शुक्रवार, 11 जुलाई 2025
अनुसरण
गुरुवार, 10 जुलाई 2025
स्त्री
बुधवार, 9 जुलाई 2025
होते आए घड़े अछूत
मंगलवार, 8 जुलाई 2025
विरासत
सोमवार, 7 जुलाई 2025
विश्वरूप
रविवार, 6 जुलाई 2025
वंशी करो मुखर
गूँज उठे युग की साँसों में
नव
जीवन का स्वर।
सदियों
की सोई मानवता
ज्योति
नयन खोले,
मिटे
कलुष
तम तोम
प्रभाती स्वर्णरंग घोले!
उतरें देव स्वर्ग से
मधु के कलश लिए भू पर।
वंशी करो मुखर।
वाणी
की वाणी पर
शाश्वत सरगम लहराये,
नये स्वरों में नये भाव भर
कवि का मन गाये!
फूटें जड़ चट्टानों से
रस के चेतन निर्झर।
वंशी
करो मुखर
- डॉ० रवींद्र भ्रमर
----------------------
-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
शनिवार, 5 जुलाई 2025
हवा से कह दो।
घर
में अभी मुखौटों वाले
चेहरे
नहीं
हवा
से कह दो।
अभी
झरोखों से दीवारें
तन
से मन से दूर नहीं हैं
हैं
मजबूत इरादों वाली
लेकिन
दिल से क्रूर नहीं हैं
आपस
में मतभेद किसी में
गहरे
नहीं
हवा
से कह दो।
आने
जाने और नाचने
गाने
पर प्रतिबंध नहीं है
हाँ
उसका सम्मान न होगा
जिसमें
कोई गंध नहीं है
खनक
नृत्य की सुनने वाले
बहरे
नहीं
हवा
से कह दो।
आँगन
में तुलसी का चौरा
बहुत
ठीक है दुखी नहीं है
सबसे
बात कर रहा हँसकर
सुगना
अंतर्मुखी नहीं है
अभी
खिड़कियाँ खुली हुई हैं
ठहरे
नहीं
हवा से कह दो।
- मयंक
श्रीवास्तव
----------------------
-हरप्रीत
सिंह पुरी के सौजन्य से
शुक्रवार, 4 जुलाई 2025
गीत – गली के वासी
हमें
न भायी
जग
की माया
हम
हैं गीत- गली के वासी
वहाँ, साधुओं
सिर्फ
नेह की
बजती
है शहनाई
जो
लय हमने साधी उस पर
वह
है होती नहीं पराई
गीत
– गली में ही
काबा
है
गीत
– गली में ही है कासी
वह
दुलराते
हर
सूरज को
गीत
– गली की हमें कसम है
उसमें
जाते ही मिट जाता
हाट-
लाट का सारा भ्रम है
वहाँ
साँस
जो
छवियाँ रचती
होती
नहीं कभी वे बासी
कल्पवृक्ष
है
उसी
गली में
जिसके
नीचे देव विराजे
लगते
हमें भिखारी सारे
दुनिया
के राजे - महराजे
महिमा
गीत
– गली की ऐसी
कभी
न रहतीं साँसें प्यासी
-कुमार रवींद्र
---------------
हरप्रीत
सिंह पुरी की पसंद
गुरुवार, 3 जुलाई 2025
शब्द
शब्द अगर आना तो –
कोई
शुभ्र अर्थ लाना,
तुमको
रच, अपने गीतों का
कोष
सँवारूँगा।
अर्थ
कि वह ताजा – टटका
जो
मन पीड़ा हरदे
हृदय-
कुंड खारे पानी को
जो
मीठा कर दे
मित्र
सार्थक बनकर
मन
के पन्नों छा जाना,
मिले
भाव- नवनीत, सृजन की-
रई
बिलोड़ूँगा।
दीन-
दुखी कर दर्दों का-
मरहम
लाना भाई
‘घीसू’ हरषे और असीसे
‘जुमम्न’ की माई
मुल्ला-
पंडित गले मिलें
वह
युक्ति साथ लाना,
आपस
में जो पड़ी बैर-
की, गाँठें खोलूँगा।
वंचित
को हो चना – चबैना
भूखा
पेट भरे
सन्नाटों
को चीर – चिरइया
होकर
मुक्त उड़े
बच्चों
की बेलौस हँसी
अक्षर
– अक्षर दमके,
अपनी
कलम उतार, धुंध के
बादल
छाटूँगा।
- श्यामलाल
‘शामी’
----------------------
