला पानी

अपने ही अथाह में
खोजता है अकेला पानी
छिपने की जगह रेत में

रेत नहीं छिपाती उसे
ठेलती रहती है गहराई की ओर

रेत से पानी
पानी से रेत
मिल रहे हैं ऐसे ही
न जाने कब से इसी तरह
बचाए हुए अपना प्रेम

- ध्रुव शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 27 जून 2025

डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी का खाना

जिस चाव से विश्वनाथ जी खाते हैं पकवान
उसी चाव से खाते हैं नमक और रोटी
प्याज और मिर्च के साथ
चटनी देखते ही उनका चोला मगन हो जाता है ।

इस तरह कि उन्हें खाता हुआ देखकर
कुबेर के मुँह में पानी आ जाए
डॉक्टर अपनी हिदायतें भूल जाएँ
मंदाग्नि के रोगी की भूख खुल जाए
कुछ ऐसा कि उन्हें खिलाने वाला
उन्हें खाता हुआ देखकर ही अघा जाए ।
मुँह में एक निवाला गया नहीं कि बस
सिर हिला हौले से ‘वाह’
जैसे किसी ने बहुत सलीके से उन्हें
ग़ालिब का कोई शेर सुना दिया हो।
थाली का एक-एक चावल अँगुलियों से
उठाते हैं अक्षत की तरह
हाथ से खाते हैं भात
जैसे चम्मच से चावल खाना
मध्यस्थ के माध्यम से प्रेमिका का चुंबन लेना हो।

रस की उद्भावना में डूबे भरत से
कविता के अध्यापक विश्वनाथ जी ने
सीखा होगा शायद बातों-बातों में भी
व्यंजनों का रस लेना।

रोटी-दाल-भात-तरकारी
पूरी-पराठा-रायता-चटनी
दही बड़े और भरवा बैंगन
इडली-डोसा-चाट-समोसा
ज़रा इनका उच्चारण तो कीजिए
आप भी आदमी हो जाएँगे।

अगर अन्न-जल, भूख-प्यास न होते
तो कितनी उबाऊ होती यह दुनिया
अगर दुनिया में खाने-पीने की चीज़ें न होतीं
तो जीभ को राम कहने में भी रस नहीं मिलता।

विश्वनाथ जी का खाना देखकर मन करता है कि
आज बीवी से कहें कि वह
मटर का निमोना और आलू का चोखा बनाए 
जिसे खाया जा सके छककर।

बाबा किसी ग़रीब बाभन के बेटे रहे होंगे
अन्यथा अमीरी में पले हुए
किसी भी आदमी की जीभ पर
नहीं चढ़ सकता अन्नमात्र का ऐसा स्वाद
उनके खाने की तुलना ग़रीब मजूर या
हलवाहे की, खेत पर खुलने वाली
भूख से ही की जा सकती है।

अन्यथा जिनके पास विकल्प हैं स्वाद के
वे नहीं जानते भूख का स्वाद।

- दिनेश कुशवाह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 26 जून 2025

बेटियाँ जब विदा होती हैं

बेटियाँ जब विदा होती हैं
उदासी की बारिश में
भीग जाता है समूचा घर

घर के हर कोने में टँगा
बेटियों की अनुपस्थिति का साइनबोर्ड
दूर से ही चमकता है

जैसे रेगिस्तान में चमकती है
दूर-दूर तक 
सिर्फ़ रेत ही रेत। 

- जसवीर त्यागी
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विजया सती के सौजन्य से 

बुधवार, 25 जून 2025

अंतहीन हैं मेरी इच्छाएँ

समय बहुत कम है मेरे पास
और अंतहीन हैं मेरी इच्छाएँ

गोरैया-सा चहकना चाहती हूँ मैं
चाहती हूँ तितली की तरह उड़ना
और सारा रस पी लेना चाहती हूँ जीवन का

