गुरुवार, 1 मई 2025

जब बड़ा बनूँगा

लार टपकाते हुए खा लिया
बड़ी मछली ने छोटी मछली को
बड़े आदमी ने छोटे आदमी को
बड़ी रेखा ने छोटी रेखा को
बड़े वृत्त ने छोटे वृत्त को
बड़े खेत ने छोटे खेत को
बड़ी हैसियत ने छोटी हैसियत को
और बड़े पेड़ों ने भी अंततः
छोटे पेड़ों को
ऐसे में आसमान ही था
जिसने पनपने दिया अपनी छाँव में हर किसी को
दिया हर किसी को हक-अधिकार पाने का अवसर
दिया जीवन-रस, रंग-ढंग, स्नेह
और भरपूर हरीतिमा
जब बड़ा बनूँगा
आसमान ही बनूँगा।

- खेमकरण ‘सोमन'

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-हरप्रीत  सिंह पुरी  की  पसंद 
 

बुधवार, 30 अप्रैल 2025

तीन दोस्त

बात पुरानी है।

तब बस तीन ही रंग थे।


लाल, पीला और नीला!

लाल रहता था हर लज़ीज़ वस्तु में,


जैसे टमाटर, सेब, चेरी और आलूबुख़ारे।

पीले ने बनाया था सूरज को चमकदार


जो मुस्कुराकर देता था रोशनी लगातार।

आसमान भी नीला था और समुंदर भी।


पेड़ों से टपकती बारिश भी नीली ही थी।

तीनों पक्के दोस्त थे।


एक दिन उन्होंने कहा, “हमें और दोस्त चाहिए। चलो नए दोस्त बनाएँ।” और वे निकल पड़े दोस्तों की तलाश में।

और देखो क्या हुआ!


लाल और पीला  साथ चले

तो एक नया दोस्त मिला—नारंगी


पीले और नीले ने हाथ मिलाया

तो एक नया दोस्त मिला—हरा


लाल और नीले के पास आते ही

एक नया दोस्त मिला—बैंगनी


और इस तरह उन्होंने दुनिया को बना दिया दोस्ताना और रंगीन।


-इंदु हरिकुमार

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 




 

मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

ओ मेरे विशेषण

 हर विशेषण विशेष्य को कमज़ोर करता है

क्योंकि वह उसे अपना मुहताज बना लेता है

इसीलिए तो, मेरे विशेषण !

तुम मुझसे जीत गए हो

इसीलिए तो तुम हर बार मुँह फ़ाड़ कर हँसते हो

जब मैं तुमसे अपना सिर टकराता हूँ ।

कितनी बड़ी मूर्खता थी यह सोचना कि तुम्हारे बिना मैं कुछ नहीं हूँ

जब कि मैं जो कुछ हूँ, हो सकता हूँ, या होऊँगा

वह उतना ही जितना तुम्हारे बिना हूँ ।

तुम मैं नहीं हो यह ठीक है

तो फिर तुम हो ही क्या

महज़ एक डर, एक संकोच, एक आदत

जिससे मैं चाहे छूट न भी पाऊँ

पर जो मैं नहीं हूँ।


-भारत भूषण अग्रवाल

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 28 अप्रैल 2025

चौराहा और पुस्तकालय

चौराहे पर खड़ा आदमी
बरसों से,
खड़ा ही है चौराहे पर
टस से मस भी नहीं हुआ!
जबकि—
पुस्तकालय में खड़ा आदमी
खड़े-खड़े ही पहुँच गया
देश-दुनिया के कोने-कोने में
जैसे हवा-सूरज, धूप-पानी
और बादल
फिर भी देश में
सबसे अधिक हैं चौराहे ही।


- खेमकरण ‘सोमन’ 

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-हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 27 अप्रैल 2025

बानी

उसने बानी दिया
जैसे रेत में ढूँढ़कर पानी दिया

उसने बानी दिया
जैसे रमैया से पूछकर
गुरु ग्यानी दिया

उसने बानी दिया
जैसे जीवन को नया मानी दिया

- यतीन्द्र मिश्र

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शनिवार, 26 अप्रैल 2025

जो शिलाएँ तोड़ते हैं

ज़िंदगी को
वह गढ़ेंगे जो शिलाएँ तोड़ते हैं,
जो भगीरथ नीर की निर्भय शिराएँ मोड़ते हैं।
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम के
श्रेष्ठतम् मैं मानता हूँ!!
ज़िंदगी को
वे गढ़ेंगे जो खदानें खोदते हैं,
लौह के सोए असुर को कर्म-रथ में जोतते हैं।
यज्ञ को इस शक्ति श्रम के
श्रेष्ठतम् मैं मानता हूँ!!
ज़िंदगी को
वे गढ़ेंगे जो प्रभंजन हाँकते हैं,
शूरवीरों के चरण से रक्त-रेखा आँकते हैं।
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम के
श्रेष्ठतम् मैं मानता हूँ!!
ज़िंदगी को
वे गढ़ेंगे जो प्रलय को रोकते हैं,
रक्त से रंजित धरा पर शांति का पथ खोजते हैं।
यज्ञ को इस शक्ति-श्रम के
श्रेष्ठतम् मैं मानता हूँ!!
मैं नया इंसान हूँ इस यज्ञ में सहयोग दूँगा।
ख़ूबसूरत ज़िंदगी की नौजवानी भोग लूँगा।

- केदारनाथ अग्रवाल

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 
 

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

जागो, हे गीत-पुरुष ! माँग है समय की

 जागो, हे गीत-पुरुष !
माँग है समय की ।
सम्भले कुछ बिगड़ी गति
छन्द और लय की !
सोने का समय नहीं
यह जाग्रति-वेला
चहल-पहल, कलरव का
लगना है मेला
क्षितिज बाट जोह रहा
बस सूर्योदय की !
बीत गया शीत
हुआ सूर्य उत्तरायण
शरशैया छोड़ो
सम्वेदना-परायण
करनी है यात्रा
ब्रह्माण्ड के वलय की !
तिमिस्रान्ध वसुधा पर
भोर नई जागे
फैले आलोक
धुन्ध, अन्धकार भागे
प्रसरित हो गन्ध चतुर्दिक
प्रभा मलय की !
रचनी है एक नई
सृष्टि छन्दधर्मी
रँगों का इन्द्रधनुष
बुनो, रँगकर्मी !
नभ गाथा बाँचेगा
पुनः दिग्विजय की !
है किंकर्तव्य समय
कुछ न सूझ पड़ता
शिलीभूत हिम पिघले
टूटे हर जड़ता
लाज रखो इस अधीर
युग के अनुनय की !
शब्दों को मिले अर्थ
अभिप्राय, आशय
क्षुधा को प्रभूत अन्न
तृषा को जलाशय
दिव्यता मिले मन को
भव्य हिमालय की !

- योगेन्द्र दत्त शर्मा

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 


गुरुवार, 24 अप्रैल 2025

विभाजन

तुमने सारे ठाठ इस आधार पर बनाए थे
कि एक की विजय
और दूसरे की पराजय होगी
तुमने दुनिया के लोगों को
या तो शत्रु समझा
या फिर मित्र
यानी तुम दो की सत्ता में विश्वास करते रहे
यह भूलकर
कि यह विभाजन दुनिया का नहीं
तुम्हारे मन का अपना है--।

- भारत भूषण अग्रवाल

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

 

बुधवार, 23 अप्रैल 2025

पीली साड़ियाँ

हर शाम मेरी माँ बहुत अच्छे-से सजती है

महज़ एक पुरानी क्रीम, चुटकी-भर टैल्कम पाउडर की मदद से


पीले रंग की एक साड़ी पहन उस जगह आ बैठती है

जहाँ किताबें पढ़ते हैं पिता मूर्तियों की तरह तल्लीन


अपनी मद्धम आवाज़ में वह कुछ कहती है

दिन-ब-दिन बहरे होते पिता नहीं सुनते


माँ बुदबुदाती है, जब कान थे, तब भी नहीं सुना,

अब क्या सुनेंगे, पकल नींबुओं जैसी इस उम्र में


उनका ध्यान खींचने के लिए चोरी से

स्टील का एक गिलास गिरा देती है वह टेबल से


सिर उठा देखते हैं पिता, उनकी आँखें चमक जाती हैं

आधी सदी बीत चुकी है शाम के इस कारोबार में


पीला, ऊर्जा व सोहाग का रंग है, तुम पर बहुत फबता है

कहते हैं वह, अपनी सुनहरी दलीलों की ओट में मुस्कुराते


जबकि मैं जानता हूँ, जिन जगहों से आए हैं पिता

वहाँ दूर-दूर तक फैले होते थे सरसों के पीले खेत


जब आँचल लहराती है मेरी माँ, लहरों से भर जाता है

पीले रंग का एक समुद्र : शाम की वह सूरजमुखी शांति


मेरी माँ ने ताउम्र महज़ पीली साड़ियाँ पहनीं

ताकि हर शाम अपने बचपन में लौट सकें मेरे पिता

 

- गीत चतुर्वेदी

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

अभ्यस्त हूँ

तुम्हारे नहा लेने के बाद,
तुम्हारे भीगे तौलिये से अपना बदन पोंछना,
तुम्हारा स्पर्श पा लेने जैसा है,
ज़िंदगी के तमाम उतार-चढ़ावों के बीच ये मेरे रोज़ का एक हिस्सा है।
तुम्हारे खा चुकने के बाद,
थाली में बचे हुए ज़रा से अन्न का निवाला,
चाव से खाना,
जैसे तुम्हारे हाथों का कौर ही हो
मेरे लिए प्रेम यही तो है।
साँझ ढले तुम्हारे काम से लौट आने के बाद,
तुम्हारी क़मीज़ से आती हुई पसीने की गंध को
धुलने से पहले,
अपने सीने से लगाना,
यह गंध मेरे लिए हरसिंगार के फूलों की गंध-सी होती है।
मैं अभ्यस्त हूँ इन तमाम कामों की,
जैसे रोज़ सूरज के उगने की…
मैं बेहद क़रीब हूँ, तुम्हारे पसीने की गंध वाली क़मीज़ के,
बेहद क़रीब हूँ मैं, तुम्हारे भीगे तौलिये के स्पर्श के।
तुम्हारी घड़ी और मोज़े सँभाल कर
रोज़ उन्हें ठीक जगह पर रख देना,
मेरे लिए प्रेम कर लेना है।

- अंकिता शाम्भवी

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- अनूप भार्गव की पसंद 

शनिवार, 19 अप्रैल 2025

प्रार्थना

 मैंने पूछा :

यदि मैं मर गया

अर्थी को कन्धा मिलेगा

मेरी क़ब्र सुनेगी क्या

प्रार्थना के दो शब्द...।


उत्तर मिला --

फ़ातिहा कौन पढ़ेगा...?


