बुधवार, 3 सितंबर 2025
जिनकी भाषा में विष था
मंगलवार, 2 सितंबर 2025
बहनें
सोमवार, 1 सितंबर 2025
कविता के अरण्य में
रविवार, 31 अगस्त 2025
वसंत
शनिवार, 30 अगस्त 2025
उम्मीद की अँगीठी
शुक्रवार, 29 अगस्त 2025
मौलिकता
गुरुवार, 28 अगस्त 2025
कुछ पल
बुधवार, 27 अगस्त 2025
बाहर-भीतर : यह जीवन
मंगलवार, 26 अगस्त 2025
बेहतर है
सोमवार, 25 अगस्त 2025
हँसी
शुक्रवार, 1 अगस्त 2025
पोस्ट ऑफिस
पोस्ट ऑफिस में अब कहाँ टकराते हैं ख़ूबसूरत लड़के
चिट्ठियाँ गुम होने का बड़ा नुकसान ये भी हुआ है
‘एक्सक्यूज़ मी..पेन मिलेगा क्या’ जैसा बहाना जाता रहा
‘आप बैठ जाइए..मैं लगा हूँ लाइन में’ कहने वाले भी कहाँ रहे
मुए ज़माने ने इतना भर सुख भी छीन लिया
वो दिन जब लाल पोस्ट बॉक्स जैसे तिलिस्मी संदूक
और डाकिया जादूगर
वो दिन जब महीने में डाकघर के चार चक्कर लग ही जाते
और तीन बार कहीं टकरा ही जाती नज़रें
बीते दिनों इतना रोमांच काफी था
कॉलेज की सहेलियों से बतकही में ये बात ख़ास होती-
‘सुन..कल वो फिर दिखा था’
पोस्ट ऑफिस में दिखने वाले लड़के अमूमन शरीफ़ माने जाते
पार्सल, मनीआर्डर, रजिस्टर्ड पोस्ट, ग्रीटिंग कार्ड
और भी सौ काम थे
राशन से कम कीमती नहीं थी चिट्ठियाँ
एक से पेट भरता दूसरे से मन
वो दिन जब डाकघर जाना हो तो
लड़की अपना सबसे अच्छा सूट निकालती
पोस्ट ऑफिस उन बैरंग चिट्ठियों का भी ठिकाना था
जो एकदम सही पते पर पहुँचती
कुछ बेनामी ख़त जो आँखों-आँखों में पढ़ लिए जाते
इन दिनों डाकघर सूने हो गए हैं
अब आँखों पर भी चश्मा चढ़ गया है
गुरुवार, 31 जुलाई 2025
गज़ल
बुधवार, 30 जुलाई 2025
शहर के दोस्त के नाम पत्र
हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं
बॉक्साइट के गुलदस्ते सजे हैं
अभ्रक और कोयला तो
थोक और खुदरा दोनों भावों से
मंडियों में रोज सजाए जाते हैं
यहाँ बड़े-बड़े बाँध भी
फूल की तरह खिलते हैं
इन्हें बेचने के लिए
सैनिकों के स्कूल खुले हैं,
शहर के मेरे दोस्त
ये बेमौसम के फूल हैं
इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती
अपने जुड़े के लिए गजरे
मेरी माँ नहीं बना सकती
मेरे लिए सुकटी या दाल
हमारे यहाँ इससे कोई त्योंहार नहीं मनाया जाता
यहाँ खुले स्कूल
बारहखड़ी की जगह
बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं
बाजार भी बहुत बड़ा हो गया है
मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता
यहाँ से सबका रुख शहर की ओर कर दिया गया है
कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा
उससे पहले नदी गई
अब खबरल फैल रही है कि
मेरा गाँव भी यहाँ से जाने वाला है
शहर में मेरे लोग तुमसे मिलें
तो उनका ख़याल ज़रूर रखना
यहाँ से जाते हुए उनकी आँखों में
मैंने नमी देखी थी
और हाँ
उन्हें शहर का रीति-रिवाज भी तो नहीं आता
मेरे दोस्त उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए
अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ।
- अनुज लुगुन
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-संपादकीय चयन
मंगलवार, 29 जुलाई 2025