हरप्रीत
सिंह पुरी के सौजन्य से
बुधवार, 2 जुलाई 2025
निज़ाम बदल जाने से नहीं बदल जाते मुक़ाम
मंगलवार, 1 जुलाई 2025
कुंभन बन पाना और बात है
सोमवार, 30 जून 2025
कवि नहीं कविता बड़ी हो
रविवार, 29 जून 2025
लगता है जाने पर मेरे
शनिवार, 28 जून 2025
अकेला पानी
शुक्रवार, 27 जून 2025
डॉ० विश्वनाथ त्रिपाठी का खाना
गुरुवार, 26 जून 2025
बेटियाँ जब विदा होती हैं
बुधवार, 25 जून 2025
अंतहीन हैं मेरी इच्छाएँ
मंगलवार, 24 जून 2025
कम नहीं हुआ है किसी पर मरने का मूल्य
सोमवार, 23 जून 2025
बाँसुरी
रविवार, 22 जून 2025
ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है
शनिवार, 21 जून 2025
मुलाक़ात
शुक्रवार, 20 जून 2025
पुखराजी धूप
गुरुवार, 19 जून 2025
तुम
बुधवार, 18 जून 2025
प्रीत किये दुख होय
मंगलवार, 17 जून 2025
ये समय है
सोमवार, 16 जून 2025
प्रत्युत्तर
रविवार, 15 जून 2025
कुछ नहीं
शनिवार, 14 जून 2025
हे सृष्टिपिता!
शुक्रवार, 13 जून 2025
प्रतीक्षा
गुरुवार, 12 जून 2025
वे लड़कियाँ
बुधवार, 11 जून 2025
मनाकाश
मंगलवार, 10 जून 2025
मृत्यु भी प्रबोधन है
सोमवार, 9 जून 2025
कई बार मैंने
रविवार, 8 जून 2025
वृक्ष विहीन
शनिवार, 7 जून 2025
एक ही प्रेम
शुक्रवार, 6 जून 2025
सौंदर्य
गुरुवार, 5 जून 2025
शर्म
मंगलवार, 3 जून 2025
बहन
ज्यादा मत हँसा कर
नहीं तो दुख पाऐगी
बरजती थी माँ
छोटी बहन को
अब नहीं हँसती बहन
उस तरह से
जिस तरह से
खिलखिलाती
उड़ रही है भानजी
बल्कि डाँटती है-
"नासपीटी
बंद कर
ज्यादा खिलखिलाएगी तो जीते जी मर जाएगी" और उदास हो जाती है
ना जाने किन स्मृतियों में खो जाती है।
- विनोद पदरज
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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
सोमवार, 2 जून 2025
स्त्रियों से ही है वसंत
स्त्रियों से ही है वसंत
और स्त्रियों से ही है जीवन-सुख अनंत
न हों स्त्रियाँ तो फिर कैसा ब्रह्म,
कैसा ब्रह्मांड...?
नदियाँ स्त्रियों से,
फूलों में खुशबू स्त्रियों से,
आकाश स्त्रियों से,
आकाश में उड़ना स्त्रियों से
शस्त्र और शास्त्र स्त्रियों से
और हार-जीत भी
पाँव-पाँव चलता है, दौड़ता है,
हाँफता है संसार
तार-तार भी, बेतार भी,
हो जाता है स्मृतियों में
पहाड़ सदियों के ढोता है अपने कांधों पर
बिजली के तारों से लपेटता है दुख अपने
दुख मगर स्त्रियों के भी तो कुछ कम नहीं
टुकड़ा-टुकड़ा सुलगती रहती हैं
गीली लकड़ियाँ
जीवन में जीवनभर के लिए
भर जाता है धुआँ
अक्षर-अक्षर क्षरण, घिसता है पत्थर भी
परिभाषाएँ बदलती नहीं हैं
ताप की, संताप की
जितना-जितना खुलती हैं
अपनी आकाँक्षाओं में
उतना-उतना बंद होती जाती हैं स्त्रियाँ
अपनी पवित्रताओं से करती हैं
उद्धार सभी का
उनकी सोच सिर्फ उनकी नहीं, न प्रेम हो
एकाकी कुछ नहीं
उनके एकान्त में कुछ भी नहीं