- धनंजय वर्मा

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-हरप्रीत सिंह पुरी को पसंद 

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

हिंदुस्तान सबका है

 न मेरा है न तेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है

नहीं समझी गई ये बात तो नुक़सान सबका है


हज़ारों रास्ते खोजे गए उस तक पहुँचने के

मगर पहुँचे हुए ये कह गए भगवान सबका है


जो इसमें मिल गईं नदियाँ वे दिखलाई नहीं देतीं

महासागर बनाने में मगर एहसान सबका है


ज़रा-से प्यार को खुशियों की हर झोली तरसती है

मुक़द्दर अपना-अपना है, मगर अरमान सबका है


'उदय' झूठी कहानी है सभी राजा और रानी की

जिसे हम वक़्त कहते हैं वही सुल्तान सबका है


- उदय प्रताप सिंह

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

जय जय जय बस बोल जमूरे

आँख मींच ले सच्चाई पर,

मत होंठो को खोल जमूरे।


प्रश्न, नहीं हैं जिनके उत्तर

उन प्रश्नों पर कान नहीं दे।

आत्म मुग्ध हो सुनते जाना,

निंदाओं पर ध्यान नहीं दे।


डाल बुद्धि पर

कुलुफ़ कड़ा तू,

जय-जय-जय बस बोल जमूरे।


उसके सिर रख इसकी टोपी,

ख़ूब अफ़र कर पल्लेदारी।

दरबारी रागों को गाकर,

पुख़्ता कर ले दावेदारी।


दबा काँख में

भले कटारी,

मुँह में मिश्री घोल जमूरे।


समाधान की बात करें जो,

उन क़लमों की नोक तोड़ दे।

समरसता के गीत पढ़ें जो,

उनकी दुखती रग मरोड़ दे।


भली करेंगे राम

फोड़ तू,

सद्भावों के ढोल जमूरे।


- अनामिका सिंह

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 16 अप्रैल 2025

क़ातिल मिसाल देता है

वो मिल के ग़ैर से ग़म को उबाल देता है

कि मेरी आंखों से दरिया निकाल देता है


तू इंसां होके भी मायूस उसकी रहमत से

जो एक कीड़े को पत्थर में पाल देता है


मैं इस अदा से हुई क़त्ल उसके हाथों से

मेरे तड़पने की क़ातिल मिसाल देता है


वो इक फ़क़ीर जो कासे को उल्टा रखता है

अमीर ए शहर को मुश्किल में डाल देता है


बंधी हैं उसके ही दामन से मेरी उम्मीदें

जो मेरे दिल को हवा में उछाल देता है


- नुजहत अंजुम

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 15 अप्रैल 2025

दावा

पथरिया पहाड़ी की ऊँचाई पर

आज हम

उन्नत मन, उन्नत सिर

नीचे गहरी खाई को

हिकारत से देखते हैं ।


धरती ने

गहरी खाई तक धँस कर

हमें यह ऊँचाई दी है...।


ताल ठोंक कर

खाई पर दावा है,

हम उससे ऊँचे हैं... ।


- धनंजय वर्मा

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से  

सोमवार, 14 अप्रैल 2025

आत्मावलंबन

 उसने कहा

क्या नाज़ है?

मैंने कहा 

हाँ बेशक!


चेहरे का रंग बदल जाता है

आँखों की पुतलियाँ धूमिल हो जाती हैं


नहीं बदलता

तो, मन का शफ्फाक रंग

बहता है निष्कलंक 

गंगा की तरह


खनखनाता है

कौड़ियों की तरह


वही सत्य है

वही सुंदर 

सौंदर्य आत्मावलंबन में है

हार जाने में नहीं!


नीना सिन्हा

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-हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 13 अप्रैल 2025

टूटा पहिया

मैं 
रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ 
लेकिन मुझे फेंको मत ! 

क्या जाने कब 
इस दुरूह चक्रव्यूह में 
अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ 
कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाय ! 

अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी 
बड़े-बड़े महारथी 
अकेली निहत्थी आवाज़ को 
अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहें 
तब मैं 
रथ का टूटा हुआ पहिया 
उसके हाथों में 
ब्रह्मास्त्रों से लोहा ले सकता हूँ ! 
मैं रथ का टूटा पहिया हूँ 

लेकिन मुझे फेंको मत 
इतिहासों की सामूहिक गति 
सहसा झूठी पड़ जाने पर 
क्या जाने 
सच्चाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले !

 -धर्मवीर भारती

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-हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 12 अप्रैल 2025

वासना

 आँच में तपकर

दूध उफना

आग ने पी लिया

एक सोंधी महक

माहौल में समा गई ।


वासना का ज्वार

संयम की सीमाएँ तोड़

उफना

दमित आकांक्षा ने तृप्ति पाई

एक दर्द मीठा-सा

मन में जगा

भला लगा ।


दूध चुक गया

वासना बुझ न पाई...।


- धनंजय वर्मा

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2025

ऊन के गोले

 कहाँ गए वह ऊन के गोले
जिनमें धँसा के रखती थी माँ दो सलाइयाँ 
जहाँ भी जाती, साथ ही रखती
रोज़ दुपहरी चौक में बैठी
धूप के धागों से वह बुनती थी गरमाहट
जैसे अंगुलियाँ वादक की
वीणा पर है किसी राग को बुनती
वैसी ही गति से, लय से
तुम भी अपना सपना बुनती थी
सोचता हूँ मैं
इससे तेज क्या बुनता होगा
ब्रह्मा सृष्टि के धागों को
पूरा होने पर स्वैटर के
घर में हमारे उत्सव होता
पहन के उसको मैं इतराता
सबको दिखाता
पाँव न होते ज़मीं पर मेरे
मानो माँ ने उस स्वैटर में पंख लगाए
हम चार थे
चारों के बारी-बारी से
पहने जाने पर भी
कुछ कम ना होता उसका नयापन
और जो गरमाहट चारों की 
एक ही कोख से जन्मी थी 
वो कैसे कम हो जाती उसमें? 
अब तो बहुत से स्वैटर 
घर में भरे पड़े हैं
पर कहीं न दिखते
ऊन के गोले, चारों भाई और सलाई पर माँ?

- नितेश व्यास

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

हे! मनस्वी मानवी

रज सने पग धर गए वो थान देवालय बनाया।
राजमहलों में न सुख वनवास में एश्वर्य पाया।
तुम 'उपेक्षा' को 'अपेक्षा' में बदलना जानती हो।
हाय! फिर भी बन 'दया का पात्र' जीना चाहती हो।

पूज्य, विदुषी-वामिनी,
अभिनत्व का अवसान लाओ।
तुम नवल उत्थान लाओ!

सोचती हो? मूकदर्शक, ये तुम्हें सहयोग देंगे।
रक्त की अंतिम तुम्हारी बूंद भी वे सोख लेंगे।
बिन कहे कब स्वत्व पाया? माँगना पड़ता यहाँ है।
रो न दे शिशु पूर्व इसके क्षीर भी मिलता कहाँ है!

अब उठो! तेजस्विनी,
स्वयमेव का सम्मान लाओ।
तुम नवल उत्थान लाओ!

भावनी, भव्या, भवानी के हृदय में भय बसेंगे?
चक्षुओं में दीप जिनके क्या उन्हें ये तम डसेंगे?
काल के कटु पृष्ठ पर संभावनाएँ जोड़नी हैं।
तुम वही जिसको समूची वर्जनाएँ तोड़नी हैं।

तमसो मा ज्योतिर्गमय का,
हर्षमय जय-गान लाओ।
तुम नवल उत्थान लाओ!

- इति शिवहरे
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 9 अप्रैल 2025

प्रार्थना

ईश्वर,
ध्यान देना

जब खड़ा होना पड़े मुझे
तो अपने अस्तित्व से ज़्यादा जगह न घेरूँ।

मैं ऋग्वेद के चरवाहों कि करुणा के साथ कहता हूँ,
मुझे इस अनंत ब्रह्मांड में
मेरे पेट से बड़ा खेत मत देना,
हल के भार से अधिक शक्ति,
बैल के आनंद से अधिक श्रम मत देना।

मैं तोलस्तोय के किसान से सीख लेकर कहता हूँ,
मुझे मत देना उतनी ज़मीन
जो मेरे रोज़ाना के इस्तेमाल से ज़्यादा हो,
हद से हद एक चारपाई जितनी जगह
जिसके पास में एक मेज़-कुर्सी आ जाए।

मुझे मेरे ज्ञान से ज़्यादा शब्द,
सत्य से ज़्यादा तर्क मत देना।

सबसे बड़ी बात
मुझे सत्य के सत्य से भी अवगत करवाना।

मुझे मत देना वह
जिसके लिए कोई और कर रहा हो प्रार्थना।

- रचित
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अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 8 अप्रैल 2025

लेखनी धर्म

शांति से 
रक्षा न हो, 
तो युद्ध में 
अनुरक्ति दे
लेखनी का 
धर्म है, 
युग-सत्य को 
अभिव्यक्ति दे!

छंद-भाषा-भावना 
माध्यम बने 
उद्घोष का
संकटों से 
प्राण-पण से 
जूझने की शक्ति दे!

- शैलेश मटियानी
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 5 अप्रैल 2025

द्वंद्व

सूरज भी
अलसाता है
थककर सो जाता है।
इतने विशाल उल्का की रौशनी
अँधेरा पी जाता है।

जीवन और काल
का भी
यही नाता है
एक आता है
एक जाता है
फटी बिवाइयों में
मरहम लग जाता है

काम
और क्रोध में
ज़िंदगी के लोभ में
हर कोई भूल जाता है
सूरज और संध्या का
यही अटूट नाता है।

कुछ भी
रहता नहीं
कुछ भी जाता नहीं
किनारे पे
खड़े-खड़े सब बह जाता है।
आपा-धापी दौड़-धूप लूट-खसोट
दूसरे की ज़मीन पर
महल बनाते-बनाते
अपना ढह जाता है।

- सुदर्शन प्रियदर्शिनी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

चिड़िया

महत्त्वाकाँक्षाओं की चिड़िया 
औरत की मुंडेर पर आ बैठी है 
दम साध शिकारी ने तान ली है बंदूक 
निशाने पर है चिड़िया 
अगर निशाना चूक गया 
तो औरत मरेगी!

- लीना मल्होत्रा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

चाँद

खिड़की के रास्ते
उस दिन
चाँद मेरी देहली पर
मीलों की दूरी नापता
तुम्हें छूकर आया

बैठा
मेरी मुँडेर पर
मैंने हथेली में भींचकर 
माथे से लगा लिया।

- सुदर्शन प्रियदर्शिनी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 2 अप्रैल 2025

यदि मिले अपकर्म से

यदि मिलें अपकर्म से,
उपलब्धियाँ, उपहार मुझको।
यह नहीं स्वीकार मुझको!

मूर्ख महिमासिद्ध हों, गौरवमयी उद्बोधनों से।
व्यक्त कर दूँ कंकरों को, मैं शिखर संबोधनों से।
तब मुझे यश-कीर्ति का दे लोभ, मत, मतिभ्रम बढ़ाओ।
है विनय करबद्ध, ये प्रस्ताव लेकर लौट जाओ।

वेदिका पर पाप की,
यजमान का सत्कार मुझको।
यह नहीं स्वीकार मुझको!

मत बताओ मार्ग मुझको, मैं भटकना चाहती हूँ।
मैं स्वयं के तीर्थाटन पर निकलना चाहती हूँ।
पुष्प सब चुन लो, यही सबसे बड़े अवरोध देंगे।
पथ सजाओ कंटकों से, तीव्र गति ये ही बनेंगे।

रोक सकता है अभी,
कोई मृदुल व्यवहार मुझको!
यह नहीं स्वीकार मुझको!

जो स्वयं को सूर्य समझें, शीत से अविदित नहीं हैं!
बस अभी मेरी उचित पहचान से परिचित नहीं हैं।
यदि उठाई आँख कोई, फिर प्रलय तक आ रुकूँगी।
मैं नदी, नभ तक गई हर बूँद वापस माँग लूँगी।

मैं करूँ निर्माण तब,
निर्वाण का अधिकार मुझको।
है यही स्वीकार मुझको!