जो समय बदलते हैं
घड़ी की सुइयों के बीच भी
अँधेरा रहता है
शाम होने के बाद
वह धीरे-धीरे
गहराने लगता है
चंद्रमा की चमक
उसकी रफ़्तार पर नहीं पड़ती
शायद इसीलिए
बहुत रात के बाद
उसके चलने की आवाज़
और तेज हो जाती है
जैसे अपने हिस्से की
रौशनी माँग रही हो
हालांकि वह कभी
मिलने वाली नहीं
फिर भी बल्ब जलाने से
घड़ी का चेहरा
खिल जाता है
जो दूसरों का समय बदलते हैं
वे ऐसे ही रौशनी के लिए
तरसते रहते हैं
अनवरत चलते हुए
एक दिन रुक जाते हैं सहसा
चुपचाप
जैसे घड़ी बंद मिलती है
किसी सुबह।
- शंकरानंद
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संपादकीय चयन
सोमवार, 28 जुलाई 2025
अजब सफ़र है
अजब सफ़र है
मैं अपनी मुट्ठी से रेत बनकर फिसल रहा हूँ
वह रेत दामन में भर रही है
मैं थोड़ा मुट्ठी में रह गया हूँ
मैं थोड़ा दामन में गिर चुका हूँ
मैं बाक़ी दोनों के दरमयाँ हूँ
मुझे यह डर है
मैं ज्यों ही मुट्ठी को खोल दूँगा
वह अपने दामन को झाड़ देगी
रविवार, 27 जुलाई 2025
प्रार्थना से प्रेम
वर्षा हो
अन्न हो
सुख हो
शांति हो
शुभ हो
सुपुत्र हों, सुपुत्रियाँ भी
संग हो
विवाह हो
प्रेम हो
प्रेम विवाह हो
और तलाक न हो !
- अविनाश मिश्र
शनिवार, 26 जुलाई 2025
दुलारी धिया
पी के घर जाओगी दुलारी धिया
लाल पालकी में बैठ चुक्के-मुक्के
सपनों का खूब सघन गुच्छा
भुइया में रखोगी पाँव
महावर रचे
धीरे-धीरे उतरोगी
सोने की थारी में जेवनार-दुलारी धिया
पोंछा बन
दिन-भर फर्श पर फिराई जाओगी
कछारी जाओगी पाट पर
सूती साड़ी की तरह
पी से नैना ना मिला पाओगी दुलारी धिया
दुलारी धिया
छूट जाएँगी सखियाँ-सलेहरें
उड़ासकर अलगनी पर टाँग दी जाओगी
पी घर में राज करोगी दुलारी धिया
दुलारी धिया, दिन भर
धान उसीनने की हँड़िया बन
चौमुहे चूल्हे पर धीकोगी
अकेले में कहीं छुप के
मैके की याद में दो-चार धार फोड़ोगी
सास-ससुर के पाँव धो पीना, दुलारी धिया
बाबा ने पूरब में ढूँढा
पश्चिम में ढूँढा
तब जाके मिला है तेरे जोग घर
ताले में कई-कई दिनों तक
बंद कर दी जाओगी, दुलारी धिया
पूरे मौसम लकड़ी की ढेंकी बन
कूटोगी धान
पुरइन के पात पर पली-बढ़ी दुलारी धिया
पी घर से निकलोगी
दहेज की लाल रंथी पर
चित्तान लेटे
खोइछे में बाँध देगी
सास-सुहागिन, सवा सेर चावल
हरदी का टूसा
दूब
पी घर को न बिसारना, दुलारी धिया।
- बद्रीनारायण
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- विजया सती के सौजन्य से
शुक्रवार, 25 जुलाई 2025
अब तक नहीं लिखा
जाने क्या-क्या लिखा अभी तक
लेकिन जो लिखना था हमको,
अब तक नहीं लिखा।
किसने सोखे थे सपनों के
रंग उजाले वाले,
किसने जगा दिए निद्रा पर
चिंताओं के ताले
किसके डर से रही काँपती,
मन की दीपशिखा
अब तक नहीं लिखा।
किसके आश्वासन से टूटी
आशाओं की हिम्मत,
किसने कर्म छीनकर हमसे
दे दी खोटी किस्मत
घोर गरीबी का यह रस्ता,
किसने दिया दिखा
अब तक नहीं लिखा।
किसने सत्य, अहिंसा मारे
किसने शांति चुराई
किसने छीनी है वाणी से
शब्दों की अँगड़ाई
भाषा के सीने पर किसने,
आरा तेज रखा
अब तक नहीं लिखा।
गुरुवार, 24 जुलाई 2025