ढोल-ढमाके छीनते ही रहते हैं उनके सपने
सपने वे भी छिन ही जाते हैं स्त्रियों के
स्त्रियाँ जो देखती हैं सपने दूसरों के लिए
दूसरों की दुनिया में जीवन नहीं,
जीवन का अंत है
स्त्रियों से ही वसंत है।
- राजकुमार कुम्भज
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- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद
रविवार, 1 जून 2025
औसत औरत
तुम्हें चाहिए एक औसत औरत
न कम न ज़्यादा
बिल्कुल नमक की तरह
उसके ज़बान हो
उसके दिल भी हो
उसके सपने भी हो।
उसके मत भी हों मतभेद भी
उसके दिमाग़ हो
ताकि वह पढ़े तुम्हें और सराहे
वह बहस कर सके तुमसे
तुम शह-मात कर दो
ताकि समझा सको उसे
कि उसके विचार कच्चे हैं अभी
अभी और ज़रूरत है उसे
तुम-से विद्वान की।
औसत औरत को तुम
सिखा सकोगे बोलना
सिखा सकोगे कि कैसे पाले जाते हैं
आज़ादी के सपने।
पगली होती हैं औरतें
बस खिंची चली जाती हैं दुलार से।
इसलिए उसकी भावनाएँ भी होंगी
आँसू भी
वह रो सकेगी
तुम्हारी उपेक्षा पर
तुम हँस सकोगे उसकी नादानी पर
कि कितना भी कोशिश करे औरत
औसत से ऊपर उठने की
औरतपन नहीं छूटेगा उससे।
तुम्हारा सुख एक मुकम्मल सुख होगा
ठीक उस समय तुम्हारी जीत सच्ची जीत होगी
जब एक औसत औरत में
तुम गढ़ लोगे अपनी औरत।
- सुजाता
-----------
- हरप्रीत
सिंह पुरी के सौजन्य से
शनिवार, 31 मई 2025
नींद उचट जाती है
जब-तब नींद उचट जाती है
पर क्या नींद उचट जाने से
रात किसी की कट जाती है?
देख-देख दु:स्वप्न भयंकर,
चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;
पर भीतर के दु:स्वप्नों से
अधिक भयावह है तम बाहर!
आती नहीं उषा, बस केवल
आने की आहट आती है!
देख अँधेरा नयन दूखते,
दुश्चिंता में प्राण सूखते!
सन्नाटा गहरा हो जाता,
जब-जब श्वान श्रृगाल भूँकते!
भीत भावना,भोर सुनहली
नयनों के न लाती है!
मन होता है फिर सो जाऊँ,
गहरी निद्रा में खो जाऊँ;
जब तक रात रहे धरती पर,
चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ
उस करवट अकुलाहट थी, पर
नींद न इस करवट आती है!
करवट नहीं बदलता है तम,
मन उतावलेपन में अक्षम!
जगते अपलक नयन बावले,
थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम!
साँस आस में अटकी, मन को
आस रात भर भटकाती है!
जागृति नहीं अनिद्रा मेरी,
नहीं गई भव-निशा अँधेरी!
अंधकार केंद्रित धरती पर,
देती रही ज्योति चकफेरी!
अंतर्नयनों के आगे से
शिला न तम की हट पाती है!
- नरेंद्र शर्मा
-----------------
-हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
शुक्रवार, 30 मई 2025
अभिनय क्या आत्महत्या है
विस्मित देखते हैं लोग
मुझको अन्य होते हुए
और रेशा-रेशा मर रहा हूँ मैं
अनुपल जन्म लेता हुआ :
यही तो होता है हर बार।
अभिनय क्या आत्महत्या है
नए जन्म के लिए
जिसमें अपने को ख़ुद
जनता हूँ मैं
जनकर मार देता हूँ!