- इति शिवहरे 
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

तेरा चुप रहना

तेरा चुप रहना मेरे ज़ेहन में क्या बैठ गया 
इतनी आवाज़ें तुझे दीं कि गला बैठ गया 

यूँ नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूँ 
जो भी उस पेड़ की छाँव में गया बैठ गया 

इतना मीठा था वो ग़ुस्से भरा लहज़ा मत पूछ 
उसने जिस-जिसको भी जाने का कहा बैठ गया 

अपना लड़ना भी मोहब्बत है तुम्हें इल्म नहीं 
चीखती तुम रही और मेरा गला बैठ गया 

उसकी मर्ज़ी वो जिसे पास बिठा ले अपने 
इस पे क्या लड़ना फ़लाँ मेरी जगह बैठ गया 

बात दरियाओं की सूरज की न तेरी है यहाँ 
दो क़दम जो भी मेरे साथ चला बैठ गया

बज़्म-ए-जानाँ में नशिस्तें नहीं होतीं मख़्सूस 
जो भी इक बार जहाँ बैठ गया बैठ गया

- तहज़ीब हाफ़ी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 31 मार्च 2025

शुक्रिया

मार्च की उस दुपहर
मेरे बाजू पर तुम्हारा चेहरा पड़ा था,
कानों पर चिपके नीले हेडफ़ोन्स और बिखरे बालों के बीच
दमकता तुम्हारा स्वप्निल चेहरा
केसरबाई केरकर की आवाज़ में राग केदार सुनते हुए
नींद में झूल रहे थे तुम।

दाहिनी बाँह पर तुम्हारी नींद को यूँ सजाकर
बाईं हथेली में तुम्हारी ही पांडुलिपि के पन्ने पकड़े
पढ़ती रही मैं,
तुम्हीं को।

किसी झिलमिल प्रेम-कविता जैसी यह दुपहर
विश्व कविता दिवस के रोज़ जीवन में आई थी।
कविता को शुक्रिया कहूँ,
या तुम्हें?

- प्रियंका दुबे
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अनूप भार्गव की पसंद 

शनिवार, 29 मार्च 2025

कुंडली तो मिल गई है

कुंडली तो मिल गई है,
मन नहीं मिलता, पुरोहित!
क्या सफल परिणय रहेगा?
गुण मिले सब जोग वर से, गोत्र भी उत्तम चुना है।
ठीक है कद, रंग भी मेरी तरह कुछ गेंहुआ है।
मिर्च मुझ पर माँ न जाने क्यों घुमाए जा रही है?
भाग्य से है प्राप्त घर-वर, बस यही समझा रही है।
भानु, शशि, गुरु, शुभ त्रिबल, गुण-दोष,
है सब-कुछ व्यवस्थित,
अब न प्रति-पल भय रहेगा?
रीति-रस्मों के लिए शुभ लग्न देखा जा रहा है।
क्यों अशुभ कुछ सोचकर, मुँह को कलेजा आ रहा है?
अब अपरिचित हित यहाँ मंतव्य जाना जा रहा है।
किंतु मेरा मौन 'हाँ' की ओर माना जा रहा है।
देह की हल्दी भरेगी,
घाव अंतस के अपरिमित?
सर्व मंगलमय रहेगा?
क्या सशंकित मांग पर सिंदूर की रेखा बनाऊँ?
सात पग भर मात्र चलकर साथ सदियों का निभाऊँ?
यज्ञ की समिधा लिए फिर से नए संकल्प भर लूँ?
क्या अपूरित प्रेम की सद्भावना उत्सर्ग कर दूँ?
भूलकर अपना अहित-हित,
पूर्ण हो जाऊँ समर्पित?
ये कुशल अभिनय रहेगा!
क्या सफल परिणय रहेगा?

- इति शिवहरे

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 28 मार्च 2025

मैं हूँ मानवी

मैं हूँ

समर्पण हैं, समझौते हैं

तुम हो बहुत क़रीब


मैं हूँ

हँसी है, ख़ुशी है

और तुम हो नज़दीक ही


मैं हूँ

दर्द है, आँसू हैं

तुम कहीं नहीं


मैं हूँ मानवी

ओ सभ्य पुरुष !


-  संध्या नवोदिता

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 27 मार्च 2025

आवाज दो

आज तुम

इस शाम

मुझे

इस अंधियारे

में उसी नाम

से पुकारो

जिस नाम से

पहली बार

तुम ने

बुलाया था

ताकि मैं

वही पुरानी

हूक में

डूब कर

सारा मालिन्य

धो कर

तुम्हारी आवाज पर

फिर से

लौट पाऊँ । 


 - सुदर्शन प्रियदर्शिनी

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 26 मार्च 2025

तुम ही प्रश्न नहीं करते हो

 तुम ही प्रश्न नहीं  करते हो मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।

हिम्मत करके बाहर आओ

ख़ुद के अंदर से निकलो,

बाहर तो आकाश खिला है

घर के अंदर से निकलो।

काया कल्प तुम्हारा कर दूँ 

ऐसा जंतर लिए खड़ा हूँ

तुम ही प्रश्न नहीं  करते हो

मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।


पर्वत से तुम नीचे आकर

बस थोड़ा सा लहराओ,

मंज़िल तुमको मिल जाएगी

नहीं तनिक भी घबराओ।

लहरों के आगोश में आओ

एक समंदर लिए खड़ा हूँ।।

तुम ही प्रश्न नहीं  करते हो

मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।


आओ आओ मुझको वर लो

मैं तो सिर्फ तुम्हारा हूँ,

तुम देहरी से भवन बना लो

मैं तो निपट दुआरा हूँ।

क्यों अब देर कर रहे प्रियतम

मैं तो अवसर लिए खड़ा हूँ।

तुम ही प्रश्न नहीं करते हो

मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।।


ये धरती जन्मों की प्यासी 

आओगे तो तृप्ति मिलेगी,

रेत हुए मन के आंगन को

एक अनोखी सृष्टि मिलेगी।

पानी बीज खाद बन जाओ

मैं मन बंजर लिए खड़ा हूँ।।


आखिर तुमने पूछ लिया है

धरती बादल का रिश्ता,

छुवन छुवन ने बता दिया है 

मरहम घायल का रिश्ता।

तुमने जादू फैलाया तो

मैं भी मंतर लिए खड़ा हूँ।

तुम ही प्रश्न नहीं करते हो

मैं तो उत्तर लिए खड़ा हूँ।।


- सर्वेश अस्थाना

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 25 मार्च 2025

क्या साहस हारुँगा

घटो-घटो मुझमें तुम, 

ओ मेरे परिवर्तन।

मंद नहीं होने दूँगा, 

मैं अपना अभिनव नर्तन।


क्या साहस हारुँगा! 

कभी नहीं-कभी नहीं! 


वीणा को सम पर रख, 

अमर राग गाऊँगा।

देह को अदेह बना, 

काल को बजाऊँगा।


जन्मों से बंद द्वार, 

मानस के खोलूँगा।

रच दूँगा नवल नृत्य, 

द्रुत लय पर दोलूँगा।


खुलो-खुलो मुझमें तुम, 

सकल सृष्टि के चेतन।

प्रसरित हो जाने दो, 

मेरा सब प्रेमाराधन।

कलुष सब बुहारूँगा।


क्या-साहस हारूँगा! 

कभी नहीं, कभी नहीं।


तम विदीर्ण कर दूँगा, 

रच दूँगा नये सूर्य।

अमर श्वाँस फूँकूँगा, 

होगी ध्वनि महा-तूर्य।


मथ दूँगा सृष्टि सकल, 

जन्मूँगा नव-मानव।

कण-कण को तब होगा, 

नव-चेतन का अनुभव।


उठो-उठो मुझमें तुम, 

ओ मेरे आराधन! 

मैं हूँ नैवेद्य स्वयं, 

मैं स्वाहा, मैं दर्शन।

दिव्य-देह धारूँगा।


क्या साहस हारूँगा! 

कभी नहीं, कभी नहीं।


- संजय सिंह 'मस्त'

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


सोमवार, 24 मार्च 2025

पाँच खिड़कियों वाले घर

 दर्पण में 

जन्मी छाया से

मैंने अपनी कथा कही ।


बहुत बढ़ाकर 

कहने पर भी

कथा रही 

ढाई आखर की

गूँज उठी 

सारी दीवारें

पाँच खिड़कियों 

वाले घर की


एक प्रहर 

युग-युग जीने की

सच पूछो तो प्रथा यही

- शतदल

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 23 मार्च 2025

साँचे में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ

 साँचे में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ

कुछ और पिघलने का हुनर सीख रहा हूँ


गिर-गिर के सँभलने का हुनर सीख लिया है

रफ़्तार से चलने का हुनर सीख रहा हूँ


मुमकिन है फ़लक छूने की तदबीर अलग हो

फ़िलहाल उछलने का हुनर सीख रहा हूँ


पूरब में उदय होना मुक़द्दर में लिखा था

पश्चिम में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ


कब तक मुझे घेरे में रखेंगी ये चटानें

रिस-रिस के निकलने का हुनर सीख रहा हूँ


- विजय कुमार स्वर्णकार

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शनिवार, 22 मार्च 2025

ऊँचाई है कि

 मैं वह ऊँचा नहीं जो मात्र ऊँचाई पर होता है

कवि हूँ और पतन के अंतिम बिंदु तक पीछा करता हूँ

हर ऊँचाई पर दबी दिखती है मुझे ऊँचाई की पूँछ

लगता है थोड़ी सी ऊँचाई और होनी चाहिए थी


पृथ्वी की मोटाई समुद्रतल की ऊँचाई है

लेकिन समुद्रतल से हर कोई ऊँचा होना चाहता है

पानी भी, उसकी लहर भी

यहाँ तक कि घास भी और किनारे पर पड़ी रेत भी

कोई जल से कोई थल से कोई निश्छल से भी ऊँचा उठना चाहता है छल से

जल बादलों तक

थल शिखरों तक

शिखर भी और ऊँचा होने के लिए

पेड़ों की ऊँचाई को अपने में शामिल कर लेता है

और बर्फ़ की ऊँचाई भी

और जहाँ दोनों नहीं, वहाँ वह घास की ऊँचाई भी

अपनी बताता है


ऊँचा तो ऊँचा सुनेगा, ऊँचा समझेगा

आँख उठाकर देखेगा भी तो सवाए या दूने को

लेकिन चौगुने सौ गुने ऊँचा हो जाने के बाद भी

ऊँचाई है कि हर बार बची रह जाती है

छूने को ।


- लीलाधर जगूड़ी

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शुक्रवार, 21 मार्च 2025

मौन ही मुखर है

 कितनी सुन्दर थी

वह नन्हीं-सी चिड़िया

कितनी मादकता थी

कण्ठ में उसके

जो लाँघ कर सीमाएँ सारी

कर देती थी आप्लावित

विस्तार को विराट के


कहते हैं

वह मौन हो गई है-

पर उसका संगीत तो

और भी कर रहा है गुंजरित-

तन-मन को

दिगदिगन्त को


इसीलिए कहा है

महाजनों ने कि

मौन ही मुखर है,

कि वामन ही विराट है ।


- विष्णु प्रभाकर

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


गुरुवार, 20 मार्च 2025

क्षणिकाएँ

 लिफाफा


पैगाम तुम्हारा 

और पता उनका 

दोनों के बीच 

फाड़ा मैं ही जाऊँगा।



झाड़न


पड़ा रहने दो मुझे

झटको मत

धूल बटोर रखी है

वह भी उड़ जाएगी।


- विश्वनाथ प्रताप सिंह

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 19 मार्च 2025

सुर

 कोई सुर अंदर ही बजता है कई बार

दीवार से टकराता है

बेसुरा नहीं होता फिर भी

 

कितनी ही बार छलकता है जमीन पर

पर फैलता नहीं

 

नदी में फेंक डालने की साजिश भी तो हुई इस सुर के साथ बार-बार

सुर बदला नहीं

 

सुर में सुख है

सुख में आशा

आशा में  साँस  का एक अंश

इतना अंश काफी है

मेरे लिए, मेरे अपनों के लिए, तुम्हारे लिए, पूरे के पूरे जमाने के लिए

पर इस सुर को

कभी सहलाया भी है ?