नाचना चाहती हूँ इस कदर कि
थक कर हो रहूँ निढाल

एक मछली की तरह तैरना चाहती हूँ
पानी की गहराइयों में

सबसे ऊँचे शिखर से देखना चाहती हूँ संसार
बहुत गहरे में कहीं गुम हो रहना चाहती हूँ मैं

इस कदर टूटकर करना चाहती हूँ प्यार 
कि बाकी न रहे
मेरा और तुम्हारा नाम-ओ-निशान
इस कदर होना चाहती हूँ मुक्त 
कि लाख खोजो
मुझे पा न सको तुम
फिर
कभी भी कहीं भी

- देवयानी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 24 जून 2025

कम नहीं हुआ है किसी पर मरने का मूल्य

बहुत छोटी हो गई है हमारी दुनिया
बहुत कम हुई है हमारी दुनिया की दूरी
पर हमारा भय कम नहीं हुआ है।

अलंघ्य कुछ भी नहीं है हमारी दुनिया में आज
पर वहीं की वहीं खड़ी है दो कमरों के बीच
दीवार दुर्भेद्य
जिसे दो जन हटाना चाहते हैं पूरे मन से
जबकि अभी-अभी गिरी है बर्लिन की दीवार।

देशों ने चखा है स्वतंत्रता का स्वाद
पर हमारे मुँह का कसैलापन कम नहीं हुआ है।

आँखों का कोना सहलाने जितनी मुलायमियत से
छूते ही कुछ बटनें
एक आदमी बोलता है हैलो
सात समुंदर पार
पर उस आदमी के लिए
हमारा तरसना कम नहीं हुआ।

आपसी बातचीत बढ़ी है दुनिया में
पर कम नहीं हुए हैं प्रश्न
दुनिया में आदान-प्रदान बढ़ा है
पर कम नहीं हुए हैं युद्ध।
युद्ध के सारे हथियार बदले हैं
पर एक चीज़ बिलकुल नहीं बदली
कि युद्ध में अब भी मरता है आदमी।

मारने की दर बढ़ी है दुनिया में
पर
कम नहीं हुआ है किसी पर मरने का मूल्य।

- दिनेश कुशवाह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 23 जून 2025

बाँसुरी

मैं बाँस का एक टुकड़ा था
तुमने मुझे यातना देकर
बाँसुरी बनाया

मैं तुम्हारे आनंद के लिए
बजता रहा
फिर रख दिया जाता रहा
घर के अँधेरे कोने में

जब तुम्हें ख़ुश होना होता था
तुम मुझे बजाते थे

मेरे रोम-रोम में पिघलती थीं
तुम्हारी साँसें
मैं दर्द से भर जाया करता था

तुमने मुझे बाँस के कोठ से
अलग किया
अपने ओठों से लगाया

मैं इस पीड़ा को भूल गया कि
मेरे अंदर कितने छेद हैं

मैं तुम्हारे अकेलेपन की बाँसुरी हूँ
तुम नहीं बजाते हो तो भी
मैं आदतन बज जाया करता हूँ।

- स्वप्निल श्रीवास्तव
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विजया सती की पसंद 

रविवार, 22 जून 2025

ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है

ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है
बहार आने की सूरत निकल भी सकती है

जला के शम्अ अब उठ-उठके देखना छोड़ो
वो ज़िम्मेदारी से अज़-ख़ुद पिघल भी सकती है

है शर्त सुब्ह के रस्ते से हो के शाम आए
तो रात उस को सहर में बदल भी सकती है

ज़रा सँभल के जलाना अक़ीदतों के चराग़
भड़क न जाएँ कि मसनद ये जल भी सकती है

अभी तो चाक पे जारी है रक़्स मिट्टी का
अभी कुम्हार की निय्यत बदल भी सकती है

ये आफ़्ताब से कह दो कि फ़ासला रक्खे
तपिश से बर्फ़ की दीवार गल भी सकती है

तिरे न आने की तशरीह कुछ ज़रूरी नहीं
कि तेरे आते ही दुनिया बदल भी सकती है

कोई ज़रूरी नहीं वो ही दिल को शाद करे
'अलीना' आप तबीअत बहल भी सकती है

- अलीना इतरत
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 21 जून 2025

मुलाक़ात

कल 
मेरी मुलाक़ात हुई 
मुझसे 
आईने के बिना 
अपना चेहरा 
देखने का
यह एक दुर्लभ 
दृश्य था!