- नंदकिशोर आचार्य
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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
गुरुवार, 29 मई 2025
सफ़र पर
यह वक्त शब्दों के दीये जलाने का है
कहा एक कवि ने
और मैंने सचमुच एक दीया जलाकर
आँगन में रख दिया
वह लड़ता रहा अंधेरे से
लड़ता रहा आँधियों से
लड़ता रहा एक पूरी रुत से
और धीरे-धीरे
मेरे जिस्म में एकाकार हो गया
अब मेरे हर शब्द में है एक मशाल
और शब्द निकले हैं सफ़र पर।
बुधवार, 28 मई 2025
आसमान के पार स्वर्ग है
सोच गया घर से
जाकर देखा
वहाँ अँधेरा दीपक को तरसे
जीवन का पौधा उगता
हिमरेखा के नीचे
धार प्रेम की
जहाँ नदी बन धरती को सींचे
आसमान से आम आदमी लगता है चींटी
नभ केवल रंगीन भरम है
सच्चाई मिट्टी
गिर जाता जो अंबर से
वो मरता है
डर से
अंबर तक यदि जाना है तो
चिड़िया बन जाओ
दिन भर नभ की सैर करो
पर संध्या घर आओ
आसमान पर कहाँ बसा है
कभी किसी का घर
ज्यादा जोर लगाया जिसने
टूटे उसके पर
फैलो
काम नहीं चलता ऊँचा उठने भर से
मंगलवार, 27 मई 2025
नमक में आटा
कम समय में
बहुत बातें की
बहुत बातों में
कम समय लिया
कम समय में
लम्बी यात्राएँ की
लम्बी यात्राओं में
कम समय लिया
कम समय में
बहुत समय लिया
बहुत समय में
कम समय लिया
इस तरह हम
कम में ज़्यादा
ज़्यादा में कम होते गए
हमें होना था
आटे में नमक
मगर हम नमक में आटा होते गए !
सोमवार, 26 मई 2025
कवि का संकल्प
घात के प्रतिघात के फण पर सदा चलता रहूँगा
किन्तु फिर भी लोक को आलोक से भरता रहूँगा
मृत्युंजयी हूँ, है मुझे अमरत्व का वरदान शाश्वत
युग -युगांतर तक बनेंगे अमर मेरे गान शाश्वत
एक अंतर्द्वंद्व शेष है जो कह न पाया
मनुज काया का अभी कर गूढ़ता भेदन न पाया
यह अनिश्चित प्रश्नवाचक चिह्न सी कब से खड़ी है
निःसारता ही सार इसका भेद यह मैं जानता हूँ
किन्तु मैं तो साधना की वह्नि में तपता रहूँगा
किन्तु फिर भी लोक को आलोक से भरता रहूँगा
रविवार, 25 मई 2025
जब वफ़ा के खेत बंजर हो गये
शनिवार, 24 मई 2025
चेतन जड़
और बढ़ी ।
बेल कुछ और चढ़ी
और चढ़ी ।
प्यास बढ़ती ही गई,
बेल चढ़ती ही गई ।
कहाँ तक जाओगी बेलरानी
पानी ऊपर कहाँ है ?
जड़ से आवाज़ आई--
यहाँ है, यहाँ है ।
शुक्रवार, 23 मई 2025
जीवन का गान
मटकौरा होगा
पितर-न्यौंती गाएँगी
दुलहन सजायी जाएगी
जवान सब सजेंगे
जीवन का गान
बना रहेगा
पेड़ रहेंगे
बेशक पत्ते झरेंगे
जीवन का गान
चलता रहेगा
पक्षी सुबह गायेंगे
भोर खूबसूरत होगी
बूढ़े टहलेंगे
और अधिक जीने की इच्छा रखेंगे
जीवन का गान
चलता रहेगा।
युवक-युवतियाँ प्रेम करेंगे
गाना गायेंगे
आँख मारेंगे
लड़कियाँ मुस्कराएँगी
जीवन का गान
चलता रहेगा ।
बच्चे सज-बज कर स्कूल जाएँगे
माताएँ पहुँचाने जाएँगी
जीवन का गान
चलता रहेगा।
मौत जिसकी होगी
वह घाट जाएगा
या मिट्टी में मिल जाएगा
पर बच्चे जन्म लेंगे
बधाइयाँ बजेंगी
जीवन का गान
चलता रहेगा।
जीवन जैसा भी है
है बहुत दिलकश
चाहे कुत्तों का हो
या आदमी का
जीवन का गान
चलता रहेगा।
चलना ही चाहिए
जीवन का गान
रुदन जीवन नहीं
जीवन है मुस्कान
जीवन का गान
चलता रहेगा।
गुरुवार, 22 मई 2025
यात्रा
जब आता है इस धरती पर मनुष्य
वह होता है निडर