सुर में भी जान है

क्यों भूलते हो बार-बार


- वर्तिका नन्दा

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 18 मार्च 2025

क्षणिका

एयर-कन्डीशनर की

थोड़ी-सी हवा चुरा के रख दी है

मैंने

तुम्हारी पसंदीदा क़िताबों में


जब

ज्येष्ठ की दुपहरी में

बत्ती गुल हो जाएगी

और

झल्ला कर खोलोगे

तुम क़िताब


तो तुम्हे ठंडी हवा आएगी

 

- लीना मल्होत्रा

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-हरप्रीत सिंह पुरी के  सौजन्य से 

सोमवार, 17 मार्च 2025

भाषा में लोग

बहुत कुछ हुआ इस छोटे से इलाके की
छोटी-सी भाषा में
जो अब मृत भाषाओं की सूची में है
पूरा महाभारत हुआ ज़िंदगी का
मुख्य भाषा के साहित्य में मगर
अनलिखे, अनदिखे रहे वे लोग
जो सिर्फ़ अपनी भाषा में जी-मर रहे थे ।

- लीलाधर जगूड़ी

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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 16 मार्च 2025

प्रेम

 मुमकिन है बहुत कुछ

आसमान से चिपके तारे अपने गिरेबां में सजा लेना

शब्दों की तिजोरी को लबालब भर लेना


देखो तो इंद्रधनुष में ही इतने रंग आज भर आए

और तुम लगे सोचने

ये इंद्रधनुष को आज क्या हो गया!


सुर मिले इतने कि पूछा खुद से

ये नए सुरों की बारात यकायक कहाँ  से फुदक आई?


भीनी धूप से भर आई रजाई

मन की रूई में खिल गए झम-झम फूल


प्रियतम,

यह सब संभव है, विज्ञान से नहीं,

प्रेम में आँखें खुली हों या मुंदी

जो प्रेम करता है

उसके लिए कुछ सपना नहीं

बस, जो सोच लिया, वही अपना है।


-वर्तिका नन्दा

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 15 मार्च 2025

मौन

 वो सब बाते अनकही रह गई हैं 

जो मै तुमसे और तुम मुझसे कहना चाहती थीं 

हम भूल गए थे

जब आँखे बात करती हैं 

शब्द सहम कर खड़े रहते हैं 

रात की छलनी से छन के निकले थे जो पल

वे सब मौन ही थे

उन भटकी हुई दिशाओ में

तुम्हारी मुस्कराहटों से भरी नज़रों ने जो चाँदनी की चादर बिछाई थी

अँजुरी भर भर पी लिए थे नेत्रों ने लग्न-मन्त्र

याद है मुझे


अब भी मेरी सुबह जब ख़ुशगवार होती है

मै जानता हूँ ये बेवज़ह नही

तुम अपनी जुदा राह पर

मुझे याद कर रही हो


-लीना मल्होत्रा

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- हरप्रीत सिंह के सौजन्य से 
 

शुक्रवार, 14 मार्च 2025

छू पाओ तो

छू पाओ तो

मन को छू लो


उन्मन मन नीरिल नयनों में

मदिर फागुनी धूप खिलेगी

अनायास ही महक उठेगा

मन सपनों में गन्ध घुलेगी

भावों के

उन्मुक्त गगन में

डोल सको पँछी से डोलो

छू पाओ तो

मन को छू लो


तन मिट्टी का एक खिलौना

इसको पाया तो क्या पाया

नदी रेत की मृग की तृष्णा

छाया केवल, छाया, छाया

प्राणों की

शाश्वत वीणा पर

घोल सको अमृत स्वर घोलो

छू पाओ तो

मन को छू लो


-  मधु प्रधान

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 13 मार्च 2025

उन से नैन मिलाकर देखो

उन से नैन मिलाकर देखो

ये धोखा भी खा कर देखो


दूरी में क्या भेद छिपा है

इसकी खोज लगाकर देखो


किसी अकेली शाम की चुप में

गीत पुराने गाकर देखो


आज की रात बहुत काली है

सोच के दीप जला कर देखो


जाग-जाग कर उम्र कटी है

नींद के द्वार हिलाकर देखो


- मुनीर नियाज़ी

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 12 मार्च 2025

गिलहरी की उड़ान

 मैं लेना चाहता हूँ

सूरज से कुछ रोशनी

और बन जाना चाहता हूँ एक सुबह

जो किसी चिड़िया के चहचहाने की वज़ह बन जाए,


चाँद से कुछ चमक ले लूँ,

और बन जाऊँ चमकती लहरें

जो किनारे पर जाकर

कछुओं के बच्चों को

अपनी गोद में बिठाकर

समंदर तक छोड़ आयें


मैं रात से कुछ

अँधेरा भी लेना चाहूँगा

और बन जाना चाहूँगा एक नींद

जो बच्चों को सपनों की दुनिया में ले जा सके


मैं पेड़ों से उनकी शाखाएँ चाहता हूँ,

कुछ समय के लिए

और बन जाना चाहता हूँ एक झूला

जिस पर एक बाप

अपने बच्चे को एक ऊंचा-सा झोटा दे पाए


मैं परिंदों से

उनके पंख लेना चाहता हूँ

ताकि मैं एक लंबी उड़ान भर सकूँ

वही उड़ान

जो किसी गिलहरी ने अपने सपने में

देखी होगी!

- मुदित श्रीवास्तव

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 हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

मंगलवार, 11 मार्च 2025

इच्छा से मुँह फेरकर

दोस्ती में प्रेम था
प्रेम में इच्छा
इच्छा से मुँह फेर कर
वह कहाँ जाएगी?
इच्छा से मुँह फेरकर
वह रेल की पटरी पर जाएगी
या झील के किनारे
या नींद की दसवीं गोली के सिरहाने
तीसरी मंज़िल की मुँडेर पर
अंतिम इच्छा के संकोच तक
प्रेम  में इच्छा थी, इच्छा में तृष्णा
तृष्णा क्यों माँगती थी
अपने लिए जगह?
काफ़ी नहीं थी तृष्णा के लिए
उनींद, अधनींद, स्वप्न का दोष
तृष्णा से बचकर वह कहाँ रहेगी?
तृष्णा से बचकर
वह अपनी देह में रहेगी
कभी न उतरने वाले
निन्यानवे के बुख़ार की तरह
पाप की ऐंठन की तरह
प्रेम में इच्छा थी
इच्छा में देह
देह जब नहीं बचेगी
इच्छा कहाँ रहेगी?

- गगन गिल
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अनूप भार्गव के सौजन्य से 

सोमवार, 10 मार्च 2025

छोटी-सी इच्छा


तारों से लबालब
भरे आसमान को
दिल में समाने के लिए
आसमान से बड़ा दिल नहीं
प्रेम से लबालब भरा हुआ
एक छोटा-सा दिल चाहिए होगा
पूरी पृथ्वी को समाने के लिए
पृथ्वी से बड़ी इच्छा नहीं
चाहिए होगी
प्रेम कर पाने की
एक छोटी-सी इच्छा!

-  मुदित श्रीवास्तव

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

रविवार, 9 मार्च 2025

इश्तेहार

 उसने उसकी गली नहीं छोड़ी

अब भी वहीं चिपका है

फटे इश्तेहार की तरह

अच्छा हुआ मैं पहले

निकल आया

नहीं तो मेरा भी वही हाल होता।


- विश्वनाथ प्रताप सिंह 

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- हरप्रीत  सिंह पुरी की पसंद 

कुछ लड़कियाँ

कुछ लड़कियाँ खूब पढ़ रही हैं
कुछ लड़कियाँ अच्छे ओहदों पर पहुँच रही हैं
कुछ लड़कियाँ अपने हकों के लिए लड़ रही हैं
कुछ लड़कियाँ कविताएँ लिख रही हैं
कुछ लड़कियाँ डरती नहीं किसी से
कुछ लड़कियाँ पार्टी कर रही हैं
कुछ लड़कियाँ खुलकर हँस रही हैं
कुछ लड़कियाँ प्यार में हैं

कुछ लड़कियों को देख लगता है
अब लड़कियों की दुनिया बदल चुकी है
उनकी दुनिया का अँधेरा मिट चुका है

लेकिन अभी भी बहुत सारी लड़कियाँ
पढ़ाई पूरी नहीं कर पा रहीं
जूझ रही हैं अपनी पसंद के विषय की पढ़ाई के लिए,
आगे की पढ़ाई के लिए
बहुत सारी लड़कियाँ
अपनी पसंद के रिश्तों के सपने से भी बाहर हैं
बहुत सारी लड़कियाँ पूरी पढ़ाई करके भी
जी रही हैं अधूरी ज़िंदगी ही
बहुत सारी लड़कियाँ पैसे कमा रही हैं
लेकिन नहीं कमा पा रही हैं अपने हिस्से के सुख
बहुत सारी लड़कियाँ उलझी हुई हैं
साज-शृंगार में, तीज त्योहार में
बहुत सारी लड़कियाँ
एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ी की जा रही हैं
बहुत सारी लड़कियाँ अन्याय को सह जाने को अभिशप्त हैं
कुछ लड़कियों और बहुत-सी लड़कियों के बीच एक लंबी दूरी है
कुछ लड़कियों के बारे में सोचना सुख से भरता है
लेकिन हक़ीक़त की धूप 
हथेली पर रखे इस ज़रा से सुख को पिघला देती है

कुछ लड़कियों के चेहरे बहुत सारी लड़कियों जैसे लगने लगते हैं
‘अब सब ठीक होने लगा है’ का भ्रम टूटने लगता है
कि ज्यादा नुकीले हो गए हैं
स्त्रियों की हिम्मत को तोड़ने वाले हथियार
ज्यादा शातिर हो गई हैं
उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की साजिशें
झूठ की पालिश से खूब चमकाए जा रहे हैं मुहावरे
कि अब सब ठीक-ठाक है...