- ज्योति कृष्ण वर्मा
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 20 जून 2025

पुखराजी धूप

सुबह की नरम पुखराजी वो धूप
खिड़की से आ के बिछौने पे मेरे
गुनगुने हाथों से छू के मुझे
कानों में प्यार से गुनगुन करे,
पीताभ, स्वर्णिम किरणों की चकमक
दूर के पीपल पे झलमल झलकती
मुंदी आँखों पे मेरी नर्तन करे,
मैं न उठूँ और लेटी रहूँ तो
भेजे गौरैया को, कुटकुट बधैय्या को
जो चूँ चूँ चहकती शरारत करें
भेजे हवाओं को, फूलों के सौरभ को
जो मन को मेरे, ताजगी से भरे!

फिर भी मैं आँखें मूंदे रहूँ
मलमल-सी आभा से लिपटी रहूँ तो,
तीखे परस से छूकर के मुझको
उठने को बेहद तंग वो करे,
उठते ही मेरे, बादल के पीछे
छुपती छुपाती, मिचौली-सी करती
खिड़की से कमरे में,
कमरे से आँगन में
दादी की खटिया से,
गैया की बछिया पे
थिरकती मचलती रुक-रुक के चलती
सबको उजाले से भर के हँसे,
कितनी सलोनी, कितनी अनूठी
पीली, सुनहरी, सरकती वो धूप
गरमा के आँगन, दीवारों और आलों को
पशमीने से कोमल मेरे ख्यालों को
दिनभर गलबहियाँ वो डाले मेरे

साँझ को पूरब की ऊँची मुँडेर पे
खिसक जाती, कहती - ‘अब हम चले’!

- दीप्ति गुप्ता
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 19 जून 2025

तुम

एक तुम वह हो
जो तुम हो
बतियाते हो मुझसे
मुझे सुनते हो
जाने क्या सोचते हो
जाने कैसे रहते हो
क्या चाहते हो
क्यों चाहते हो
चाहते भी हो या नहीं चाहते हो

एक तुम है
जो मुझमें है
शायद तुमसे मिलता-सा
शायद न मिलता हो तुमसे इस तरह
मैं अपने भीतर के इस तुम से बतियाती हूँ
उसकी आवाज़ें तुम तक जाती हैं

जब तुम कहते हो
मैं मुझमें बैठे तुम को सुनती हूँ
यह जो तुम बाहर हो मेरे सामने
यह जो मुझमें है
क्या यह भी बतियाते हैं दोनों

- देवयानी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 18 जून 2025

प्रीत किये दुख होय

हिमगिरी-सी पीड़ा सह जाने वाला हृदय
गौरेया के पंख की ठेस से टूट जाता है
जाते हुए तुम्हारी पीठ देखती हूँ
मेरी अंजुरी से छलक जाता है अमृत 

न धरती फटी न आसमान टूटा
ये संसार यथावत चलता रहा 
कहीं कोई पत्ता भी नहीं खड़का
मैंने अपने ही प्राण निकलते देखे
मेरी आँख से एक आँसू नहीं गिरा

सब इतना ठीक था, 
जैसे घड़ी न थमी 
न वक्त बदला
दीवार पर एक जाला नहीं था
मेरी चादर धुली हुई थी
मेरे माथे पर थी वही बिंदी
मैंने हँसना छोड़ा न गुनगुनाना
बस तुम्हारी पसंद का इत्र लगाना भूल गई 

तुम्हारे बाद आयु बची, जीवन नहीं

- श्रुति कुशवाहा
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विजया सती के सौजन्य से 