नहीं जानता डर नाम की किसी चीज़ को
धीरे-धीरे लगता है डरने
धरती की हर चीज़ से
उसे डराते हैं उसके तमाम विश्वास
उसके सपने, रिश्ते, उसके अपने
टूट जाती है उसकी-
हिम्मत और हौसलों की लाठी
डरने लगता है वह अपनी ही परछाईं से
डरता हुआ मनुष्य
कहीं से भी नहीं लगता मनुष्य ।
- कुमार कृष्ण
-----------------
- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
बुधवार, 21 मई 2025
तुम्हारे मेरे बीच
तुम्हारे और मेरे बीच की दूरी
एक वेदना थी
एक टीस
मैंने तुम्हें तीर्थ माना
दूरी
यात्रा बन गई ।
मंगलवार, 20 मई 2025
पीछे
बाहर निकल आई थी वह
अपने से
पीछे छूट गया था
उसके आकार का अँधेरा।
सोमवार, 19 मई 2025
सपने
मैंने
सपनों के गुब्बारे
उड़ाए
वे / आकाश में
विलीन हो गए
फिर
इतना संतोष / कि वे कभी
कहीं तो उतरेंगे ।
- पूरन मुद्गल
--------------
- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
रविवार, 18 मई 2025
स्नेह
स्नेह है
एक शुद्ध भाव
एक तरंग पर
तैरती दो नाव
कभी अधिकार
कभी कर्तव्य
कभी साहचर्य
कभी अपेक्षा
पर इन सबसे ऊपर
एक शुभ इच्छा
कि तुम जहाँ रहो
खुश रहो
दुख तुम्हें छुए भी नहीं
और कभी तुम्हारे हृदय की
अनगिनत स्मृतियों में
एक मेरा भी नाम हो!
शनिवार, 17 मई 2025
बुनी हुई रस्सी
तो वह खुल जाती हैं
और अलग अलग देखे जा सकते हैं
उसके सारे रेशे
मगर कविता को कोई
खोले ऐसा उल्टा
तो साफ नहीं होंगे हमारे अनुभव
इस तरह
क्योंकि अनुभव तो हमें
जितने इसके माध्यम से हुए हैं
उससे ज्यादा हुए हैं दूसरे माध्यमों से
व्यक्त वे जरूर हुए हैं यहाँ
कविता को
बिखरा कर देखने से
सिवा रेशों के क्या दिखता है
लिखने वाला तो
हर बिखरे अनुभव के रेशे को
समेट कर लिखता है !
शुक्रवार, 16 मई 2025
नदी
नदी की तरह
पर तट बंधो के साथ,
उफान में
खो जाता है
वह सब भी
मिला था जो
बहने के क्रम में
गुरुवार, 15 मई 2025
धब्बे और तसवीर
तब प्रेम बचपन ही सही
संसार ही जब खेल था,
तब दर्द था सागर नहीं,
लहरों बसा उद्वेल था;
पर रंग वह छूटा नहीं :
उस प्यार में कुंठा न थी
तुम आग जिसमें भर गए,
तुम वह जहाँ कटुता न थी
उस खेल में छल कर गए;
मैं हँस दिया, रूठा नहीं :
उस चोट के अन्दाज़ में
जो मिल गया, अपवाद था,
उस तिलमिलाती जाग में,
जो मिट गया, उन्माद था,
जो रह गया, टूटा नहीं :
अभाव के प्रतिरूप ही
संसृति नया वैभव बनी,
हर दर्द के अनुरूप ही
सागर बना, गागर बनी,
कच्ची तरह फूटा नहीं :
खोकर हृदय उससेअधिक
कुछ आत्मा ने पा लिया,
विक्षोभ को सौन्दर्य कर
संसार पर बिखरा दिया :
दे ही गया, लूटा नहीं ।
बुधवार, 14 मई 2025
पवित्र, हलाल
उनमें से कुछ लोग
धीरे-धीरे 'जिबह' करने वाली
कुल्हाड़ी ले आए
दूसरे लोग साथ लाए
अत्याधुनिक मशीनें
जो एक तरफ से घुसकर
चीरते हुए पार निकलती थीं
'झटके' में जमींदोज करती हुई
बात भेड़ों की नहीं
पेड़ों की थी
क्या जिबह, झटका क्या
क़त्ल के सभी रास्ते
पवित्र थे, हलाल थे
- देवेश पथ सारिया
---------------------
- हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद
मंगलवार, 13 मई 2025
आवागमन
और गूंजते सन्नाटों में ,
अक्सर ढूँढा करती हैं
हमारी खुशियाँ |
जब वे जिया करती हैं
मिलने की तीव्र उत्कंठा लिए.