जबकि असुरक्षा के घेरे से बाहर न ये कुछ लड़कियाँ हैं
न बहुत सारी लड़कियाँ।

- प्रतिभा कटियार
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अनूप भार्गव की पसंद 

शनिवार, 8 मार्च 2025

सबकुछ

सबकुछ होने के बाद

जो कुछ नहीं है

वही तुम हो


तुम्हारे होने के बाद

जो भी कुछ है

वही सबकुछ है


- मुदित श्रीवास्तव
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 7 मार्च 2025

ग्रीष्म तक

अब मैं तुम्हें मिल नहीं पाऊँगी 

अब मैं लौट गई हूँ 

उन्हीं पत्तों में 

जिनकी मैं हरियाली थी


मैं लौट गई चिरपरिचित उसी अरण्य में 

जहाँ मैं सुनती रही थी अब तक 

दूसरे जीवों के जीवन-राग 

विशद आलाप 

देखती रही हूँ उनके जन्म 

उनके अवसान


अब मैं तुम्हें नहीं मिल सकूँगी 

बन गई हूँ दोबारा वह कोयल 

रोके रखती है जो अपनी आवाज़ 

ग्रीष्म तक

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- सविता सिंह

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अनूप भार्गव के सौजन्य से 


गुरुवार, 6 मार्च 2025

बचपन का घर

जब बचपन के घर से,
माता-पिता के घर से, बाहर चला था
तब ख़याल नहीं आया
कि यह यात्रा एक और घर के लिए है
जो निर्लज्जता के साथ छीन लेगा
मुझसे मेरे बचपन का घर।

यूँ दे जाएगा एक टीस
जिसे लाखों लोग महसूस करते हैं
क्योंकि दुनियादारी होते हुए
रोज़ छूट रहे हैं
लाखों लोगों के
लाखों बचपन के घर।

कितना अजीब है
जो हम खो देते हैं उमर की ढलान पर
वह फिर कभी नहीं लौटता
जैसे देह से प्राण निकल जाने के बाद फिर कुछ नहीं हो पाता
ठीक वैसे ही गुम जाता है बचपन का घर।

माता-पिता, भाई-बहन,
प्यार, झगड़ा, ज़िद, दुलार, सुख
सब चले जाते हैं
किसी ऐसे देश में
जहाँ नहीं जाया जा सकता है
जीवन की हर संभव कोशिश के बाद भी
वहाँ कोई नहीं पहुँच सकता।

ना तो चीज़ों को काटा-छांटा जा सकता है
और ना गुमी चीज़ों को जोड़ा जा सकता है
पूरा दम लगाकर भी
फिर से नहीं बन सकता है, बचपन का घर।

हम सब,
माता-पिता, भाई-बहन,
आज भी कई बार इकट्ठा होते हैं
बचपन के घर में
पर तब वह घर एक नया घर होता है,
वह बचपन का घर नहीं हो पाता है।

- तरुण भटनागर
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 5 मार्च 2025

अक्सर तुम शाम को

अक्सर तुम शाम को घर आकर पूछते
आज क्या-क्या किया?
मैं अचकचा जाती
सोचने पर भी जवाब न खोज पाती
कि मैंने दिन भर क्या किया
आखिर वक्त ख़्वाब की तरह कहाँ बीत गया
और हारकर कहती 'कुछ नहीं'
तुम रहस्यमयी ढंग से मुस्कुरा देते!

उस दिन मेरा मुरझाया 'कुछ नहीं' सुनकर
तुमने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा
सुनो ये 'कुछ नहीं' करना भी हर किसी के बस का नहीं है
सूर्य की पहली किरण संग उठना
मेरी चाय में ताज़गी
और बच्चों के दूध में तंदुरुस्ती मिलाना
टिफिन में खुशियाँ भरना
उन्हें स्कूल रवाना करना
फिर मेरा नाश्ता
मुझे दफ़्तर विदा करना
काम वाली बाई से लेकर
बच्चों के आने के वक्त तक
खाना कपड़े सफाई
पढ़ाई
फिर साँझ के आग्रह
रात के मसौदे
और इत्ते सबके बीच से भी थोड़ा वक्त
बाहर के काम के लिए भी चुरा लेना
कहो तो इतना 'कुछ नहीं' कैसे कर लेती हो

मैं मुग्ध सुन रही थी
तुम कहते जा रहे थे

तुम्हारा 'कुछ नहीं' ही इस घर के प्राण हैं
ऋणी हैं हम तुम्हारे इस 'कुछ नहीं' के
तुम 'कुछ नहीं' करती हो तभी हम 'बहुत कुछ' कर पाते हैं
तुम्हारा 'कुछ नहीं'
हमारी निश्चिंतता है
हमारा आश्रय है
हमारी महत्वाकांक्षा है
तुम्हारे 'कुछ नहीं' से ही ये मकां घर बनता है
तुम्हारे 'कुछ नहीं' से ही इस घर के सारे सुख हैं
वैभव है

मैं चकित सुनती रही
तुम्हारा एक-एक अक्षर स्पृहणीय था
तुमने मेरे समर्पण को मान दिया
मेरे 'कुछ नहीं' को सम्मान दिया

अब 'कुछ नहीं' करने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं
बस तुम प्रीत से मेरा मोल लगाते रहना
मान से मेरा शृंगार किया करना

- निधि सक्सेना
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 4 मार्च 2025

शाम लेने अब लगी अँगड़ाइयाँ

शाम लेने अब लगी अँगड़ाइयाँ
क़द से लंबी हो गईं परछाइयाँ

ये सियासत की गली है, लाख बच,
तय यहाँ तेरी भी हैं रुसवाइयाँ

महफ़िलों की बात हमसे, क्यूँ भला,
चुन रखी हैं हमने तो तनहाइयाँ

कितनी उथली थी नदी, जिसकी तुम्हें,
था वहम कि खू़ब हैं गहराइयाँ

हो भले मातम यहाँ, पर उसके घर
किस तरह से बज रहीं शहनाइयाँ

ये हुनर क्या खू़ब उसने पा लिया,
‘धूप’ साबित हो गईं ‘जुन्हाइयाँ’

एक शायर की वसीयत क्या भला,
चंद ग़ज़लें, गीत औ‘ रूबाइयाँ

- दिनेश गौतम
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 3 मार्च 2025

तुम्हारे पालने के बाहर

तुम्हारे पालने के बाहर
एक रतजगा ऐसा भी है
जिसमें रात नहीं होती।

जिसमें देह की परतें खुल जाती हैं
भाषा से शब्द झर जाते हैं
आँखें आँख नहीं रहतीं
वे स्वप्न हो जाती हैं
बोध के संदर्भ जिसमें उलट जाते हैं
काल का व्याकरण गल जाता है।

तुम्हारे पालने के बाहर
एक थकान ऐसी भी होती है
जो अपनी ही ताजगी है
आशंकाएँ जिसमें खूब गरदन उठाती हैं
एक आक्रांत स्नेह अपने भविष्यगत संदिग्धों
की तलाश में होता है
और यहीं से उन सबका शिकार करता है
आने वाले दुर्गम पथों पर
माटी की नरम मोयम रखता हुआ

तुम्हारे पालने के बाहर
एक बीहड़ है जिसमें
एक बागी हुआ मन गाता रहता है
मानव मुक्ति के गीत
उसके हाथ
केसर कुदाल करतब करताल
होते रहते हैं

एक मोम हुआ हृदय ऐसा भी होता है
तुम्हारे पालने के बाहर
जो अपने दुस्वप्नों और हाहाकारों में
तुम्हारी असंज्ञ चेतन मुस्कान
भर रहा होता है।

- तुषार धवल
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संपादकीय चयन 

रविवार, 2 मार्च 2025

आकांक्षा

कोई अनचीन्ही आकांक्षा हो तुम
जैसे मन का कोई अनसुना कोलाहल

कई बार मन की मुंडेरों से बाहर झाँका
परंतु वहाँ मुझे मिलीं मेरी ही सलज्ज आँखे
टकटकी बांधे कुछ अनकहा खोजती

पता है तुम्हें
रोज़ कान्हा को नैवेद्य रखती हूँ
फिर उसे माथे से लगाकर बाँट देती हूँ
वंचित रखती हूँ स्वयं को इस तृप्ति से
ये अतृप्ति आसक्ति का कोई रूप है
या मेरी हठ है
ज्ञात नहीं 
परंतु अतृप्त होना आहूत करता है मुझे
मन जैसे केसरिया चूनर ओढ़ लेता हो

आकांक्षाएँ पूर्ण हो जाए
तो नश्वर हो जाती हैं
और तुम तो अनिवार्यता हो
पृथ्वी जल वायु अग्नि और नेहमयी नभ की तरह

तुम यूँ ही रहो अप्राप्य
कागज़ में फिरती स्मृति की तरह
मन में बिखरती उदासी की तरह
आँखों से झरती कनक ओस की तरह

मैं खोजती रहूँगी पूर्णता
मन में स्वरित सन्नाटों में
बुझते दीये की महक में
सपनों में उभरते बिंबों में

कि कुछ आकाक्षाएँ कभी पूरी न हो
मन के स्फुरण के लिए आवश्यक है ये

- निधि सक्सेना
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 1 मार्च 2025

फिर बीता वसंत

तपती हवाओं में झुलस गई 
पाँखें वसंत की।

नदियों में पिघल 
बह गई 
साँसें बसंत की

अमराइयों में भँवरे 
बौरों से कर रहे 
बातें बसंत की

रेत की नदी में 
ठिठक गई 
नावें बसंत की

फिर बीता बसंत 
ताक पर रखीं रह गई 
यादें वसंत की।

- सुरेश ऋतुपर्ण 
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

कुछ अचंभे कुछ अजूबे

कुछ अचंभे कुछ अजूबे घर हमारे देखिए
सब के ऊपर हो गए नौकर हमारे देखिए

देखकर अपनी ही परछाईं को यारों चौकना
किस तरह घर कर गया है डर हमारे देखिए

उड़ के दिखलाऊँगा मैं भी सिर्फ़ इतना ही कहा
जड़ से ही कतरे गए हैं पर हमारे देखिए

खोलकर नन्हीं-सी मुठ्ठी एक बच्चे ने कहा
किसने रखे हाथ पर पत्थर हमारे देखिए

अपनी ही चीखें नहीं पड़ती सुनाई अब यहाँ
अब यहाँ तक दब गए हैं स्वर हमारे देखिए

- प्रताप सोमवंशी
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

बहनें

आँगन में बंधे खंभे से
लट-सी उलझ जाती हैं बहनें
और दर्द की एक सदी
खुली छत की गर्म हवा में
कबूतर बन उड़ जाती है।

वे बाप की छप्पन साल पुरानी कमीज़ हैं
वे माँ के बचपन की यादें हैं
जो
उठती हैं हर शाम
चूल्हे के धूएँ संग
और
उड़तीं हैं पतंग बन।

वे चुनती हैं
प्याली भर चावल
कि
ज़िंदगी को बनाया जा सके
अधिक से अधिक
साफ़ और सफ़ेद।

वे बनती हैं
आँगन से गली
और
गली से मैदान
जहाँ
रात की चादर में
बुलबुले सी फूटती है भोर
और
देखते ही देखते
धरती की माँ बन जाती हैं
बहनें।

- तुषार धवल
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

दूर्वा

ओ दूर्वा
तुम जो अपनी लचीली देह लिए खड़ी रहती हो
हर सुनी-अनसुनी आहट पर झुक जाती हो
धूल के कण अलक से लगाती हो

हर पग सहलाती हो
सहमी काँपती दरकती
भीतर-भीतर रोती

हर क्षण समर्पित
निमिष निमिष पराजित
आकुल उपेक्षित

क्या कभी प्रयास किया तुमने
क्या कभी सोचा भी ये
कि तनिक कठोर हो जाऊँ
कभी तो चुभूँ
अपनी व्यथा कहूँ
अपनी उपस्थिति दर्ज कराऊँ