मंगलवार, 17 जून 2025

ये समय है

ये समय है 
बोलने का समय है
खुलेआम
भेद खोलने का समय है

लोग शोर में ज़िंदगी गुज़ारने लगे हैं
शोर मचाकर चुप रहना सीख जाते हैं
बोलना बेकार हो जाता है
लोग बोलना बंद करते जा रहे हैं
तभी तो बोलियाँ मिटती जा रही हैं
गोलियों की आवाज़ बढ़ती जा रही है

ये बेख़बर रहकर जीने का नहीं
समझकर बोलने का समय है
ये शैतान से संवाद का समय है
हैवान से जेहाद का समय है

ये किसी के बचने का नहीं
इसीलिए सबको बचाने का समय है
ये समय काम आ जाए तो बहुत अच्छा
न आए तो फिर सबके मिट जाने का समय है

- ध्रुव शुक्ल
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 16 जून 2025

प्रत्युत्तर

पड़ताली तर्जनी
हमारे पास है औ’
दिखाते हैं वे
अँगूठा-समाधान!

- देवी प्रसाद मिश्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 15 जून 2025

कुछ नहीं

समंदर कभी किसी के 
घावों के बारे में 
नहीं पूछता 
उसके पास 
नमक के सिवा 
कुछ नहीं

- ज्योति कृष्ण वर्मा 
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विजया सती के सौजन्य से 

शनिवार, 14 जून 2025

हे सृष्टिपिता!

हे सृष्टिपिता!
स्त्री देह गढ़ने वाले
तुम्हारे साँचे में ही कोई दोष है 
या मिट्टी ही वह किसी काम की नहीं 
या फिर नाप-तौल की समझ ही ज़रा कच्ची है तुम्हारी! 

आओ 
मैं तुम्हे सिखाती हूँ 
न्यून और आधिक्य का हिसाब 
और सधे हुए अनुपातों का गणित 
तुम ईश्वर हो तो क्या हुआ!
अपनी ही संतति से सीखने में कैसा संकोच! 

चलो पहले स्त्री के कंधे बनाऐंगे
देखो! बहुत कंजूसी ठीक नहीं
इतनी ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने के लिए 
मज़बूत कँधों की पेशियाँ बनाने में 
शक्ति की ज़रा ज़्यादा टिकाऊ मिट्टी लगती है

दिल धड़के भी, प्रेम भी करे और आघात भी सहे
यही दस्तूर है न तुम्हारी दुनिया का!
लिहाजा हृदय बनाऐंगे 
ज़रा मज़बूत और ख़ूब पक्की मिट्टी से
कि ज़रा ज़रा-सी बात पर आहत होकर टूट न जाए

हाथ पैरों को देंगे 
थोड़ा इस्पाती कलेवर
कि बाहर निकलकर कमा खा सके, 
इच्छा के विरुद्ध किसी बात पर
वक़्त पड़ने पर तमाचा या लात जड़ सके
सिर्फ धीरज के बल पर कोई कितना निर्वाह करे बाबा?

मति गढ़ेंगे, सूझ-बूझ से भरी प्रत्युत्तपन्नता वाली
कि निर्णय ले सके स्वयं समय पर
मुंह ही न देखती रहे किसी का

स्मृतियों के ख़ाने अलग-अलग रखेंगे 
कटु स्मृति को रखेंगे थोड़े ही समय रहने वाले ख़ाने में
कि दुखों की उम्र ज़रा कम लंबी हो

आत्मा हो
ज़रा कम लजीली, कम संकोची 
कि उम्र इज़्ज़त मर्यादा संस्कार 
और लोक व्यवहार की भेंट न चढ़ जाए

ओ प्यारे पिता 
अब के जो भेजो पृथ्वी पर कोई स्त्री 
तो उसकी देह की प्राण प्रतिष्ठा 
सम्मान और स्नेह के मंत्रों से करना

देना कम दुर्भाग्य,
कम लाज और भय
कम तिरस्कार, कम अपमान 
कम समझौते, कम हीनताबोध के घाव

देखो!
पिता होकर भेद न करना! 
अब अगर कोई निर्मिति हो  
तो अपनी दोनों संतानों को बराबर देना अवसर।

- सपना भट्ट
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 13 जून 2025

प्रतीक्षा

मछली
पानी में रह सकती है 
पानी की तस्वीर में नहीं 
तुम अपनी 
तस्वीर 
मत भेजो 
चली आओ!