तब हम होते हैं
जल्दबाजी में ;
बघारते हैं
एक से बढ़कर एक थ्योरी ,
और भर देते हैं कूडेदान
बीमारी लिए अनेकानेक लिफाफों से |
जब वे लुटाना चाहती हैं
बेहिसाब प्यार,
तब हम ढूँढ रहे होते हैं
खुशियाँ ईजाद करने के नए तरीके ;
हमारी आँखों में होती हैं
कैबरे नाचती लड़कियां ,
और होठों पर रहती है
एक झूठी मुस्कान |
हम खा रहे होते हैं
ग्रीन वैली के रेस्तराँ में चिकन-पुलाव,
और रुक-रुक कर लेते हैं
शैम्पेन के घूँट ,
तब घोर अंधकारमय रातों में
वे रोटियाँ बेलते हुए
फूंकती हैं चूल्हे ,
और रोक लिया करती हैं
अश्रुपूर्ण नयनों को किसी तरह बरसने से |
बचपन की पुचकार,दुलार,चुम्बन
और कंपकंपाती रातों में
छाती से चिपककर गुजारे दिन ;
सब भुला देते हैं हम
महान बनने की प्रक्रिया में |
एक दिन
जागते हैं हम
सदियों की निद्रा से,
और अर्द्ध-रात्रि में
देखे सपने की तरह
जब उतरते हैं चमचमाती कारों से,
तब वे
अपनी पथराई आँखों में समाये सपने साकार करने
और देखने हमें
प्रतिक्षण,प्रतिपल
एक सुदूर जहान को
कर चुकी होती हैं
गमन |
सोमवार, 12 मई 2025
विदा
पहचान में नहीं आ रहा था कि
दोनों में से कौन किसकों विदा करने आया है
दोनों अत्यंत आकर्षक थे
अत्यंत आधुनिक
पर एक बात प्राचीन थी
कि दोनों रो रहे थे
रविवार, 11 मई 2025
तुम ज्यों मेरी चाय
सारे दिन की
थकन मिटाते
तुम ज्यों मेरी चाय
बातों में
अक्सर परोसना
मीठा औ’ नमकीन
कितनी खुशियाँ
भर देते हैं
फ्लेश बैक के सीन
मुस्कानों का
तुम बन जाते
हो अक्सर पर्याय
कितना कुछ
हल कर देती है
अदरक जैसी बात
लौंग, इलायची
बन जाते हैं
प्रेम भरे जज्बात
जितनी भी
जो भी शिकायतें
हो तुम सबका न्याय
तुम बिन कहाँ
शाम भर पाती
इस मन में उल्लास
सच पूछो तो
मेरे होने
का तुम हो आभास
पल दो पल
जो साथ मिल रहे
वह ही मेरी आय
- गरिमा सक्सेना
-------------------
- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
शनिवार, 10 मई 2025
सभी मनुष्य हैं
सभी जीत सकते हैं
सभी हार नहीं सकते ।
सभी मनुष्य हैं
सभी सुखी हो सकते हैं
सभी दुखी नहीं हो सकते ।
सभी जानते हैं
दुख से कैसे बचा जा सकता है
कैसे सुख से बचें
सभी नहीं जानते ।
सभी मनुष्य हैं
सभी ज्ञानी हैं
बावरा कोई नहीं है
बावरे के बिना
संसार नहीं चलता ।
सभी मनुष्य हैं
सभी चुप नहीं रह सकते
सभी हाहाकार नहीं कर सकते
सभी मनुष्य हैं ।
सभी मनुष्य हैं
सभी मर सकते हैं
सभी मार नहीं सकते
सभी मनुष्य हैं
सभी अमर हो सकते हैं ।
शुक्रवार, 9 मई 2025
उठो धरा के अमर सपूतों
पुनः नया निर्माण करो।
जन-जन के जीवन में फिर से
नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो।
नया प्रात है, नई बात है,
नई किरण है, ज्योति नई।
नई उमंगें, नई तरंगे,
नई आस है, साँस नई।
युग-युग के मुरझे सुमनों में,
नई-नई मुसकान भरो।
डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ
नए स्वरों में गाते हैं।
गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे
मस्त हुए मँडराते हैं।
नवयुग की नूतन वीणा में
नया राग, नवगान भरो।
कली-कली खिल रही इधर
वह फूल-फूल मुस्काया है।
धरती माँ की आज हो रही
नई सुनहरी काया है।
नूतन मंगलमय ध्वनियों से
गुंजित जग-उद्यान करो।
सरस्वती का पावन मंदिर
यह संपत्ति तुम्हारी है।
तुम में से हर बालक इसका
रक्षक और पुजारी है।
शत-शत दीपक जला ज्ञान के
नवयुग का आह्वान करो।
पुनः नया निर्माण करो।
गुरुवार, 8 मई 2025
चेतन जड़
और बढ़ी ।
बेल कुछ और चढ़ी
और चढ़ी ।
प्यास बढ़ती ही गई,
बेल चढ़ती ही गई ।
कहाँ तक जाओगी बेलरानी
पानी ऊपर कहाँ है ?