- निधि सक्सेना
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

सुना है

 सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है 
सुना है शेर का जब पेट भर जाए तो वो हमला नहीं करता 
दरख़्तों की घनी छाँव में जा कर लेट जाता है 
हवा के तेज़ झोंके जब दरख़्तों को हिलाते हैं 
तो मैना अपने बच्चे छोड़ कर 
कव्वे के अंडों को परों से थाम लेती है 
सुना है घोंसले से कोई बच्चा गिर पड़े तो सारा जंगल जाग जाता है 
सुना है जब किसी नद्दी के पानी में 
बए के घोंसले का गंदुमी रंग लरज़ता है 
तो नद्दी की रुपहली मछलियाँ उस को पड़ोसन मान लेती हैं 

कभी तूफ़ान आ जाए, कोई पुल टूट जाए तो 
किसी लकड़ी के तख़्ते पर 
गिलहरी, साँप, बकरी और चीता साथ होते हैं 
सुना है जंगलों का भी कोई दस्तूर होता है

- ज़ेहरा निगाह 

- अनूप भार्गव के सौजन्य से 

सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

उसने मिट्टी को छुआ भर था

उसने मिट्टी को छुआ भर था
धरती ने उसे सीने से लगा लिया
उसने पौधे लगाए
ख़ुश्बू उसकी बातों से आने लगी
पेड़ समझने लगे उसकी भाषा
फल ख़ुद-ब-ख़ुद
उसके पास आने लगे
पक्षी और पशु तो
सगे-सहोदर से बढ़कर हो गए
जो मुश्किल भाँपते ही नहीं
उन्हें दूर करने की राह भी सुझाते हैं

मैने पूछा भाई प्रेम सिंह!
क्या कुछ खास हो रहा है इन दिनों
खिलखिला पड़े वो

कहने लगे,

लोग जिस स्वर्ग की तलाश में हैं
मैं वही बनाने में जुटा हूँ

- प्रताप सोमवंशी
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संपादकीय चयन 

रविवार, 23 फ़रवरी 2025

गजरा बेचने वाली स्त्री

गजरा बेचने वाली स्त्री
गजरा बेच रही है
वह खुद बदसूरत है
लेकिन दूसरे को सुंदर बनाने के लिए
सुंदरता बेच रही है।

गजरा बेचने वाली स्त्री का दिल कोमल है
लेकिन पैर में बिवाइयाँ फटी हैं
उसने गजरे में पिरो रखे हैं अरमान

उसके अरमान
जो फूलों में गजरे की तरह पिरोए हैं
वह खुद गजरा नहीं लगाती
लेकिन दूसरे को गजरा लगाने की
विशेषताएँ बताती हैं

अजीब विडंबना है कि
सुंदरता बेचने वाली इस असुंदर स्त्री के
सपनों में आती हैं
कई-कई गजरे वाली स्त्रियाँ
और इसका उपहास करती हुईं
गुम हो जाती हैं आकाश में
तब गजरों में पिरोए फूल कांटे की तरह
चुभते हैं उसके सीने में!

- निर्मला पुतुल
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

अथक बटोही

उषाकाल में अथक बटोही,
कहाँ आज है दाना चुगना,
उत्तिष्ठ पसारे पंख गगन में,
किस पड़ाव है तुमको मुड़ना।

एक डाल विश्राम करें तो,
जैसे मुक्ता जड़े हार में,
एक धरा पर चुगते चलते,
जैसे कड़ी जुड़े तार में।

सूझ-बूझ से मार्ग सुझाते,
कभी दूजे की राह न आते,
निरंतर अंतर पर अंबर में,
स्वपरिधि सब उड़ते जाते।

गलबैंया डाल, मिलें, उड़ें जब,
प्रस्फुट नेतृत्व आदर्श वहीं,
सात समुंदर पार चले तो,
लक्षित अनुशासन न और कहीं।

- आरती लोकेश
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

पत्र तुम्हारे नाम

सुर्ख सुबह
चंपई दुपहरी
रंग रंग से लिख जाता मन
पत्र तुम्हारे नाम

बाहों के ख़ालीपन पर यह
बढ़ता हुआ दवाब
चहरे पर थकान के जाले
बुनता हुआ तनाव
बढ़ने लगे देह से लिपटी
यादों के आयाम

घबराहट भरती चुप्पी ने
नाप लिया है दिन
पत्थर-पत्थर हुए जा रहे
हाथ कटे पलछिन
मिटते नहीं मिटाए अब तो
होंठो लगे विराम

- सोम ठाकुर
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

कई बार ऐसा हुआ

कई बार ऐसा हुआ
शब्द हाथों से छूटकर
टूटकर बिखर गए
ज़मीन पर

अपनी ही तलाश में
शब्दों को गढ़ा कई बार
आवरण में रखा सहेजकर
और वो दर्द सहा
जो ख़ुद को छिपाने में रहा

कई बार ऐसा हुआ
अपने ही ख़िलाफ़ तन गए हम
यूँ ही ख़ुद से रूठकर

- हेमंत जोशी
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

स्याही

पन्नों पर छींटे रंगीन, या कोई है कलाकृति,
आड़ी तिरछी रेखाएँ, या है अतुल्य आकृति,
नटखट मन ने दी उँडेल, स्याही की अनुकृति,
या किसी विज्ञ ने है रची, यहाँ अनन्य सुकृति।

बाहर बिखेरे गए जो, थे दवात में डूबे अक्षर,
या उकेरे गए पृष्ठ पर, शांत अंतर्मन के निर्झर,
दीप्त हुए पा रोशनाई, जो तमस में लुप्त अंकुर,
या कुरेदे हैं नियति ने, मरु लेख में लघु कंकर।

कण-कण जुड़े हुए हैं, या भग्न कोई अवशेष,
तार-तार से कड़ी बनी, छिन्न-भिन्न रण वेश,
गूँथ दिए सुमन माला, या छितरे हैं पुष्प केश,
मोती चुन हार बना, या मणि छिटकी विशेष।

चक्षु से उर के भाव ये, असक्षम सहज ग्रहण,
मस्तिष्क भवन न सकें, स्याही टुकड़े भ्रमण,
हृदय से हृदय की लौ, सीमा करे अतिक्रमण,
मृदुवाणी काव्यकृति, हृदयंगम अंतस वरण।

- आरती लोकेश
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

सफ़र पर

यह वक्त शब्दों के दीए जलाने का है
कहा एक कवि ने
और मैंने सचमुच एक दीया जलाकर
आँगन में रख दिया

वह लड़ता रहा अँधेरे से
लड़ता रहा आँधियों से
लड़ता रहा एक पूरी रुत से
और धीरे-धीरे
मेरे जिस्म में एकाकार हो गया

अब मेरे हर शब्द में है एक मशाल
और शब्द निकले हैं सफ़र पर।

- गुरमीत बेदी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 16 फ़रवरी 2025

जलीय रिश्ता-नाता

धरती में गुँथे अपने रूपों को निहारता
पहचान में लहर-लहर होता
यह जल ही ज़लज़ले उठाता है देह में मन में
भावना के तूफ़ानों 
भवता और भाव के बियाबानों में
ज़रा भटककर देखो
उतरो
अपने ही अचेतन तहख़ानों में
जहाँ तुम क़ैद हो
वहीं मुक्ति है!

धरा में
रेशा-रेशा समाए जल से जुड़कर
तुम्हारा रक्त उछालें खाता है
जितना जल है धरती में
उतना ही क्यों
तुम्हारी देह में समाता है?

इस फैली-खिली दुनिया से
बस
क़तरा भर का तुम्हारा नाता है!

- बलदेव वंशी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

दिग्विजय

बादल को बाँहों में भर लो
एक और अनहोनी कर लो!

अंगों में बिजलियाँ लपेटो,
चरणों मे दूरियाँ समेटो;
नभ की पदचापों से भर दो
ओ दिग्विजयी मनु के बेटो!
इंद्रधनुष कंधों पर धर लो!
एक और अनहोनी कर लो!

अंतरिक्ष घर है तो डर क्या?
नीचे-ऊपर, इधर-उधर क्या?
साँसों में भर गईं दिशाएँ
फिर क्या भीतर है, बाहर क्या?
तारों की सीढ़ियाँ उतर लो!
एक और अनहोनी कर लो!

शीत-ताप हीन करो तन को,
करने दो प्रतीक्षा मरण को;
शीशे के ट्यूबों में भर लो
भटक रहे आवारा मन को!
ईथर में डूब लो, उभर लो!
एक और अनहोनी कर लो!

पथ पर वे बीते क्षण छूटे,
सीमांतों वाले पुल टूटे;
टूटी मेहराबों के नीचे
धारा में बहे स्वप्न झूठे।
रंगहीन किरण से सँवर लो!
एक और अनहोनी कर लो!

- शंभुनाथ सिंह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

प्रीति में संदेह कैसा

प्रीति में संदेह कैसा?
यदि रहे संदेह, तो फिर—
प्रीति कैसी, नेह कैसा?
प्रीति में संदेह कैसा!

ज्योति पर जलते शलभ ने
धूप पर आसक्त नभ ने
मस्त पुरवाई-नटी से
नव प्रफुल्लित वन-विभव ने—
प्रश्न पूछा, ‘कोई नित-नित
परिजनों से भी सशंकित
हो अगर 'तो गेह कैसा?’
प्रीति में संदेह कैसा!

नींद पर संदेह दृग का
पंख पर उड़ते विहग का
हो अगर संदेह मग पर
प्रीति-पग के नेह-डग का
तो कहा प्रिय राधिका ने
नेह-मग की साधिका ने
बूँद बिन घन-मेह कैसा?
प्रीति में संदेह कैसा!

- कुँअर बेचैन
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

शेर कहने लगे

किया है अपने को बर्बाद, शेर कहने लगे
जब आ गई है तेरी याद, शेर कहने लगे

ये नहर दूध की हम भी निकाल सकते हैं
मज़ा तो जब है के फ़रहाद शेर कहने लगे

न देख इतनी हिक़ारत से हम अदीबों को
न जाने कब तेरी औलाद शेर कहने लगे

बड़े बड़ों को बिगाड़ा है हमने ऐ ‘राना’
हमारे लहज़े में उस्ताद शेर कहने लगे

- मुनव्वर राना
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

सफ़र में ऐसे कई मरहले भी आते हैं

सफ़र में ऐसे कई मरहले भी आते हैं
हर एक मोड़ पे कुछ लोग छूट जाते हैं

ये जानकर भी कि पत्थर हर एक हाथ में है
जियाले लोग हैं शीशों के घर बनाते हैं

जो रहने वाले हैं लोग उनको घर नहीं देते
जो रहने वाला नहीं उसके घर बनाते हैं

जिन्हें ये फ़िक्र नहीं सर रहे न रहे
वो सच ही कहते हैं जब बोलने पे आते हैं

कभी जो बात कही थी तिरे तअ'ल्लुक़ से
अब उसके भी कई मतलब निकाले जाते हैं

- आबिद अदीब
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

त्रिवेणी

1. सामने आए मेरे, देखा मुझे, बात भी की
मुस्कराए भी, पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर

कल का अख़बार था, बस देख लिया, रख भी दिया।

सोमवार, 10 फ़रवरी 2025

जो बिंध गया, सो मोती

जो बिंध गया, सो मोती
बिना बिंधा मोती
किस काम का
चाहे रहीम का हो
चाहे राम का!