- ज्योति कृष्ण वर्मा 
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विजया सती के सौजन्य से 

गुरुवार, 12 जून 2025

वे लड़कियाँ

वे लड़कियाँ बथुआ की तरह उगी थीं
जैसे गेहूँ के साथ बथुआ
बिन रोपे ही उग आता है
ठीक इसी तरह कुछ घरों में बेटियाँ
बेटों की चाह में अनचाहे ही आ जाती हैं!

पीर से जड़ी सुधियों की माला
पहनकर वे बिहँसती रहीं!

ख़ुद को खरपतवार मान
वे साध से गिनाती रहीं
कि भाई के जन्म पर क्या-क्या उछाह हुआ
और गर्व से बताती रहीं
कि कितने नाज़-नखरे से पला है
हम जलखुंभियों के बीच में ये स्वर्णकमल!

बिना किसी डाह के वे प्रसन्न रहीं
अपने परिजनों की इस दक्षता पर
कि कैसे एक ही कोख से
एक ही रक्त-माँस से
और एक ही
चेहरे-मोहरे के बच्चों के पालन में
दिन-रात का अंतर रखा गया!

समाज के शब्दकोश में दुख के कुछ स्पष्ट पर्यायवाची थे
जिनमें सिर्फ़ सटीक दुखों को रखा गया
इस दुख को पितृसत्तात्मक वेत्ताओं ने ठोस नहीं माना
बल्कि जिस बेटी की पीठ पर बेटा जन्मा
उस पीठ को घी से पोत दिया गया
इस तरह उस बेटी को भाग्यमानी कहकर मान दे दिया!

लल्ला को दुलारती दादी और माँ
लल्ला की कटोरी में बचा दूध-बताशा उसे ही थमातीं!
जैसे गेहूँ के साथ बथुआ भी अनायास सींच दिया जाता है
पर प्यास गेहूँ की ही देखी जाती है!

अपने भाग्य पर इतराती
वे लड़कियाँ कभी देख ही नहीं पाईं
कि भूख हमेशा लल्ला की ही मिटाई गई!

तुम बथुए की तरह उनके लल्ला के पास ही उगती रहीं
तो तुम्हें तुरंत कहाँ उखाड़कर फेंका जाता!

इसलिए दबी ही रहना
ज़्यादा छतनार होकर
बाढ़ न मार देना उनके दुलरुआ की!
जो ढेरों मनौतियों और देवी-देवता के अथक आशीष का फल है।

- रूपम मिश्रा 
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विजया सती के सौजन्य से 

बुधवार, 11 जून 2025

मनाकाश

आज निरभ्र है मनाकाश 
अगणित तारों के अनंत पसार तले
आज बदल सकती हूँ वस्त्र 
आज केवल सतरंगी ओस से ढक सकती हूँ
देह की अनन्य लाज 

आज तुम्हारे स्पर्श से आह्लादित है
गात का तटस्थ जल 
आज प्रतीक्षाओं को दे सकती हूँ
पूर्णता के सारे चमकीले क्षण

आज निर्भय हूँ!
आज चाहूँ तो 
दुख वाले हस्तक्षेपों के उमेठ सकती हूँ कान 
आज मृत्यु को बरजकर द्वार पर रोक सकती हूँ

आज खूब दिनों बाद 
भय और लज्जा के बहुलार्थों से मुक्त है आत्मा
आज रोक सकती हूँ युद्ध
लिख सकती हूँ कविता 

