पहाड़ में पितामौल्यार जैसे थे
जिसके साल में एक बार आने की उम्मीद भर से
कट जाता था सारा साल
पिता की आमद से पहले
चिट्ठी आती थी उनके आने की
और सब कुछ बदल जाता था
माँ के झुर्रियों भरे चेहरे पर
जम जाती थी हँसी की महीन परत।
लहज़े में उसके बनाए मक्खन जैसी
आ जाती थी नरमाई।
एक रोटी ज़्यादा माँग लेने पर
चूल्हे से जलती लकड़ी निकाल लेने वाली माँ
मनुहार करके खिलाने लगती थी
घर चौक से लेकर गुठयार तक
लीप डालती थी एक दिन में।
पिता के आने की खबर भर से
चीज़ों के दिन सुधरने लगते थे
धूल सनी किताबों, कपड़ों और बस्तों पर
सजने लगते थे पैबंद।
पिता हर बार बालों में
चाँदी की एक लहर बढ़ाकर लौटते
हर बार पहले से ज़्यादा झुके होते उनके कंधे
और हमारे सर पर हाथ रखने को उन्हें
हर बार पहले से कम झुकना पड़ता।
चेहरे पर एक पहचानी-सी अजनबियत ओढ़े पिता
कम बोलते, कम पूछते
बस देखते रहते
जैसे सब कुछ आँखों में कैद कर लेना चाहते हों
माँ ज़्यादातर वक़्त घर पे बिताती
साल दो धोतियों में काट कर
बचाई दो नई धोतियाँ पहनकर माँ नई सी लगती
पिता के मुँह से फलाने की माँ सुनते ही
चकित हिरणी सी कुलाँचे भरती आ जाती
पिता के लाए नए कपड़ों की जेबें
गुड़ चने से भरी रहती
चौक पिता से मिलने वालों से।
पढ़ाई के लिए लैम्प चमकाने की हममें होड़ मची रहती
समवेत स्वर में हमें पढ़ते कम चिल्लाते ज़्यादा देखते पिता
बस देखते रहते।
और फिर एक दिन मौल्यार बीत जाती
हाथों में कुछ पैसे और हिदायतें देकर
पिता लौट जाते
लौटते पिता से हम गले मिलना चाहते
कहना चाहते कि मत जाओ
यहाँ भी तो दुकान में गुड़ चना मिल ही जाता है
रहो यहीं
सिखाओ हमें हल जोतना,खाट बुनना
तुम रहते हो
तो उकाल भी ऊँधार हो जाती है पिता
हालाँकि कभी कह नहीं पाए
शायद यही सुनने के लिए बार-बार लौटते रहे पिता।
- दीपिका ध्यानी घिल्डियाल।
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विजया सती के सौजन्य से
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मौल्यार - वसंत
उकाल - चढ़ाई
ऊँधार - उतराई
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