कल से प्रेम
सुबह तीन बजे उठूँगा
तानपूरा सुनूँगा
ध्यान करूँगा
ऋचाएँ पढूँगा
रहस्यों पर सोचूँगा
सत्य को जानूँगा
प्यार को सोने दूँगा
उसे जगाऊँगा नहीं
निशब्द पुकारूँगा
काली काफी बनाऊँगा-पीऊँगा
सब कुछ बहुत धीमी गति से करूँगा
इधर-उधर जाता रहूँगा
केंद्र को केंद्र नहीं रहने दूँगा
इच्छाओं को शर्म से बाधित करूँगा
जड़ता को श्रम से
घड़ी से ज्यादा सही चलूँगा
नई किताबें शुरू करूँगा
नई कथाएँ
कम काम लूँगा
ज्यादा काम करूँगा।
- अविनाश मिश्र
बुधवार, 23 जुलाई 2025
मेरे सुग्गे तुम उड़ना
दगा है उड़ना
धोखा है उड़ना
कोई कहे-
छल है, कपट है उड़ना
पर मेरे सुग्गे, तुम उड़ना
तुम उड़ना
पिंजड़ा हिला
सोने की कटोरी गिरा
अनार के दाने छींट
धूप में करके छेद
हवाओं की सिकड़ी बजा
मेरे सुग्गे, तुम उड़ना।
मंगलवार, 22 जुलाई 2025
मजदूरी से प्रेम
मैं एक मनुष्य था
मैं एक कवि था
मुझमें कहीं एक उपन्यासकार भी था
लेकिन मुझमें कहीं एक मजदूर भी था
अगर यह मजदूर नहीं होता
तब मैं भूख से मर जाता।
- अविनाश मिश्र
सोमवार, 21 जुलाई 2025
मत होना उदास
कुछ जून ने बुना
कुछ जुलाई ने
नदी ने थोड़ा साथ दिया
थोड़ा पहाड़ ने
बुनने में रस्सी मूँज की।
प्रभु की प्रभुताई बाँधी जाएगी
यम की चतुराई
हाथी का बल
सोने-चाँदी का छल बाँधा जाएगा
बाँधा जाएगा
विषधर का विष
कुछ पाप बाँधा जाएगा
कुछ झूठ बाँधा जाएगा
रीति तुम चुप रहना
नीति मत होना उदास।
- बद्रीनारायण
रविवार, 20 जुलाई 2025
अनुकरण से प्रेम
मैंने किसी का अनुकरण नहीं किया
जिन्होंने किसी का अनुकरण नहीं किया
मैंने उनका अनुकरण किया
मैं मौलिक नहीं हूँ
मैंने पूर्णविराम चुराए हैं।
- अविनाश मिश्र
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संपादकीय चयन
शनिवार, 19 जुलाई 2025
चौमासा
गुरुवार, 17 जुलाई 2025
सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर
वक़्त का दरपन बूढ़ी आँखें
वक़्त का दरपन बूढ़ी आँखें।
उम्र की उतरन बूढ़ी आँखें।
कौन समझ पाएगा पीड़ा
ओढ़े सिहरन बूढ़ी आँखें।
जीवन के सोपान यही हैं
बचपन, यौवन, बूढ़ी आँखें।
चप्पा-चप्पा बिखरी यादें
बाँधे बंधन बूढ़ी आँखें।
टूटा चश्मा घिसी कमानी
चाह की खुरचन बूढ़ी आँखें।
एक इबारत सुख की खातिर
बाँचे कतरन बूढ़ी आँखें।
सपनों में देखा करती हैं
‘वर्षा’-सावन बूढ़ी आँखें।
- वर्षा सिंह
बुधवार, 16 जुलाई 2025
कबूतर लौटकर नभ से
कबूतर लौटकर नभ से सहमकर बुदबुदाते हैं
वहाँ पर भी किसी बारूद का
षडयंत्र जारी है
हवा में भी
बिछाया जा रहा घातक सुरंगों को
धरा से व्योम तक पहुँचा रहे
कुछ लोग जंगों को
गगन में गंध फैली है किसी नाभिक रसायन की
धरा पर दीखती विध्वंस की
व्यापक तैयारी है
वहाँ पर शांति,
सह-अस्तित्व जैसे शब्द बौने हैं
यहाँ पर सभ्यता के हाथ
एटम के खिलौने हैं
वहाँ से पंचशीलों में लगा घुन साफ़ दिखता है
मिसाइल के बटन से जुड़ गई
किस्मत हमारी है
शांति की आस्थाओं को
चलो व्यापक समर्थन दें
युद्ध से जल रही भू को
नया उद्दाम जीवन दें
किसी हिरोशिमा की फिर कहीं न राख बन जाए
युद्ध तो युद्ध केवल युद्ध है
विध्वंसकारी है