आज अथाह सुख से भरी हैं
देह की सब शिराएँ 

आज निकालकर दे सकती हूँ
तुम्हे अपना हृदय निसंकोच 

चटख लाल, गर्म और लबालब प्रेम से भरा

- सपना भट्ट
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विजया सती के सौजन्य से 

मंगलवार, 10 जून 2025

मृत्यु भी प्रबोधन है

सहसा किसी उदात्त क्षण 
धूप का उजला फूल अपनी वेणी में खोंसे 
विहँसती है जीवन की अंतिम साँझ

किसी अतिरेकी क्षण
देह के अंतिम दर्रे को लाँघकर 
आत्मा के सीले अँधेरे में उतरता है प्रभात 

रस छंद और अलंकारों की 
नाटकीयता से ऊबकर 
अचानक कागज़ पर स्याही उलट देता है कवि,
कविता शोक के धवल वस्त्र पहन लेती है

एकाएक असंभव, संभव हो जाता है

मन का मलंग मल्लाह 
मझधार में अकस्मात डुबो देता है नौका 
फेंक देता है पतवार 

प्रतीक्षालय में 
याद की आख़िरी सिगरेट फूँकते 
छूट जाती है प्लेटफॉर्म पर देर से खड़ी रेलगाड़ी 

धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है
मिलन की एषणा, प्रतीक्षा का सौंदर्य;

प्रेय को चूमने की उत्कट चाह 
धीरे से झर जाती है 

पीछे छूटे गझिन विलाप की 
रुआँसी प्रतिध्वनि कहती है 
कि "क्या हुआ जो तुमने किसी को चीह्नने में चूक की"!

सुख में फ्योंली के पीले फूलों को 
किसने वेणी में नहीं खोंसा! 

शोक में काँटों से उलझने का संताप
किसके अँचरे से नहीं बंधा!

जानती हूँ अनित्य है संसार!
और तो और भंगुर है प्रेम की यह मूक यातना भी

फिर भी इतना विलंब नहीं हुआ अभी
कि देह की सब शिराएँ निचोड़कर भी
बिछोह की निषिद्ध ऋतु की साँवली छाया को 
बुराँस के एक लाल फूल में न बदल सकूँ

इतनी संदिग्ध नहीं है बेला 
कि उसी मृदुल फूल को 
अपनी अनुरक्तियों के तमिस्र शवागार में रखकर 
प्रेम के अभीष्ट से मुक्ति की अभ्यर्थना भी न कर सकूँ 

- सपना भट्ट
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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 9 जून 2025

कई बार मैंने

कई बार मैंने कोशिश की
इस बाढ़ में से अपना एक हाथ निकालने की
कई बार भरोसा हुआ
कई बार दिखा यह है अंत

मैं कहना चाहता था
एक या दो मालूमी शब्द
जिन पर फ़िलहाल विश्वास किया जा सके
जो सबसे ज़रूरी हों फ़िलहाल

मैं चाहता था
एक तस्वीर के बारे में बतलाना
जो कुछ देर क़रीब-क़रीब सच हो
जो टँगी रहे चेहरों और

दृश्यों के मिटने के बाद कुछ देर
मैं एक पहाड़ का
वर्णन करना चाहता था
जिस पर चढ़ने की मैंने कोशिश की
जो लगातार गिराता था धूल और कंकड़
रहा होगा वह भूख का पहाड़

मैं एक लापता लड़के का
ब्यौरा देना चाहता था
जो कहीं गुस्से से खाता होगा रोटी
देखता होगा अपनी चोटों के निशान
अपने को कोसता
कहता हुआ चला जाऊँगा घर

मैं अपनी उदासी के लिए
क्षमा नहीं माँगना चाहता था
मैं नहीं चाहता था मामूली
इच्छाओं को चेहरे पर ले आना
मैं भूल नहीं जाना चाहता था
अपने घर का रास्ता।

- मंगलेश डबराल
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विजया सती के सौजन्य से 