अपने आप में था सिमटा
अपने होने में अकेला
चमक और रूप के रहते भी, 
वह कहाँ था मोती
समुद्र की अक्षय आभा
पानी की तृप्तिकर तरलता
वह किसी का भी अपना न था
जहाँ भी था...

फिर चाह कर छिदा
सूई-सूई बिंधा 
धागा-धागा पुरा
प्रियतम की भेंट हो
ज्योति हुआ!
समुद्र ही बिंधने को व्याकुल
द्वंद्व में दिन-रात
कभी सीपी
कभी मोती हुआ...

मोती-मोती जुड़ा, तो माला हुआ!
अकेलेपन की
सूनी अंधेरी रात में
दिन का उजाला हुआ!

मोती-मोती जुड़ा तो माला हुआ!...
बिंधने पर
आती है दिव्य ज्योति...
जो बिंध गया वही मोती

- बलदेव वंशी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

रविवार, 9 फ़रवरी 2025

आखर-आखर गान धरा का

साधो! 
तुमने सुना नहीं क्या 
हर पल चलता आखर-आखर गान धरा का 

भोर हुए पंछी 
उजास का गीत सुनाते
जन्म धूप का जब होता 
वे सोहर गाते 
पूरे दिन 
होता रहता है 
धूप-छाँव में भीतर-बाहर गान धरा का 

हवा नाचती 
पत्ते देते ताल साथ में 
दिन-बीते तक 
बच्चे हँसते बात-बात में 
मेघ गरजते 
बरखा होती 
मेंढक गाते रात-रात भर गान धरा का 

रोज़ आरती होती वन में 
साँझ-सकारे 
अनहद नाद सुनाते गुपचुप 
चाँद-सितारे 
दिन बर्फ़ीले भी 
आते हैं 
और तभी होता है पतझर-गान धरा का

- कुमार रवीन्द्र 
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 8 फ़रवरी 2025

आसमान के पार स्वर्ग है

आसमान के पार स्वर्ग है
सोच गया घर से
जाकर देखा 
वहाँ अँधेरा दीपक को तरसे
जीवन का पौधा उगता 
हिमरेखा के नीचे 
धार प्रेम की 
जहाँ नदी बन धरती को सींचे
आसमान से आम आदमी लगता है चींटी
नभ केवल रंगीन भरम है
सच्चाई मिट्टी

गिर जाता जो अंबर से 
वो मरता है
डर से

अंबर तक यदि जाना है तो 
चिड़िया बन जाओ
दिन भर नभ की सैर करो 
पर संध्या घर आओ
आसमान पर कहाँ बसा है
कभी किसी का घर
ज्यादा ज़ोर लगाया जिसने
टूटे उसके पर

फैलो 
काम नहीं चलता ऊँचा उठने भर से

- 'सज्जन' धर्मेंद्र 
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025

अभिलाषाओं के दिवास्वप्न

अभिलाषाओं के दिवास्वप्न 
पलकों पर बोझ हुए जाते
फिर भी जीवन के चौसर पर साँसों की बाज़ी जारी है।

हारा जीता
जीता हारा मन सम्मोहन का अनुयायी।
हालाँकि लगा
यह बार-बार सब कुछ पानी में परछाई।

हर व्यक्ति
डूबता जाता है परछाई को छूते-छूते
फिर भी काया नौका हमने भँवरों के बीच उतारी है।

जो कुछ
लिख गया कुंडली में 
वह टाले कभी नहीं टलता।
जलता है
अहंकार सबका सोने का नगर नहीं जलता।

हम रोज़ 
जीतते हैं कलिंग 
हम रोज़ बुद्ध हो जाते हैं
फिर भी इच्छाओं की गठरी अंतर्ध्वनियों पर भारी है।

- अंकित काव्यांश
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

त्रिवेणी

1. उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलती रही वह शाख़ फ़िज़ा में 

अलविदा कहने को? या पास बुलाने के लिए?

बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

तुम्हीं से सीखा

नक़्श की तरह उभरना भी तुम्हीं से सीखा 
रफ़्ता रफ़्ता नज़र आना भी तुम्हीं से सीखा 

तुम से हासिल हुआ इक गहरे समुंदर का सुकूत 
और हर मौज से लड़ना भी तुम्हीं से सीखा 

अच्छे शेरों की परख तुम ने ही सिखलाई मुझे 
अपने अंदाज़ से कहना भी तुम्हीं से सीखा 

तुम ने समझाए मिरी सोच को आदाब अदब 
लफ़्ज़ ओ मअनी से उलझना भी तुम्हीं से सीखा 

रिश्ता-ए-नाज़ को जाना भी तो तुम से जाना 
जामा-ए-फ़ख़्र पहनना भी तुम्हीं से सीखा 

छोटी सी बात पे ख़ुश होना मुझे आता था 
पर बड़ी बात पे चुप रहना तुम्हीं से सीखा

- ज़ेहरा निगाह
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2025

नहीं रहता

परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता 
किसी भी आइने में देर तक चेहरा नहीं रहता 

बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना 
जहाँ दरिया समुंदर से मिला दरिया नहीं रहता 

हज़ारों शेर मेरे सो गए काग़ज़ की क़ब्रों में 
अजब माँ हूँ कोई बच्चा मिरा ज़िंदा नहीं रहता 

तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नए अंदाज़ वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हम-सा नहीं रहता

मोहब्बत एक ख़ुशबू है हमेशा साथ चलती है 
कोई इंसान तन्हाई में भी तन्हा नहीं रहता 

कोई बादल हरे मौसम का फिर ऐलान करता है
ख़िज़ाँ के बाग़ में जब एक भी पत्ता नहीं रहता

- बशीर बद्र
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

तुम हमारे द्वार पर

तुम हमारे द्वार पर दीवा जलाना चाहते हो,
बात अच्छी है, मगर
उस दीप की बाती हमारे रक्त से ही क्यों सनी है!

कहीं ऐसा तो नहीं 
पहले अँधेरा भेजते हो,
फिर सितारों की दलाली कर उजाला बेचते हो।

क़ैद-ख़ाने में
पड़ा सूरज रिहाई माँगता हो,
या सकल आकाश आँगन में तुम्हारे नाचता हो।

कहीं ऐसा तो नहीं 
तुम स्वर्ग पाना चाहते हो,
बात अच्छी है, मगर
उस स्वर्ग की सीढ़ी हमारी अस्थियों से क्यों बनी है!

क्या पता हम
रात भर उत्सव मनाने में जगें फिर,
ठीक अगली भोर अपनी नींद पाने में जगें फिर।

छाँव का व्यापार
होने लग गया तो क्या करेंगे,
और कब तक हम उनींदे नयन में आँसू भरेंगे।

तुम मुनादी पीटकर हमको जगाना चाहते हो,
बात अच्छी है, मगर
अब उस नगाड़े पर हमारी खाल मढ़कर क्यों तनी है!

- अंकित काव्यांश
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

मैं अब घर जाना चाहता हूँ

मैं अब हो गया हूँ निढाल
अर्थहीन कार्यों में
नष्ट कर दिए
मैंने
साल-पर-साल
न जाने कितने साल!
और अब भी
मैं नहीं जान पाया
है कहाँ मेरा योग?

मैं अब घर जाना चाहता हूँ
मैं जंगलों
पहाड़ों में
खो जाना चाहता हूँ
मैं महुए के
वन में

एक कंडे-सा
सुलगना, गुंगुवाना
धुंधुवाना
चाहता हूँ।

मैं जीना चाहता हूँ
और जीवन को
भासमान
करना चाहता हूँ।

मैं कपास धुनना चाहता हूँ
या
फावड़ा उठाना
चाहता हूँ
या
गारे पर ईंटें
बिठाना
चाहता हूँ
या पत्थरी नदी के एक ढोंके पर
जाकर
बैठ जाना
चाहता हूँ
मैं जंगलों के साथ
सुगबुगाना चाहता हूँ
और शहरों के साथ
चिलचिलाना
चाहता हूँ

मैं अब घर जाना चाहता हूँ
मैं विवाह करना चाहता हूँ
और
उसे प्यार
करना चाहता हूँ
मैं उसका पति
उसका प्रेमी
और
उसका सर्वस्व
उसे देना चाहता हूँ
और
उसकी गोद
भरना चाहता हूँ।

मैं अपने आसपास
अपना एक लोक
रचना चाहता हूँ।
मैं उसका पति, उसका प्रेमी
और
उसका सर्वस्व
उसे देना चाहता हूँ
और
पठार
ओढ़ लेना
चाहता हूँ।

मैं समूचा आकाश
इस भुजा पर
ताबीज़ की तरह
बांध लेना चाहता हूँ।

मैं महुए के बन में
एक कंडे-सा
सुलगना, गुंगुवाना
धुंधुवाना चाहता हूँ।

मैं अब घर
जाना चाहता हूँ।

- श्रीकांत वर्मा
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अनूप भार्गव की पसंद 

शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

चिड़िया

अनंत आकाश को लाँघती
नापती उसकी ऊँचाई को

तुम्हारे पाँव
कोमल हैं चिड़िया
नन्हे-नन्हे पाँवों से
अनंत आकाश को छूती
तुम्हारे पाँव
क्या कभी थकते नहीं

जिजीविषा तुम्हारी भी
अनंत है
समुद्र की तरह
अथाह

झील-सी गहरी
तुम्हारी आँखों में
दिखती है नूतनता की चाह

चिड़िया
क्या तुम इसी धरती की वासी हो।

- वंदना पराशर
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 30 जनवरी 2025

एक दशमलव एक लिखा है

'एक दशमलव एक' लिखा है जहाँ-जहाँ पर,
आओ दस से गुणा करें ग्यारह हो जाएँ

तुम्हें दाहिने और हमें बाएँ कर डाला,
सामंजस के आँगन में भी खींचा पाला।
कटुता का विष-बिंदु घृणा का द्योतक है,
उसी बिंदु पर आओ भाई रबर चलाएँ।

विषम अंक जब सम से काटे जाते हैं,
परिणामों में तभी दशमलव आते हैं।
सभी विषमताओं को आओ सम कर लें,
भाग हटा कर गुणाकार का चिह्न लगाएँ।

- अभिषेक औदिच्य
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 29 जनवरी 2025

अधूरे मन से ही सही

अधूरे मन से ही सही
मगर उसने
तुझसे मन की बात कही

पुराने दिनों के अपने
अधूरे सपने
तेरे क़दमों में
ला रखे उसने

तो तू भी सींच दे
उसके
तप्त शिर को
अपने आँसुओं से
डाल दे उस पर
अपने आँचल की
छाया
क्योंकि उसके थके-मांदे दिनों में भी
उसे चाहिए
एक मोह माया

मगर याद रखना पहले-जैसा
उद्दाम मोह
पहले-जैसी ममत्व भरी माया
उसके वश की
नहीं है
ज़्यादा जतन नहीं है ज़रूरी

बस उसे
इतना लगता रहे
कि उसके सुख-दुख को
समझने वाला
यहीं-कहीं है!