- जगदीश पंकज
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- संपादकीय चयन
मंगलवार, 15 जुलाई 2025
इच्छा
मैंने
हवाओं के छोर से
बाँध दिया
इच्छाओं का दामन
देखती हूँ
वे कहाँ तक जाती हैं।
- मधु शर्मा
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संपादकीय चयन
सोमवार, 14 जुलाई 2025
जेठ तपा मधुमास
संदर्भों के होठ सिले हैं
व्याख्या हुई उदास
किस प्रसंग की बात कर रहा
जेठ तपा मधुमास
आँगन की बौराई बिल्ली
तुलसी घेर रही
चींटी बाँध बनाकर गाए
बाढ़ तुम्हारी आस
ऐसी पुरुवा बही रात भर
बादल सुलग गए
पछुआ ने सूरज से पूछा
कहाँ रहोगे आज
दूब जली, मेंहदी झुलसाई
दुल्हन सेज सजी
कैसा सावन आने वाला
जिससे लगती लाज
राग गड़ रही, गीत चुभ रहे
सगुन धुआँ के गाँव
आँझ पराती आँसू-आँसू
आँख लगे नाराज
आना अबके लगन लगे है
अगन-मनन की ओर
रुँध गई देहरी गगन की
ऐसी है आवाज़
चाँद सितारे नाच न पावें
नदी न गाए गीत
झरनों ने संगीत हड़प ली
पर्वत पी गए साज
संदर्भों के होठ सिले हैं
व्याख्या हुई उदास
किस प्रसंग की बात कर रहा
जेठ तपा मधुमास
- संजय तिवारी
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संपादकीय चयन
रविवार, 13 जुलाई 2025
जहाँ सुख है
शनिवार, 12 जुलाई 2025
इसी काया में मोक्ष
शुक्रवार, 11 जुलाई 2025
अनुसरण
गुरुवार, 10 जुलाई 2025
स्त्री
बुधवार, 9 जुलाई 2025
होते आए घड़े अछूत
मंगलवार, 8 जुलाई 2025
विरासत
सोमवार, 7 जुलाई 2025
विश्वरूप
रविवार, 6 जुलाई 2025
वंशी करो मुखर
गूँज उठे युग की साँसों में
नव
जीवन का स्वर।
सदियों
की सोई मानवता
ज्योति
नयन खोले,
मिटे
कलुष
तम तोम
प्रभाती स्वर्णरंग घोले!
उतरें देव स्वर्ग से
मधु के कलश लिए भू पर।
वंशी करो मुखर।
वाणी
की वाणी पर
शाश्वत सरगम लहराये,
नये स्वरों में नये भाव भर
कवि का मन गाये!
फूटें जड़ चट्टानों से
रस के चेतन निर्झर।
वंशी
करो मुखर
- डॉ० रवींद्र भ्रमर
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-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
शनिवार, 5 जुलाई 2025
हवा से कह दो।
घर
में अभी मुखौटों वाले
चेहरे
नहीं
हवा
से कह दो।
अभी
झरोखों से दीवारें
तन
से मन से दूर नहीं हैं
हैं
मजबूत इरादों वाली
लेकिन
दिल से क्रूर नहीं हैं
आपस
में मतभेद किसी में
गहरे
नहीं
हवा
से कह दो।
आने
जाने और नाचने
गाने
पर प्रतिबंध नहीं है
हाँ
उसका सम्मान न होगा
जिसमें
कोई गंध नहीं है
खनक
नृत्य की सुनने वाले
बहरे
नहीं
हवा
से कह दो।
आँगन
में तुलसी का चौरा
बहुत
ठीक है दुखी नहीं है
सबसे
बात कर रहा हँसकर
सुगना
अंतर्मुखी नहीं है
अभी
खिड़कियाँ खुली हुई हैं
ठहरे
नहीं
हवा से कह दो।
- मयंक
श्रीवास्तव
----------------------
-हरप्रीत
सिंह पुरी के सौजन्य से
शुक्रवार, 4 जुलाई 2025
गीत – गली के वासी
हमें
न भायी
जग
की माया
हम
हैं गीत- गली के वासी
वहाँ, साधुओं
सिर्फ
नेह की
बजती
है शहनाई
जो
लय हमने साधी उस पर
वह
है होती नहीं पराई
गीत
– गली में ही
काबा
है
गीत
– गली में ही है कासी
वह
दुलराते
हर
सूरज को
गीत
– गली की हमें कसम है
उसमें