रविवार, 8 जून 2025

वृक्ष विहीन

वृक्ष विहीन हुई जाती थी धरती
लालच की आँत फैलती जाती थी

ऐसे में देखा मैंने 
मेरे घर के गमले में
नन्हा-सा पीपल एक उगा है
दस-ग्यारह पत्ते फूटे हैं उस पर
लहराते हैं

शायद कोई पांखी 
खाकर गोल
उड़ते-उड़ते बीज यहाँ पर डाल गया था
पड़ा हुआ था जो मिट्टी में दबा हुआ था

पाकर परस हवा पानी का
उग आया है

मैंने सोचा
मैं इसको रोपूँगा घर के सम्मुख
सींचूँगा बाड़ करूँगा 
जिस पर पांखी आऐंगें

वृक्ष काटने वाले निशदिन जुटे हुए हैं बेशक 
लेकिन 
नन्हीं गुरगुल गौरैया टुइयाँ तोता
भी तो भरसक जुटे हुए हैं

विनोद पदरज
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विजया सती की पसंद 

शनिवार, 7 जून 2025

एक ही प्रेम

एक प्रेम काफ़ी है ज़िंदा रहने के लिए 
एक ही प्रेम नष्ट होने के लिए 
पर्याप्त है एक प्रेम का दंड

एक का ही वरदान कर देता है धन्य 
एक प्रेम की निराशा फैल जाती है दूर तक
और वही थाम लेता है आशा का चिथड़ा 
एक प्रेम से ऊब पैदा होती है, उसी से तृप्ति

एक प्रेम सूर्योदय और सूर्यास्त के लिए 
वही काफ़ी है रात में चाँद सितारों के वास्ते
एक प्रेम की व्यग्रता हो सकती है बर्दाश्त
सँभाली जा सकती है बस एक प्रेम की प्रसन्नता 
एक प्रेम गर्व से कर देता है सिर ऊँचा

और वही बैठा देता है घुटनों के बल 
जब कोई नहीं रहता, कुछ नहीं बचता 
सब विदा ले चुके होते हैं तो अतल की तलहटी में 
सूखे उजाड़ जीवन में टिमटिमाता है वही एक प्रेम 
उसकी टिमटिमाहट दिखती है प्रखर रौशनी की तरह 
जब सब तरफ़ कोलाहल, आपाधापी और घबराहट होती है

एक वही प्रेम हाथ थामकर देता है आत्मीय एकांत 
और वही धकेल देता है जीवन की भागमभाग में 
एक ही प्रेम कर देता है जीना मुश्किल 
और एक उसी के लिए तो अटकी हुई है यह साँस।

- कुमार अंबुज 
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 6 जून 2025

सौंदर्य

हम पहाड़ का सौंदर्य देखते हैं
पहाड़ का दुख नहीं 
हम समुद्र का सौंदर्य देखते हैं 
समुद्र का दुख नहीं 
हम मरुस्थल का सौंदर्य देखते हैं 
मरुस्थल का दुख नहीं 
हम स्त्री का सौंदर्य देखते हैं 
जो पहाड़ है 
समुद्र है 
मरुस्थल है।

- विनोद पदरज
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विजया सती की पसंद 

गुरुवार, 5 जून 2025

शर्म

अपने बच्चे को समझाती हूँ
दुनिया अब भी बहुत सुंदर है
वह पूछता है कैसे?
और मैं सोचती हूँ कहाँ से शुरू करूँ
पेड़?
हवा?
पानी?
प्रेम?
सत्य?
करुणा?
बस इतने पर आकर ही
थकने लगती हूँ प्रश्न चिह्नों से

और जवाब की
उत्सुकता में ताकता मेरा चेहरा
वह समझ जाता है मेरी चुप्पी का अर्थ
और मैं छिपाती हूँ अपनी शर्म

दिखाती हूँ बस खिले हुए कुछ फूल।

- राकी गर्ग
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विजया सती की पसंद