- भवानीप्रसाद मिश्र
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अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 28 जनवरी 2025

मन दस-बीस नहीं होते

हर बात
ज़िंदगी के उसी मोड़ पर
ठहरी हुई है,

पर क्या करूँ,
उद्धव!
मन दस-बीस नहीं होते।

- अनिमेष मुखर्जी
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 27 जनवरी 2025

मैं उनमें शामिल हूँ

 मैं भूख पहनूँ, मैं भूख ओढ़ूँ, मैं भूख देखूँ, मैं प्यास लिक्खूँ
बरहाना जिस्मों के वास्ते मैं ख़्याल कातूँ, कपास लिक्खूँ
सिसक-सिसक के जो मर रहे हैं मैं उनमें शामिल हूँ और फिर भी 
किसी के दिल में उम्मीद बोऊँ, किसी की आँखों में आस लिक्खूँ
       
 -इकबाल साज़िद

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अनूप भार्गव जी के सौजन्य से 


रविवार, 26 जनवरी 2025

व्योम विस्तृत प्रीति का

शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का।

भाव बौने लिख न पाऊँ, प्रेम पर शुचि गीतिका॥


कथ्य इसका है अपरिमित, बाँच कैसे लूँ भला।

कौन है जग में न जिसके, भाव नेहिल हृद पला॥

ढाई आखर में समाहित, गीत नेहिल नीति का।

शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का॥


प्रेम राधे का लिखूँ पर, लेखनी सक्षम नहीं।

गोपियों का लिख विरह दूँ, भाव इतने नम नहीं॥

लग रही प्रस्तुति अधूरी, नयन ओझल वीथिका।

शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का॥


सृष्टि के यह केन्द्र में है, माप कैसे लूँ परिधि।

प्रेम पावन भाव हृद का, लेख लिक्खूँ कौन विधि॥

प्रेम में पहला शगुन है, डूबने की रीति का।

शब्द का तूणीर लघु है, व्योम विस्तृत प्रीति का॥


-अनामिका सिंह 'अना'

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


शनिवार, 25 जनवरी 2025

जगह

क़रार पाते हैं आख़िर हम अपनी अपनी जगह 

ज़ियादा रह नहीं सकता कोई किसी की जगह 

बनानी पड़ती है हर शख़्स को जगह अपनी 

मिले अगरचे ब-ज़ाहिर बनी-बनाई जगह 

हैं अपनी अपनी जगह मुतमइन जहाँ सब लोग 

तसव्वुरात में मेरे है एक ऐसी जगह 

गिला भी तुझ से बहुत है मगर मोहब्बत भी 

वो बात अपनी जगह है ये बात अपनी जगह 

किए हुए है फ़रामोश तू जिसे 'बासिर' 

वही है अस्ल में तेरा मक़ाम तेरी जगह


--बासिर काज़मी

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शुक्रवार, 24 जनवरी 2025

प्रतिरोधी सबका स्वर होगा

प्रतिरोधी
सबका स्वर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!
बहता नीर
नदी का हूँ मैं तटबन्धों के संग क्यों बहूँ?
सृष्टि नियामक एक तत्व हूँ मुझमें हलचल है मैं जल हूँ।
मेरी गति ही
जीवन गति है फिर भी इस गति पर पहरा है!
नदियों! ध्वस्त करो सारे तट यह मंतव्य अभी उभरा है।
आप सभी तो
समझदार हैं क्या यह उचित फ़ैसला होगा?
अनुशासन के बिना धरा पर नदियाँ नहीं ज़लज़ला होगा।
सबकी
आँखों में डर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!
मुझसे ऊँचा
कौन विश्व में मैं ऊँचाई का मानक हूँ।
मैं ही चंदा की शीतलता मैं ही सूरज का आतप हूँ।
मुझको अपने
विराट तन पर पंछी दल अनुचित लगते हैं।
आओ सूरज का अग्नि-अंश चिड़ियों के ऊपर रखते हैं।
आकाश अगर
इस ज़िद पर है फिर किसका क्या उड़ान भरना!
अब तो पेड़ों मुंडेरों पर कोयल का आहत स्वर सुनना।
ख़तरा हर
पंछी पर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!
 
- अंकित काव्यांश
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

गुरुवार, 23 जनवरी 2025

तब अधर पर गीत आते

जब किसी के नेह में हम हार कर भी जीत जाते।

तब अधर पर गीत आते।


पुष्प पर जब ओस के संघात से मृदु चोट आए,

जब हमारी टेर की ही एक प्रतिध्वनि लौट आए।

जब किसी बेला के बिरवे पर अचानक फूल आता,

जब कोई उल्लास में है साँस लेना भूल जाता।


जब किसी प्रिय आगमन का हम कभी संकेत पाते।

तब अधर पर गीत आते।


जब हमारे इंगितों पर केश कोई मुक्त कर दे,

और यह रसहीन जीवन प्रेम से रसयुक्त कर दे।

खनखनाते हाथ जब भी कक्ष का हैं द्वार खोलें,

कँपकँपाते होंठ दो जब-जब हमारा नाम बोलें।


जब महावर से भरे दो पाँव हैं पायल बजाते।

तब अधर पर गीत आते।


- अभिषेक औदिच्य

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 22 जनवरी 2025

उस चाँद से कहना

तुम्हारे उड़ने के लिए है 

यह मन का खटोला 

खास तुम्हारे लिए है यह

स्वप्निल नीला आकाश 

विचरण के लिए 

आकाश का 

सुदूर चप्पा-चप्पा

सब तुम्हारे लिए है 


तनिक-सी इच्छा हो तो 

चाँद पर 

बना लो घर 

चाहो तो चाँद के संग 

पड़ोस में मंगल पर बस जाओ

जितनी दूर चाहो

जाओ


बस 

देखना प्रियतम

अपने कोमल पंख

अपनी साँस 

और भीतर की जेब में 

मुड़ातुड़ा

अपनी पृथ्वी का मानचित्र 

सोते-जागते दिखता रहे 

आगे का आकाश

और पीछे प्रेम की दुनिया

धरती पर 

दिखती रहें

सभी चीज़ें और अपने लोग


उड़नखटोले से

होती रहे 

आकाश के चांद की बात

पृथ्वी के सगे-संबंधियों

और अपने चाँद की

आती रहे याद

 

जाओ जो चाहो तो जाओ

जाओ आकाश के चाँद के पास 

तो लेते जाओ उसके लिए 

धरती का जीवन 

और संगीत 

मिलो आकाश के चाँद से

तो पहले देना 

धरती के चाँद की ओर से

भेंट-अँकवार

फिर धरती की चंपा के फूल

धरती की रातरानी की सुगंध

धरती की चाँदनी का प्यार

धरती के सबसे अच्छे खेत

धरती के ताल-पोखर

धान 

और गेहूँ के उन्नत बीज

थोड़ी-सी खाद

और एक जोड़ी बैल

देना


कहना कि कोई सखी है

धरती पर भी है एक चाँद है

जिसे 

तुम्हारे लौटने का इंतज़ार है

कहना कि छोटा नहीं है

उसका दिल

स्वीकार है उसे

एक और चाँद 

चाहे तो चली आए 

तुम्हारे संग 

उड़नखटोले में बैठकर 

मंगलगीत गाती हुई 

धरती के आँगन में 

स्वागत है ।


-  गणेश पाण्डेय

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 



मंगलवार, 21 जनवरी 2025

अपने भीतर

धूप की शरारत के बावजूद

जैसे धरती बचाकर रखती है

थोड़ी-सी नमी अपने भीतर

पहाड़ बचाकर रखते हैं

कोई हरा कोना अपने वक्ष में

तालाब बचाकर रखता है

कोई एक बूँद अपनी हथेली में

पेड़ बचाकर रखते हैं 

टहनियों और पत्तों के लिए जीवन रस

फूल बचाकर रखते हैं 

खुशबू अपने आवरण में

चिड़िया बचाकर रखती है

मौसम से जूझने की जिजीविषा


वैसे ही मैंने बचाकर रखा है

अपने भीतर

तुम्हारे होने का अहसास।


- गुरमीत बेदी

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


सोमवार, 20 जनवरी 2025

अर्थ बदल दूँ काश का

 

 सुबह-सुबह की धूप बना लूँ

भर दूँ रंग पलाश का।

 

मन हिरना को हंस बना लूँ

छू लूँ पंख प्रकाश का।

 

सोनी हल्दी सनी हथेली

कुमकुम की सौगंध

रह-रह कर आमंत्रित करती

नेहानुत अनुगंध

 

मन को पावन नीर बना लूँ

तन को हिम कैलाश का।

 

कोई परिचित लहरों जैसा

लेता है आलाप

खोता, उतरता लय धुन में

स्वप्नों में चुपचाप

मन है उसको मेघ बना लूँ

अधरों के आकाश का।

 

जी करता है अर्पित कर दूँ

कोरों का सब नीर

जैसे सागर के आँगन में

नदिया हारे पीर

मनभावन अनुमान बना लूँ

अर्थ बदल दूँ काश का

 

निर्मल शुक्ल

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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


रविवार, 19 जनवरी 2025

यह घर शायद वह घर नहीं है

 

जिस घर में रहते थे हम

यह शायद वह घर नहीं है

कहाँ है वह घर

 

और

कहाँ है उस घर का लाडला

जो दिन में मेरे पैरों से

और अँधेरी रातों में

मेरे सीने से चिपका रहता था

 

कहाँ खो गया है

बहती नाक और खुले बालवाला

नंग-धड़ंग मेरा छोटा बाबा

मुझे ढूँढ़ता हुआ

कहाँ छिप गया है

किस कमरे में

किस पर्दे के पीछे

कि माँ की ओट में है

नटखट

 

यह कौन है जो तन कर खड़ा है

किसका बेटा है मुझे घूरता हुआ

बेटा है कि पूरा मर्द

भुजाओं से

पैरों से

और छाती से

फट पड़ने को बेचैन

 

आख़िर क्या चाहिए मुझसे

किसका बेटा है यह

जो छीन लेना चाहता है मुझसे

सारा रुपया

 

मेरा बेटा है तो भूल कैसे गया

माँगता था कैसे हज़ार मिट्ठी देकर

एक आइसक्रीम

एक टाफ़ी और थोड़ी-सी भुजिया

 

माँग क्यों नहीं लेता उसी तरह

मुझसे मेरा जीवन

किसका है यह जीवन

यह घर

 

कहाँ छूट गई हैं

मेरी उँगलियों में फँसी हुईं

बड़ी की नन्ही-नन्ही कोमल उँगलियाँ

उन उँगलियों में फँसा पिता

कहाँ छूट गया है

 

किसी को ख़बर न हुई

हौले-हौले हिलते-डुलते

नन्ही पँखुड़ी जैसे होंठों को

पृथ्वी पर सबसे पहले छुआ

और सुदीप्त माथा चूमा

पहली बार

जिनसे

मेरे उन होंठों को क्या हो गया है

काँपते हैं थर-थर

यह कैसा डर है

यह कैसा घर है

 

छोटी की छोटी-छोटी

एक-एक इच्छा की ख़ातिर

कैसे दौड़ता रहा एक पिता

अपनी दोनों हथेलियों पर लेकर

अपना दिल और कलेजा

अपना सब कुछ

जो था पहुँच में सब हाज़िर करता रहा

 

क्या इसलिए कि एक दिन

अपनी बड़ी-बडी आँखों से करेगी़

पिता पर कोप

 

कहाँ चला गया वह घर

 

मुझसे रूठकर

जिसमें पिता पिता था

अपनी भूमिका में

पृथ्वी का सबसे दयनीय प्राणी न था

और वह घर

जीवन के उत्सव में तल्लीन

एक हँसमुख घर था

 

यह घर शायद वह घर नहीं है

कोई और घर है

पता नहीं किसका है यह घर?


गणेश पाण्डेय

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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से