जड़ से आवाज़ आई--
यहाँ है, यहाँ है।
बुधवार, 7 मई 2025
अभिलाषा
हमारी सारी वेदनाएँ और सुख
समय और उम्र
जन्म ले लेती हैं
जटिल से जटिल परिस्थितियों में
उनके आश्रय में हम
लहरों की अंगडाई सुला देते हैं
आकाश की ऊँचाई मिटा देते हैं
आँधियों में दीप जलाने लगते हैं
पत्थर की छाती पर नव-अंकुर उगाने लगते हैं
वे उडाकर हमारी नींदें
चाहती हैं नियति का सर कलम करना
ऐसी ही होती हैं अभिलाषाएँ
छोटी,बड़ी,स्वान्तःसुखाय या परिजनहिताय
जैसे मेरी अभिलाषा कहती है कि
जब मैं नव-सृष्टि के सृजन को आगे बढूँ
तो तुम आओ मेरे साथ
और जब शिथिलता मेरे बदन पर आकर बंधक बनाने का करे प्रयास
तो तुम मुझे प्रेरित करती
अपने हाथों से पिलाओ...ओक भर पानी
मंगलवार, 6 मई 2025
कृपया धीरे चलिए
मुझे किसी महाकवि ने नहीं लिखा
सड़कों के किनारे
मटमैले बोर्ड पर
लाल-लाल अक्षरों में
बल्कि किसी मामूली
पेंटर कर्मचारी ने
मजदूरी के बदले यहाँ वहाँ
लिख दिया
जहाँ-जहाँ पुल कमजोर थे
जहाँ-जहाँ जिंदगी की
भागती सड़कों पर
अंधा मोड़ था
त्वरित घुमाव था
घनी आबादी को चीर कर
सनसनाती आगे निकल जाने की कोशिश थी
बस्ता लिए छोटे बच्चों का मदरसा था
वहाँ-वहाँ लोकतांत्रिक बैरियर की तरह
मुझे लिखा गया
'कृपया धीरे चलिए'
आप अपनी इंपाला में
रुपहले बालोंवाली
कंचनलता के साथ सैर पर निकले हों
या ट्रक पर तरबूजों की तरह
एक-दुसरे से टकराते बँधुआ मजदूर हों
आसाम, पंजाब, बंगाल
भेजे जा रहे हों
मैं अक्सर दिखना चाहता हूँ आप को
'कृपया धीरे चलिए'
मेरा नाम ही यही है साहब
मैं रोकता नहीं आपको
मैं महज मामूली हस्तक्षेप करता हूँ,
प्रधानमंत्री की कुर्सी पर
अविलंब पहुँचना चाहते हैं तो भी
प्रेमिका आप की प्रतीक्षा कर रही है तो भी
आई.ए.एस. होना चाहते हों तो भी
रुपयों से गोदाम भरना चाहते हों तो भी
अपने नेता को सबसे पहले माला
पहनाना चाहते हों तो भी
जिंदगी में हवा से बातें करना चाहते हों तो भी
आत्महत्या की जल्दी है तो भी
लपककर सबकुछ ले लेना चाहते हों तो भी
हर जगह मैं लिखा रहता हूँ
'कृपया धीरे चलिए'
मैं हूँ तो मामूली इबारत
आम आदमी की तरह पर
मैं तीन शब्दों का महाकाव्य हूँ
मुझे आसानी से पढ़िए
कृपया धीरे चलिए।
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