जाते ही मिट जाता
हाट-
लाट का सारा भ्रम है
वहाँ
साँस
जो
छवियाँ रचती
होती
नहीं कभी वे बासी
कल्पवृक्ष
है
उसी
गली में
जिसके
नीचे देव विराजे
लगते
हमें भिखारी सारे
दुनिया
के राजे - महराजे
महिमा
गीत
– गली की ऐसी
कभी
न रहतीं साँसें प्यासी
-कुमार रवींद्र
---------------
हरप्रीत
सिंह पुरी की पसंद
गुरुवार, 3 जुलाई 2025
शब्द
शब्द अगर आना तो –
कोई
शुभ्र अर्थ लाना,
तुमको
रच, अपने गीतों का
कोष
सँवारूँगा।
अर्थ
कि वह ताजा – टटका
जो
मन पीड़ा हरदे
हृदय-
कुंड खारे पानी को
जो
मीठा कर दे
मित्र
सार्थक बनकर
मन
के पन्नों छा जाना,
मिले
भाव- नवनीत, सृजन की-
रई
बिलोड़ूँगा।
दीन-
दुखी कर दर्दों का-
मरहम
लाना भाई
‘घीसू’ हरषे और असीसे
‘जुमम्न’ की माई
मुल्ला-
पंडित गले मिलें
वह
युक्ति साथ लाना,
आपस
में जो पड़ी बैर-
की, गाँठें खोलूँगा।
वंचित
को हो चना – चबैना
भूखा
पेट भरे
सन्नाटों
को चीर – चिरइया
होकर
मुक्त उड़े
बच्चों
की बेलौस हँसी
अक्षर
– अक्षर दमके,
अपनी
कलम उतार, धुंध के
बादल
छाटूँगा।
- श्यामलाल
‘शामी’
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हरप्रीत
सिंह पुरी के सौजन्य से
बुधवार, 2 जुलाई 2025
निज़ाम बदल जाने से नहीं बदल जाते मुक़ाम
मंगलवार, 1 जुलाई 2025
कुंभन बन पाना और बात है
सोमवार, 30 जून 2025
कवि नहीं कविता बड़ी हो
रविवार, 29 जून 2025
लगता है जाने पर मेरे
शनिवार, 28 जून 2025
अकेला पानी
शुक्रवार, 27 जून 2025
डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी का खाना
गुरुवार, 26 जून 2025
बेटियाँ जब विदा होती हैं
बुधवार, 25 जून 2025
अंतहीन हैं मेरी इच्छाएँ
मंगलवार, 24 जून 2025
कम नहीं हुआ है किसी पर मरने का मूल्य
सोमवार, 23 जून 2025
बाँसुरी
रविवार, 22 जून 2025
ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है
शनिवार, 21 जून 2025
मुलाक़ात
शुक्रवार, 20 जून 2025
पुखराजी धूप
गुरुवार, 19 जून 2025
तुम
बुधवार, 18 जून 2025
प्रीत किये दुख होय
मंगलवार, 17 जून 2025
ये समय है
सोमवार, 16 जून 2025
प्रत्युत्तर
रविवार, 15 जून 2025
कुछ नहीं
शनिवार, 14 जून 2025
हे सृष्टिपिता!
शुक्रवार, 13 जून 2025
प्रतीक्षा
गुरुवार, 12 जून 2025
वे लड़कियाँ
बुधवार, 11 जून 2025
मनाकाश
मंगलवार, 10 जून 2025
मृत्यु भी प्रबोधन है
सोमवार, 9 जून 2025
कई बार मैंने
रविवार, 8 जून 2025
वृक्ष विहीन
शनिवार, 7 जून 2025
एक ही प्रेम
शुक्रवार, 6 जून 2025
सौंदर्य
गुरुवार, 5 जून 2025
शर्म
-
बात सीधी थी पर एक बार भाषा के चक्कर में ज़रा टेढ़ी फँस गई। उसे पाने की कोशिश में भाषा को उलटा पलटा तोड़ा मरोड़ा घुमाया फिराया कि बात या तो ब...
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पत्थरों में कचनार के फूल खिले हैं इनकी तरफ़ देखते ही आँखों में रंग छा जाते हैं मानो ये चंचल नैन इन्हें जनमों से जानते थे। मानो हृदय ही फूला...
-
चेतना पारीक कैसी हो? पहले जैसी हो? कुछ-कुछ ख़ुश कुछ-कुछ उदास कभी देखती तारे कभी देखती घास चेतना पारीक, कैसी दिखती हो? अब भी कविता लिखती हो? ...